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जन्म से लेकर मरने तक सारे कर्मकांड सामाजिक जीवन के लिए नहीं, बल्कि पुरोहितवर्ग का पेट भरने के लिए और उनका धंधा बनाए रखने के लिए बनाए गए हैं. सामाजिक जीवन के लिए कर्मकांड इसलिए निश्चित किये गए हैं, क्योंकि ये निश्चित करने वाले पुरोहितवर्ग के लोग रहे हैं, जो बिना कोई श्रम किये भोलीभाली जनता को स्वर्गनरक की बातों में उलझा कर और उन्हें उल्लू बना कर अपना उल्लू सीधा करते आये हैं.
वास्तव में धर्म या ईश्वर की अवधारणा ही गलत है और अगर ईश्वर कहीं है भी तो कोई भी व्यक्ति खुद उसकी पूजा अपने तरीके से कर सकता है. इसमें पुरोहित रूपी किसी दलाल या एजेंट या ‘ब्रोकर’ की जरूरत नहीं है. अगर धर्म ही कानून है तो फिर सती प्रथा, दहेज़ प्रथा, बालविवाह प्रथा आदि के खिलाफ अलग से कानून क्यों बने?
धर्म तो लोगों को उल्लू बनाने का एक जरिया मात्र है. कर्मकांड पूरी तरह से अंधविश्वास है व पंडेपुजारिओं के पेट भरने का धंधा है. मंदिर-मस्जिद आदि धर्म की दुकानें हैं, न कि पूजास्थल. इन जगहों पर जो कुकर्म होते हैं, वे किसी से छिपे हुए नहीं हैं. क्या जबरन वसूली कर पूजा करना ही धर्म है? वह भी बीच चौराहे पर पंडाल बना कर. समझ में नहीं आता कि यह कैसा धर्म और कैसी पूजा है?
धर्म के धंधेबाजों को नास्तिकों से इतना भय क्यों है, जबकि नास्तिक कोई अपवाद स्वरुप ही होता है. यह तो वही बात हुई कि एक ईमानदार सौ बेईमानों से नहीं डरता , लेकिन सौ बेईमान एक ईमानदार से खौफ खाते हैं. ठीक वैसे ही एक नास्तिक ईश्वर में विश्वास न करते हुए भी सौ आस्तिकों से नहीं घबराता, जबकि करोड़ों आस्तिक तैंतीस करोड़ देवताओं की कृपा होने के बावजूद एक नास्तिक से भय खाते हैं.
इसी से पता चलता है कि धर्म या कर्मकांड या ईश्वर में कितना दम है और ये कितने पानी में हैं. कुछेक नास्तिकों से पूरे आस्तिक समुदाय को खतरा क्यों? बेहतर होगा यह कहना कि ये झूठे हैं और जनता को उल्लू बनाते हैं. पिंडदान तो क्या, कोई भी कर्मकांड पुरोहितवर्ग के पेट पोसने का जरिया मात्र है. खटमल की तरह मुफ्त में दूसरे (जनता) का खून चूसना– यही कर्मकांड या धर्म है और इसका विरोध होना ही चाहिए, चाहे विरोध करने वाला/वाली लाखों तो क्या, करोड़ों में एक ही क्यों न हो! सारांश यह कि अगर दुनिया में धर्म या कर्मकांड न होते, तो दुनिया ज्यादा खुशहाल होती!
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