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अधिकार जीवनसाथी चुनने का!

मेरा नज़रिया
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‘अधिकार जीवनसाथी चुनने का’– भारतीय समाज में यह तबतक संभव नहीं है, जबतक ‘अरेंज्ड मैरिज’ की अवधारणा है! दहेज़ की समस्या भारत की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या है और इस समस्या के मूल में हमारे समाज की यह दकियानूसी मान्यता विद्यमान है कि बेटेबेटियों की शादी करना मातापिता या अभिभावक का दायित्व है. इसी तथाकथित ‘दायित्व’ से उपजी ‘अरेंज्ड मैरिज’ की अवधारणा ही इस समस्या की जड़ है. मातापिता अपने बच्चों को उचित शिक्षा दिलाकर आत्मनिर्भर बना दें तो उनकी जिम्मेदारी यहीं पर ख़त्म हो जाती है. जहाँ तक शादी का सवाल है तो यह बालिग बेटेबेटियों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए कि वे अपना जीवनसाथी किसे व कब ढूंढेंगे, लेकिन मातापिता चूंकि इसे अपना ‘जबरन’ दायित्व ठान लेते हैं, इसलिए दहेज़ की समस्या है.

साल 1961 में ‘दहेज़ निषेध अधिनियम’ लागू होने के समय सरकार का अनुमान था कि जैसेजैसे शिक्षा का प्रसार होगा, वैसेवैसे दहेज़ की कुप्रथा में कमी आएगी, लेकिन हकीकत में शिक्षा के प्रसार के साथ ही दहेज़ की मांग व लेनदेन में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है और मजे की बात तो यह है कि जो परिवार ज्यादा शिक्षित है, उन्हीं के बीच दहेज़ का लेनदेन व्यापक पैमाने पर हो रहा है. निश्चित रूप से भारतीय समाज की ‘अरेंज्ड मैरिज’ की अवधारणा ही इसके लिए उत्तरदायी है जिसके तहत शादियां मातापिता या अभिभावक तय करते हैं तथा विवाह योग्य लड़केलड़कियां तो महज कठपुतली की तरह ‘इस्तेमाल’ किये जाते हैं. क्या हम ‘अरेंज्ड मैरिज’ की जगह ‘लव मैरिज’ या ‘कोर्ट मैरिज’ को तरजीह नहीं दे सकते ताकि दहेज़ पर अंकुश लगे व वयस्क युवकयुवतियाँ महज प्यादे की तरह इस्तेमाल न हों? इससे जाति व धर्म की दीवारें भी टूटेंगीं व हम एक ‘भारतीय समाज’ का निर्माण करने में सक्षम हो सकेंगे!

महान साहित्यकार ‘अज्ञेय’ के शब्दों में, “संतान को पढ़ालिखा कर फिर अपनी इच्छा पर चलाने की इच्छा रखने का मतलब है स्वयं अपनी दी हुई शिक्षादीक्षा को अमान्य करना, अपने को अमान्य करना, क्योंकि 20 वर्षों में मांबाप संतान को स्वतंत्र विचार करना भी न सिखा सके तो उन्होंने उसे क्या सिखाया?”

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