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हमारा भटका लोकतंत्र!

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पिछले 5 दशकों से अधिक प्रबन्ध के क्षेत्र में परामर्शदाता, प्रशिक्षक व अन्वेषक का अनुभव व दक्षता-प्राप्त विष्णु श्रीवास्तव आज एक स्वतंत्र विशेषज्ञ हैं। वह एक ग़ैर-सरकारी एवं अलाभकारी संगठन “मैनेजमैन्ट मन्त्र ट्रेनिंग एण्ड कन्सल्टेन्सी” के माध्यम से अपने व्यवसाय में सेवारत हैं। इस संगठन को श्री श्री रविशंकर का आशीर्वाद प्राप्त है। विष्णु श्रीवास्तव ने “आर्ट ऑफ़ लिविंग” संस्थान से सुदर्शन क्रिया व अग्रवर्ती योग प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्हें अंग्रेज़ी साहित्य व ‘बिज़नेस मैनेजमैन्ट’ मे स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त हैं। वह “वरिष्ठ नागरिकों की आवाज़” नामक ग़ैर-गैरकारी संगठन में सक्रिय रूप से जुड़े हैं। इनके कई व्यावसायिक लेख “प्रॉड्क्टीविटी” और “इकोनोमिक टाइम्स” मे प्रकाशित हो चुके हैं।

समय इतिहास बनाता जाता है और परिवर्तन होते रहते हैं। मैं नहीं समझता कि अपने दासता प्रधान, हमारे “मालिक”, हमारे “हुज़ूर”, हमारे “अन्नदाता”, हमारे “माई-बाप”, हमारे “सरकार”, हमारे “आका” कहने वाले देश मे कभी आज के चर्चित लोकतंत्र जैसी प्रथा रही होगी। वंशवादी प्रथा के अनुसार राजे रजवाड़े ही अपनी रियासतों और छोटे छोटे राज्यों पर शासन करते आए हैं। इतिहास उन्हें अच्छा या बुरा शासक, अपनी प्रजा का हितैषी या अत्याचारी कह कर परिभाषित करता रहा है। जैसे कि राम राज्य और कन्स राज। आज़ादी के बाद अचानक जिस लोकतंत्र की प्राप्ति हुई, उसकी परिभाषा हमारे उत्तम सविधान में होते हुए भी, हमारे धूर्त शासकों ने अपने हिसाब से कर ली। जिसका मात्र अर्थ था एक कौम (अंग्रेज़) से दूसरी कौम (भारतीय मूल के लोग) या यूं कहिये कि दूसरे विशिष्ट परिवार को सत्ता का हस्तांतरण। क्यों कि हम लोकतंत्र की परिभाषा से अनिभिग्य थे, नई नई आज़ादी का जुनून था, इतने शिक्षित नहीं थे, हम लोग तो इसी मे बहुत खुश थे कि चलो अंग्रेज़ो को भगा दिया और हमारा काम खत्म। अब हम आज़ाद हैं। कैसी विडम्बना है?

हमारे सविधान निर्माताओं ने यह कल्पना नहीं की थी कि जिन्हें वे सत्ता सौंप रहे हैं और उनकी आनेवाली पीढ़ी अत्यन्त भ्रष्ट और शोषण करने वाली होगे। परन्तु आज प्रश्न यह उठ रहा है कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण से क्या परिवर्तन आया। केवल अंग्रेजी गोरे चहरे गायब हुए तो एक परिवार के ‘ब्राउन’ चहरे हमारे शासक बन गये। सत्ता आम आदमी के बजाय उन ‘ब्राउन’ चहरों के परिवार और उनकी गुलाम पार्टी के पास केन्द्रित हो गई। 5 वर्ष मे एक बार अपना वोट इन्हें देकर “FILL IT, SHUT IT, AND FORGET IT’. एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें हम अपने न्यासी (Trustees) और प्रतिनिधि न चुन कर अपने 5,000 “मालिक”, “स्वामी” और अपने “शासक” चुनते हैं?

देश के हालात देख कर कभी कभी सन्देह होता है कि क्या हम प्रारम्भिक कठोर अनुशासन के बिना वास्तव मे लोकतंत्र व्यवस्था के हक़दार थे या दूसरे शब्दों मे कहिये कि क्या हम अपने को इस प्रणाली के अनुरूप बना पाये? इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप हमें एक जिम्मेदार, जागरुक, अनुशासित, शिक्षित, राष्ट्र्वाद से प्रेरित, सभ्य नागरिक बनाना हमारे इन “शासकों” के हित में हरगिज़ नहीं था। क्योंकि जिम्मेदार, जागरुक, अनुशासित, शिक्षित, राष्ट्र्वाद से प्रेरित, सभ्य नागरिकों पर शासन करना बहुत कठिन होता है। वे बहुत सशक्त हो जाते हैं। उनका शोषण बहुत मुश्किल होता है। यदि आज हम वास्तव मे इस व्यवस्था के योग्य बन जाते तो क्या हम भारत को इन दुष्ट भ्रष्टाचारियों के हाथ असहाय होकर लुटते हुए देखते? क्या आज हम इस भ्रष्ट व्यवस्था का कोई भी दूसरा विकल्प न होने की स्थिति में होते? आज तो चुनाव जीतने पर चरम सीमा की भ्रष्ट पार्टी सीना ठोक कर कहती है कि जनता हमें भ्रष्ट नहीं समझती इसीलिये हमें चुना है। क्या इस प्रश्न का उत्तर है उनके पास कि अपनी दमनकारी और सवेदनहीन नीतियों, तानाशाही रवैये, और अपने दांव-पेच से उन्होंने किसी अच्छे विकल्प को देश में खड़ा ही नहीं होने दिया। इनकी भरसक कोशिश रहती है कि इससे पहले कि कोई विकल्प पैदा हो उसका दमन तुरन्त किया जाए। इससे जुड़ी मुहिम को ही नष्ट कर दिया जाए।

