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टुच्चे नेताओं की टुच्ची राजनीति

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मित्रो, परसों हमने देश में 66वां गणतंत्र दिवस मनाया। सभी को हार्दिक बधाइयों और शुभकामनाएँ।

मुझे याद आ रहे हैं अपने लोकतंत्र के वे काले दिन जब कि देश ने आपातकाल झेला था। इस आपातकाल के बाद श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देश में चुनाव की घोषणा कर दी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण का ‘पैरोल’ पर रिहा होकर मुम्बई के जसलोक अस्पताल में इलाज चल रहा था।

लोकतंत्र को दुबारा पटरी पर लाने और तानाशाह कांग्रेस को चुनौती देने वाले एक सक्षम विकल्प की तलाश में सारे समान विचारधारा वाले विपक्षी नेताओं का लोकनायक से मिलना जारी था। विपक्षी दलों ने आपसी मतभेदों, विचारधाराओं और नीतियों से समझौता कर जनता पार्टी बनाई। कांग्रेस को चुनौती देने का निर्णय लिया गया। बहुत जोश, आक्रोश और असंतोष था देश में। नेतृत्व की कमान सौंपी गई जनता पार्टी के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण को।

मुझे वह दिन बार-बार याद आता है जब मुम्बई के शिवाजी पार्क में लोकनायक के क्रान्तिकारी आवाहन को सुनने के लिये लगभग तीन-चार लाख मतवाले लोगों का हजूम उमड़ पड़ा था । जनता पार्टी के वालन्टीयर्स टीन की गुल्लकों में चुनाव के लिये चन्दा इकट्ठा कर रहे थे। कुछ लोगों की सहायता से जयप्रकाश जी को मच पर चढ़ाया गया। सभी आपातकाल के सताए हुए प्रमुख नेता मच पर विराजमान थे। आक्रोश था। लोकनायक के भाषण से पूर्व एक बड़े नेता अपनी भाषा पर सयम खो कर इन्दिरा गाँधी पर व्यक्तिगत दोषारोपण और आरोप लगाने लगे। जयप्रकाश नारायण जी की चंडीगढ़ अस्पताल में जीवनलीला समाप्त करने का आरोप तक इन्दिरा गाँधी पर लगा डाला।

इस गर्म माहौल के विपरीत जानते हैं क्या हुआ? लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने उन नेता को बीच में टोकते हुए कहा कि हम अधर्म और इन्दिरा जी की गलत तानाशाही नीतियों के खिलाफ़ लड़ने के लिये इकट्ठे हुए हैं न कि इस निम्न स्तर की लड़ाई के लिये। इन्दिरा मेरी बेटी है और मैं उसके खिलाफ़ किसी अभद्र भाषा, व्यक्तिगत आलोचना या टिप्पणी सहन नहीं कर सकता।

यह वही विशाल ह्र्दय के सहिष्णु जयप्रकाश नारायण थे जो कि अपनी घोर प्रतिद्वन्दी इन्दिरा गांधी के प्रति इतने संवेदन शील थे। ज़मीन-आसमान के वैचारिक मतभेद होने पर भी उनका प्रेम अपनी “बेटी” इन्दिरा के प्रति कभी कम नही हुआ। कभी उन्होनें घटिया स्तर का भाषण नहीं दिया। कभी “56 इन्च के सीने” वाली गली-सड़क छाप भाषा का प्रयोग नहीं किया। कभी अपने प्रतिद्वन्दी को “AK-49” नहीं कहा। मोरारजी देसाई के शपथ-ग्रहण समारोह में स्वंय इन्दिरा गाँधी और उनके परिवार को आमंत्रित किया। कभी उनका अनादर नहीं किया। ठीक इसी प्रकार इन्दिरा जी और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू जी ने भी हमेशा स्वंय खड़े हो गले लगा कर उनका स्वागत किया। यही तो है व्यक्ति का बड़प्पन।

पर आज कहां गई यह राजनैतिक सहनशीलता, प्रतिद्वन्दी के प्रति आदर, सम्मान और प्रेम? कितना गिर चुका है आज की राजनीति का स्तर? आज मोदी जी की सरकार पूर्ण बहुमत में होते हुए भी अरविन्द केजरीवाल को गणतंत्र दिवस समारोह का न्यौता न भेज कर कितनी बौनी हो गई? क्या आगे से अपना लोकतंत्र इसी दिशा में चलेगा? चुनावी भाषणों में अपने को एक “चाय बेचनेवाला”, “दलित” और “नीच” की राजनीति करने के उपरान्त भी क्या यह राजनेता अपने आप को इस स्तर से ऊँचा नहीं उठा सकेगा?

यही तो है टुच्चे नेताओं की टुच्ची राजनीति!

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