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छोटा ही सही एक लोहिया बचा था, वो भी चला गया। हालांकि समाजवादी परिसर में उनकी मौजूदगी बड़े लोहिया जैसी हो गई थी। ये बात अलग है कि बदलते दौर में न तो समाजवादी खेमे में वो आंदोलित तेवर बचे और ना ही गैरकांग्रेसवाद का लोहियाई जज्बा। इस वक्त संगम तट पर उनकी अंत्येष्टि हो रही है, अभी सिर्फ दो दिन पहले ही मौलिक जुझारूपन के साथ पुलिस की गिरफ्त को अकुलाए दिख रहे जनेश्वर जी बगैर आंदोलित हुए नियति और प्रकृति की गिरफ्त में चले गए, सदा के लिए। ये वाक्य तो औपचारिकता के लिए ही है कि वो सदा के लिए तमाम लोगों के जेहन में बसे रहेंगे।
मेरा न तो उनसे व्यक्तिगत परिचय था और ना ही पैतृक विरासत में मिले विचारों के कारण कोई वैचारिक लगाव या अनुगमन। फिर भी एक पत्रकार होने के नाते वो अच्छे लगते थे, एक खांटी समाजवादी के नाते भाते थे, अपनी बात रखने के अंदाज के कारण सुहाते थे, एक वक्ता के नाते मोह लेते थे। तब मैं कतई परिपक्व नहीं था (वो तो अब भी नहीं हूं), मेस्टन रोड (कानपुर) में बीच वाले मंदिर के पास उनकी एक मीटिंग कवर करने का मौका मिला था। चंद्रशेखर जी भी उस मीटिंग में वक्ता थे। वैसे तो प्वाइंट्स नोट करने का अभ्यास हो चुका था लेकिन जब जनेश्वर जी शुरू हुए तो एक स्टेनोग्राफर की तरह उनका हर बोल नोट करने को मजबूर हुआ। दिक्कत तब आई जब खबर लिखने बैठे। कापी लंबी होती गई, बेटा प्रकाश, कितनी देर में पूरी होगी खबर? सीनियर विष्णु त्रिपाठी जी (वो हमारे लोकल सिटी इंचार्ज थे और नाम के द्वंद्व के चलते बेटा प्रकाश कह कर बुलाते थे।) की तीन-चार बार की टोकाटाकी के बाद कापी पूरी हुई। कापी उन्होंने देखी और झल्लाये। देर भी हो गई थी और इतनी लंबी। हमारी ओर देखा, हमने भी बेबसी में कह दिया कि वो कुछ ऐसा बोले ही नहीं जो लिखा न जाए, रीडर से बांटा न जाए। हमसे चौगुने अनुभवी विष्णु जी भी काफी देर तक उस पर जूझते रहे और राजू फोरमैन को जल्द कापी कंपोज के लिए देने के वास्ते दिलासा देते रहे। दूसरी बार उन्हें तब कवर किया जब वह समाजवादी पार्टी की रैली में बेगम हजरत महल पार्क (लखनऊ) में बोले थे। लेकिन उन्हें सुना अनेकों बार।
तुलना करने की कोई कोशिश नहीं कर रहा लेकिन जो एहसास हुआ, वो इस तरह था कि चंद्रशेखर जी जब बोलते तो वो भाव चेहरे पर भी उतरते, मुख प्रदेश पर थोड़ा गुस्सापन झलकता, भौहें तनती और नथुने फड़फड़ाते। जनेश्वर जी बोलते तो अलंकनंदा की भांति गड़गड़ाते। एक लय में तेवर, तंज, तुर्शी और तल्खी पिरोते जाते और अपनी बात सुनने वालों में गहरे से समोते जाते। उनकी आवाज में, सुर में, एक खास किस्म की गमक थी, गूंज थी, पखावज के नाद (गम्म) सरीखी। जो उनके गले से नहीं, नाभि की पृष्ठभूमि से आती लगती थी, बतर्ज आचार्य पंडित भीमसेन जोशी। बेशक उन्होंने विचार की अनवरत साधना की लेकिन वक्तृत्व कला के तो अतुलित साधक थे। कई