कैसा लोकतंत्र है यह और कैसे आस्था रखें इसमें जहाँ एक कथित अपराधी और उसके परिवार को बचाने हेतु पूरा सत्ता दल, सम्बन्धित राज्य सरकारें और मत्रीग़ण चापलूसी करने की प्रतिस्पर्धी मे जुट जाते हैं और उनके विरुद्ध आरोपों की निष्पक्ष न्यायिक जांच करवाने की बात भी नहीं करते? यदि आपको बहुत तक्लीफ़ है तो लड़िये इन दुष्टों के विरुद्ध 25 वर्षों तक उच्चतम न्यायलय तक की कानूनी लड़ाई। क्या किसी आम आदमी में है इतना सामर्थ्य? बहुत बोलोगे तो चलो जेल। न्याय व्यवस्था को प्रभावी, सस्ती और सवेदनशील बनाना इनके हित में बिल्कुल नहीं है। वरना एक दिन भी शासन न कर पाएं।

क्या कोई भी भारतीय एक ऐसे लोकतंत्र में आस्था रखेगा जिसे आशीर्वाद प्राप्त हो एक चौथाई दागी सांसदों और आधे भ्रष्ट मंत्रिमंडल का? एक ऐसा लोकतंत्र जहां यही दागी सांसद हमारे, आपके व देश के लिये कानून बनाते हों? एक ऐसा लोकतंत्र जहां घोटालों मे लिप्त दागी सांसद देश के लिये लोकपाल कानून बनाने वाली स्थाई समिति मे सदस्य हों? एक ऐसा लोकतंत्र जहाँ अपराधियों के ज़मानत पर छूटते ही उन्हें उच्च पदों पर पुनः बैठा दिया जाता है? एक ऐसा लोकतंत्र जहां आज राजनीति का अपराधीकरण एक आवश्यक मान्यता बन गयी हो? एक ऐसा लोकतंत्र जहां सत्ता हथियाने के लिये पिछले राजे रजवाड़ों की तरह वशवाद और परिवारवाद इस देश में पनप रहा हो? एक ऐसा लोकतंत्र जहां सांसदों, विधायकों और पार्षदों के बेटे, बेटियों, दामादों और उनके समस्त परिवारजनों को राजनीति के व्यवसाय मे भ्रष्टाचार और लूट के पैसे, बाहुबल, शराब की बोतल, पार्टी के संसाधनों के बल पर प्रवेश करने का सौ प्रतिशत आरक्षण हो? कितने ही भ्रष्ट या अपराधी छवि के हों, पैसे, बोतल और बन्दूक के बल पर चुनाव इन्हीं को जीतना है। एक ऐसा लोकतंत्र जहाँ स्वंय दागी पति जेल यात्रा के कारण अपनी राजनीति मे अनुभवहीन तथा अशिक्षित पत्नी को अपनी “जागीर” का मुख्यमत्री नियुक्त कर दें? एक ऐसा लोकतंत्र जहां एक राजनैतिक अपराधी को हम अपराधी न कह सकें जब तक 25-30 वर्षों मुक़दमा चलने तक उच्चतम न्यायालय उसे अपराधी घोषित न कर दे? वही अपराधी 25-30 वर्षों तक हमारा “माननीय सांसद”, “माननीय मंत्री” और हमारा भाग्य विधाता बना रहता है। इसकी भी कोई गारंटी नहीं कि कानूनी दाँवपेच, सारे संसाधन और सरकार के आधीन केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो और अन्य सवैधानिक सस्थाओं के सहयोग से वह सदैव “माननीय” ही बना रहे; कभी अपराधी ही घोषित न किया जाए।

