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अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को भटकाव पर कहा जाना अभी जल्दबाजी होगी,लेकिन ऐसा लगता है कि चाहे अनचाहे सरकार ने अन्ना हज़ारे और उनकी टीम को ऐसी परिस्थिति में डाल दिया है,जिससे उसके भटकाव पर होने का अहसास हो रहा है । यदि प्रारम्भ्म में ही सरकार ने वह सभी बातें या माॅगें,जो आज मानती हुई दीख रही है,मान लेती तो शायद ही ऐसा अहसास होता । जैसे जैसे सरकार अन्ना की माॅगो के करीब पहुँचती प्रतीत हो रही है,वैसे वैसे अन्ना और उनकी टीम को ऐसा लगने लगा है कि यदि वे थोड़ा और दबाव बनाएँ तो शायद उनकी सारी बातें मान ली जाएगी । ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी सकता है लेकिन यदि ऐसा नहीं होगा तो इसके लिए स्वयं सरकार की ही कार्य पद्धति या सोच जिम्मेदार होगा ।ज़रा सोचिए, सरकार प्रराम्भ में क्या कह रही थी और आज क्या कर रही है? क्या दोनो में कोई सम्बन्ध है- शायद नहीं । पहले सरकार अन्ना की कोई माँग सही नहीं मान रही थी और आज लगभग सारी बातें मानती हुई दीख रही है ।सच्चाई तो यह है कि सरकार स्वयं अपनी समिति की अनुशंसा से आगे जाकर अन्ना कीबातों को मानती हुई दीख रही है । साराशंतः इस स्थिति के लिए सरकार ही जिम्मेदार है,भले ही इसके पीछे उसकी कोई सोची समझी रणनीति न रही हो । बहरहाल अन्ना और उनकी टीम को भी संयम और धैर्य का परिचय देने की आवश्यकता है,अन्यथा जिसका डर है वह सत्य भी साबित हो सकता है । अन्ना और उनकी टीम जैसा लोकपाल चाह रही है,यदिवैसा भी बिल आ जाय तब भी आशंका है कि सब ठीक ही हो जाएगा अर्थात् जब यह सुनिश्चित नहीं है कि सब तत्काल ठीक ही हो जाएगा,तब क्यों नहीं सरकार जैसा कर रही है, उसे ही स्वीकार कर लिया जाय ।देश बहुत समय तक इस मुद्दे को लेकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता,इस लिए अन्ना और उसकी टीम को परामर्श यही है कि सरकार अभी जो करने जा रही है उसे स्वीकार करें क्योंकि अन्ततः भर्ष्टाचार तभी और केवल तभी मिटेगा जब पूरा समाज इसे मिटाना चाहे । कम से कम अभी तो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है। आवश्यकता पूरे समाज को एक साथ जागने की है, न कि केवल सरकार केविरूद्ध ,जैसा कि बहुत सारे लोगो को दीख रहा है ,एक साथ ऊठ खड़े होने की ।
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