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किशोर लड़कों को खाना बनाना सीखना चाहिए. खाना बनाना उतना ही जरूरी है जितना खाना खाना. किशोर लड़कों के लिए खाना बनाना सीखना उतना ही जरूरी है जितना किशोर लड़कियों के लिए. अकसर हमारे भारतीय परिवेश में माँ-बाप किशोरों को घर के कामकाज (जिनमें खाना बनाना प्रमुख है) सिखाने में उतनी रूचि नहीं लेते जितनी कि किशोरियों को सिखाने में. मातापिता को यह समझना चाहिए कि किशोरों के लिए खाना बनाना सीखना उतना ही अनिवार्य है जितना कि उनकी पढाई-लिखाई व खेलकूद.
पाक विद्या को स्कूली शिक्षा में भी एक अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए, किशोर व किशोरी दोनों के लिए सामान रूप से, तथा साथ ही इसकी प्रायोगिक कक्षाएं भी ली जानी चाहियें; क्योंकि जबतक इसे एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जाता, तबतक हमारे किशोर लड़के इसे पूरे मनोयोग से नहीं सीखने वाले, क्योंकि समाज में चारों तरफ वे यही देखते हैं कि खाना बनाने का काम उनकी माँ-बहनें करती हैं और अकसर किशोर लड़कों को हतोत्साहित किया जाता है कि उन्हें पढ़लिखकर कुछ बनना है अतः वे खाना क्यों बनायें! लेकिन सोचने की बात यह है कि पढ़लिखकर तो लड़कियों को भी कुछ बनना ही रहता है. फिर भी वे खाना बनाना सीखती हैं तो फिर लड़कों के सीखने पर ही मनाही क्यों?
माना कि लड़के स्कूली शिक्षा माँ-बाप के साथ रहकर पूरी करते हैं व माँ का बनाया खाना खाते हैं लेकिन कॉलेज कि शिक्षा के लिए तो उन्हें घर से बाहर जाना व रहना पड़ेगा तथा हर जगह छात्रावास की सुविधा नहीं रहती जहाँ बनाबनाया खाना मिल जाए. कई जगह तो छात्रावास में भी खाना बनाने की सुविधा नहीं रहती. ऐसे में किशोर विद्यार्थी को अगर स्वयं खाना बनाना न आता हो तो वे होटल का महंगा खाना कितने दिनों तक खा सकते हैं और अगर आसपास कोई होटल न हो तब क्या करेंगे?
अतः किशोर लड़कों को खाना बनाना सीखने में उतनी ही दिलचस्पी लेनी चाहिए जितनी कि किशोर लडकियां लेती हैं तथा मातापिता को भी चाहिए कि वे किशोर बेटेबेटी दोनों को ही इसके लिए प्रेरित करें व अपने मार्गदर्शन में दोनों को ही खाना बनाना सिखाएं ताकि भविष्य में उन्हें किसीका मुंह न ताकना पड़े!
बेहतर होगा कि लड़के लड़कियों के कामकाज में दिलचस्पी लें तथा लड़कियां लड़कों के कामकाज में. यह आपसी तालमेल व सहयोग का ज़माना है. ऐसी कोई सीमारेखा नहीं है कि यह काम लड़कों का है और वह काम लड़कियों का. मौका व फुर्सत के हिसाब से दोनों ही खाना बनायें व दोनों ही करियर भी बनायें. खाना बनाने के नाम पर लड़कियों का करियर बर्बाद न किया जाए, न ही लड़कों को यह अहसास हो कि लड़की (बहन या पत्नी) के बिना उन्हें भूखों रहना पड़ेगा! वे स्वयं खाना बनाएं. यह कौनसा मुश्किल काम है?
माताओं को चाहिए कि उनके किशोर बेटे जब खाना बनाने में दिलचस्पी लें तो इस तरह के ताने न दें: ‘तू खाना बनाना सीखेगा, आगे चलकर जोरू का गुलाम बनना है क्या?’ बेहतर होगा कि उसे प्रोत्साहित किया जाए ताकि विवाह से पहले उसकी माँ-बहिन व विवाह के बाद उसकी पत्नी पर घरेलू कार्यों का ज्यादा बोझ न पड़े, जिसके परिणामस्वरूप वे भी (माँ, बहिन व पत्नी) अपना करियर बना कर अपना भविष्य संवार सकें.
अतः जरूरत है कि बचपन से ही बेटाबेटी को हर मामले में बराबर समझा जाए, फिर चाहे वह चूल्हा-चौका का काम हो या फिर अंतरिक्ष-यात्रा का. बेटा-बेटी दोनों से खाना बनवाएं, मौका व फुर्सत के हिसाब से, और दोनों को ही करियर बनाने का मौका भी दें. लडकियां सिर्फ ‘रसोइया’ व ‘पुजारन’ बनकर ही न रह जाएं!
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