एक ऐसा लोकतंत्र जिसमे राजनीति में अपरिपक्व बेटे को पिता प्रदेश का मुख्यमत्री बना दे और बेटा अपने हास्यास्पद निर्णयों को बार बार बदले? ऐसा बेटा जिसकी आधुनिक उच्च शिक्षा के परिपेक्ष ने प्रदेश मे एक आशा जगाई थी कि वह वास्तव मे विकास के रास्ते पर चल कर, पार्टी से गुंडे-बदमाशों को बाहर का रास्ता दिखाकर, तुरन्त गुन्डागर्दी खत्म कर देगा और पार्टी के भ्रष्ट होने की छवि सुधारेगा। सभी ने इसमें राहुल गाँधी से अधिक प्रतिभाशाली और योग्य, अपने ही प्रदेश के बेदाग हंसमुख बेटे होने की छवि देखी। खुल कर समर्थन किया। परन्तु जनता और आम आदमी की अपेक्षाओं से इन्हें क्या लेना देना? सब कुछ तो इसके विपरीत हो रहा है। सरकार मे अवांक्षित तत्वों की भरमार है और गुन्डाराज का बोलबाला है। सरकारी खर्च पर एक लैपटाप लो और तुम्हारा सम्पूर्ण विकास हो गया।

एक ऐसा लोकतंत्र जिसमे परिवार के सभी सगे, चचेरे, ममेरे, फ़ुफ़ेरे और दूर दूर के रिश्तेदार, पूरा कुनबा और पड़ौसी तक सरकार मे हों और सरकार उनकी मुट्ठी में?

एक ऐसा लोकतंत्र जहां भ्रष्ट नेता आसानी से भाषण देते हैं कि राजनीति मे अच्छे व्यक्तियों को आना चाहिये। इन अच्छे व्यक्तियों की सुरक्षा इन गुन्डे और भ्रष्टाचारियों से कौन करेगा जब कि देश के आधे सैन्यदल व पुलिस आम आदमी को सड़क पर असुरक्षित छोड़ कर इन “असुरक्षित” नेताओं और अफ़सरशाही की सुरक्षा में तैनात हैं? X, Y, Z और न जाने कितनी प्रकार की सुरक्षा इन्हें उपलब्ध है। ब्यूरो ओफ़ पुलिस रिसर्च एण्ड डेवेलपमैंन्ट के आँकड़ों के अनुसार 2010 मे 16,788 वीआईपी की सुरक्षा मे 50,059 पुलिस बल तैनात हुए थे। यानि कि प्रति वीआईपी 3 पुलिस कर्मी जब कि प्रति 761 सामान्य नागरिकों के लिये 1 सिपाही की व्यवस्था है। ऐसा जब हो रहा है जब कि देश में लगभग 5 लाख पुलिस बल की कमी है।

एक ऐसा लोकतंत्र जहाँ पक्ष और विपक्ष दोनों ही बुरी तरह से भ्रष्टाचार मे लिप्त हों? एक दूसरे के पूरक हों? एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें देश की सभी संवैधानिक संस्थाएं, जांच एजेन्सियॉ एक परिवार या पार्टी के आधीन काम करती हों। कौन करेगा निष्पक्ष जांच इस परिवार और पार्टी के विरुद्ध जिसे देश “फ़ोउन्टेन हैड आफ़ करपशन” (भ्रष्टाचार की गंगोत्री) मानता है?

एक ऐसा लोकतंत्र जहां लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाला मीडिया जनमत की अवहेलना कर अपनी व्यवसायिक Television Rating Points (TRP) की अधिक परवाह करता हो? जहां आम आदमी इसे “बिका हुआ मीडिया” की उपाधि से अलंकृत करे। एक ऐसा लोकतंत्र जहां मीडिया संघर्षरत जन आन्दोलनों की उपेक्षा कर एक अपराधी फ़िल्म अभिनेता की विस्तृत दिनचर्या और उसकी जेल यात्रा और एक अपराधी नेता की रैली को पूरे दिन दिखाता रहे? दोनों ही श्रोतों से उनकी कमाई होती है न? बेचारे भूखे प्यासे संघर्षरत आन्दोलनकारी क्या दे पाएंगे?

ऐसा लोकतंत्र जहां लोक सेवक (Public Servants) न केवल 5 साल के लिये बल्कि सदैव के लिये हमारे आका, हमारे मालिक, हमारे हुज़ूर, हमारे अन्नदाता, हमारे माई-बाप बन गये! यह सरकारी नौकर हैं न कि लोक सेवक।

अब संघर्ष है कि यदि सही लोकतंत्र है तो सत्ता इन चन्द गिने चुने लोगों से हठ कर आम आदमी के पास जानी चाहिये जो कि इसका असली हक़दार है। ये चुने हुए हमारे प्रतिनिधि आम आदमी से परामर्श कर शासन चलाएँगे। ये हमारे शासक नहीं हो सकते केवल हमारे सेवक ही रहेंगे जन प्रतिनिधि के रूप में। जन प्रतिनिधी के रूप मे वही काम करेंगे जो जनता चाहेगी। नौकरशाही इनके प्रति वफ़ादारी न दिखा कर आम जनता के प्रति उत्तरदायी होगी। विषय थोड़ा क्लिष्ट है। बहुत चर्चा हो सकती है।

पर एक अहम सवाल है कि क्या हम इसके लिये तैयार हैं? क्या हम इसका विकल्प पूरी तरह से तैयार कर चुके है? इसका उत्तर इस समय तो काल के गर्भ में है।

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