लोग तो उनकी भाषण कला के ही कायल थे, तमाम लोग कापी करने की कोशिश करते और हम ये कह सकते हैं कि भाषणबाजी में एक जनेश्वर स्कूल आज भी थोड़ा-थोड़ा कायम है। क्रांतिकारी बलिया और विचारशील इलाहाबाद के मानस संगम से वो समाजवाद के कुंभ क्षेत्र हो गए। उनके भीतर जो ज्वलन था, जज्बा था, जुनून था, एक-एक शब्द उसका प्रतिनिधित्व करता हुआ प्रवाहित होता था। पता नहीं क्यों उन्हें सुनते हुए लगता कि जैसे दिनकर का गद्य पाठ सुन रहे हों। पता नहीं ये बात कहां से दिमाग में बैठ गई जबकि मैंने दिनकर को कभी न तो देखा, न सुना, सिर्फ पढ़ा है। (हां, एक बार ऐसा जरूर हुआ था कि कानपुर के प्रयाग नारायण शिवाला में आयोजित एक समारोह में आचार्य शिवमंगल सिंह सुमन को राम की शक्ति पूजा का पाठ करते सुना था, ये कहते हुए कि निराला जी मंच पर ऐसे ही पाठ करते थे। लेकिन पिता जी ने कहा था कि कुछ-कुछ दिनकर जी की स्टाइल भी है।) जनेश्वर जी को सुनकर अचरज होता कि कितना पढ़ा है, कितना पढ़ते हैं, कितना अपडेट रहते हैं। सभा मंचों पर पूरी ठसक के साथ पालथी मारे उनकी छवि याद कीजिए, सिद्ध साधक स्थितिप्रज्ञ, बुद्धा। उनकी वो छवि आज भी याद आती है जब वो समाजवादी पार्टी के खुले सम्मेलन में झकास रे-बैन का चश्मा लगाये बैठे थे। उनकी वो फोटो खूब चर्चित हुई थी, अंग्रेजी अखबारों ने तो उसे खास तवज्जों दी थी। इस बारे में जब उनसे सवाल हुए, कहां समाजवाद और कहां रे-बैन ब्रांड तो जवाब था-आप लोग ऊपर-ऊपर देखते हो, मेरे नजर-नजरिया और दृष्टि-दोलन वही हैं। इसमें दो राय नहीं कि खुद मुताबिक शब्द और परिभाषा गढ़ने में समाजवादियों का कोई जवाब नहीं। उनका पान या पान मसाला छोड़ने का प्रसंग भी काफी चर्चित हुआ था।
मैंने कहीं पढ़ा था कि शुरुआती दौर में इलाहाबाद में जनेश्वर जी, चंद्रशेखर जी के व्यक्तिगत खर्चों की चिंता करते थे। ये भी सुना है कि हरिकेवल प्रसाद से लेकर राघवेंदर दूबे और रविंदर ओझा सरीखे समाजवादी उनसे साधिकार जेब खर्च हासिल करते थे। पता नहीं ऐसे कितने लोग होंगे। कितने ऐसे लोग होंगे जो उनसे वैचारिक दिमागी खर्च हासिल करते रहे होंगे। कितने लोग उनके साये में एमपी-एमएलए बन गए होंगे। फूलपुर लोकसभा सीट पर पहला चुनाव जीते थे तो शायद अपने साथ चार एमएलए भी जिता लाये थे। कहते हैं कि जिन दिनों जनेश्वर जी समाजवादी युवजन सभा के कर्ताधर्ता थे, नई पौध विकसित करने की चलती-फिरती नर्सरी थी।
मौत से दो-तीन पहले आंदोलन में जूझने वाले जनेश्वर जी ही ये कह सकते हैं कि उन्हें सड़क पर असली ऊर्जा हासिल होती है। वो शांत होकर बैठने वालों में तो नहीं हैं। मजा तो अब आएगा जब वो ऊपर वाले के यहां भी व्यवस्था के खिलाफ मूवमेंट शुरू करेंगे और वो भी उन्हें किसी न किसी निरोधात्मक कार्रवाई-कानून के तहत जेल भेजने को मजबूर हो जाएगा। वो कार-आगार ही उनकी मोक्ष स्थली है।
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