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मैत्री करार कर्मकांड नहीं

मेरा नज़रिया
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महाभारत में ‘श्वेतकेतु’ का जिक्र है. उन के द्वारा विवाह की संस्था को दृढ करने हेतु बनाए गए नियमों में स्त्रियों का परपुरुषगमन निषेध था लेकिन पुरुषों का परस्त्रीगमन निषेध नहीं था! यह बात समझ में नहीं आयी. इसी वजह से कुछ विवेकशील लोग अगर श्वेतकेतु को महिलाओं के पैरों में बेड़ियां पहनाने वाला मानते हैं तो ऐसा मानने में भला गलत क्या है? आखिर बेड़ियां सिर्फ महिलाओं के पैरों में ही क्यों पहनाई जाएं? पुरुषों पर भी उन्होंने यह नियम लागू क्यों नहीं किया?

वास्तव में गंधर्व विवाह या लव मैरिज ही उत्तम विवाह है क्योंकि यह स्त्रीपुरुष की आपसी सहमति से होता है.

वैसे भी यह कहां का न्याय है की शादी करेगा पुरुष और वधू पसंद करेगा उसका बाप या दादा! यही बात स्त्री पर भी लागू होती है. वह अपना भावी पति खुद पसंद कर ले तो हमारे समाज को अखरता क्यों है? जबकि ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना चाहिए. अगर स्त्रीपुरुष खुद अपनी सहमति से शादी करने लगें तो दहेज़ का नामोनिशान मिट जाएगा और समाज के लिए यह अच्छी बात होगी.

दरअसल, मातापिता या बुजुर्ग शादियां तय ही इसलिए करते हैं ताकि वे दहेज़ की बात छेड़ सकें. उन के हस्तक्षेप की कोई दूसरी वजह नजर नहीं आती.

जहाँ तक कर्मकांड का सवाल है तो यह पूरी तरह से अन्धविश्वास है और पुरोहित वर्ग की देन है. अतः शादी करनी है तो ‘रजिस्टर्ड विवाह’ या ‘कोर्ट मैरिज’ ही सर्वोत्तम है जोकि वगैर किसी कर्मकांड के हो जाती है. इस में कोई दिक्कत नहीं होती.

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