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क्या मोदी दलबदलुओं की मदद से प्रधानमंत्री बन पाएंगे?

मेरे विचार
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इस बार के लोकसभा चुनाव नतीजे आने से पूर्व ही एक आम धारणा बन चुकी है कि कांग्रेस पार्टी इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने नहीं जा रही। दो बार लगातार सत्ता में रहने वाली यूपीए की गठबंधन सरकार को आगामी चुनावों में मंहगाई व भ्रष्टाचर का भुगतान करना पड़ सकता है। इस का सबसे अधिक खामियाजा यूपीए के सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस पार्टी को ही होने की संभावना जताई जा रही है। इस राजनैतिक वातावरण को भांपते हुए कांग्रेस पार्टी के भी कई सत्तालोलुप व व्यवसायिक प्रवृति रखने वाले नेता दलबदल कर उन पार्टियों का रुख करते दिखाई दे रहे हैं जहां उन्हें सत्ता में वापसी की उम्मीद है। दूसरी ओर भाजपा में अपना कुनबा बढ़ाने की लालच में ऐसे दलबदलुओं के लिए लाल क़ालीन बिछा दी गई है।
चुनावी हवा का रुख भांपकर दलबदल और दागी भाजपा में शामिल होने की होड़ में लगे हैं। सत्तामोह की लालच में भाजपा ने भी नैतिक और शुचिता के संघीय पाठ को भुलाकर दागियों को गोद लेने का सिलसिला तेज कर दिया है। हाल के दिनों में अपनी-अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होने वालों की तादात बहुत ज्यादा है। कोई कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से परेशान होकर भाजपा में शामिल हो गया है तो कोई आरजेडी की नाइंसाफी की वजह से।कहते हैं राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। लोकसभा चुनाव से पहले ये बात अब खुल कर सामने आ रही है। कई बड़े नेता अपनी पार्टी का बरसों पुराना साथ छोड़ कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर रहे हैं। अपनी पार्टी को छोड़ने वालों में कांग्रेस के नेता सबसे आगे हैं तो दूसरों के लिए अपने दरवाजे खोलने वालों में बीजेपी पहले नंबर पर है। भाजपा में जो भी आया पार्टी से सबकों अपना लिया, लेकिन क्या ये दलबदलु भाजपा के साथ ईमानदारी दिखाएंगे।भाजपा में इन विलयों को लेकर तीखी प्रतिक्रिया सामने आ रही है। सुषमा स्वराज ने सोशल मीडिया पर तीखा विरोध जताकर पार्टी को झटका दिया है। यदि पार्टी ने सुषमा के ऐतराज को चेतावनी के रूप में नहीं लिया तो उसके लिए दागियों को गोद में बिठाने की ये कोशिशें आत्मघाती भी सिद्ध हो सकती हैं ?चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भाजपा नेतृत्व वाले राजग गठबंधन की बढ़त से लालायित होकर दूसरे दलों के दागी और दलबदलू गिरगिट की तरह रंग बदलने पर उतारू हो गए हैं। दागी और दलबदलू, निष्ठावानों से कहीं ज्यादा अवसरवादी और दूरद्रष्टा होते हैं। इसलिए वे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनते देख रहे हैं, तो सत्ता-सुख के इन भोगियों का पलायन उनके निजी हित साधन के लिए तो ठीक है, लेकिन यह समझ से परे है कि मोदी के नेतृत्व में माहौल राजग गठबंधन के पक्ष में है तो वह कयों दागियों को बेवजह महत्व दे रही है ? यदि वाकई माहौल मोदी के पक्ष में जैसा दिखाई दे रहा है तो तय है, तमाम दागी और क्षेत्रीय दल इस आंधी में तिनके की तरह अपना वजूद खो बैठेंगे ? लेकिन माहौल यदि औद्योगिक घरानों और मीडिया प्रबंधन की बदौलत रचा गया है तो नतीजे ढाक के तीन पात भी हो सकते हैं।
देश की राजनीति की दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश के दलबदलू नेता सबसे मौज में हैं।सत्ता पाने की लालच में लगभग सभी राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं और संगठन की उपेक्षा कर दलबदलुओं पर दांव लगा रहे हैं।दूसरी पार्टी से आए नेताओं के जरिए मैदान मारकर सरकार बनाने की कोशिश में राष्ट्रीय दल सबसे आगे दिख रहे हैं।सत्ता की लालच में कल तक तथाकथित गांधीवादी रहे किसी नेता को आज गोडसेवादी होने में कोई आपत्ति नहीं हो रही है। कल तक जिन्हें सांप्रदायिक व देश का विभाजक समझा जाता था आज उन्हीं पर विश्वास जताते हुए ऐसे ही दलों के साथ गठबंधन की राजनीति शुरु होते देखी जा रही है। बात अगर उत्तर प्रदेश की करे तो में भले ही चुनाव की जीत का परिणाम मई में आए पर दलबदलू नेताओं को टिकट देने में भाजपा ने बाजी मार ली है। पार्टी ने दो दर्जन से अधिक दलबदलुओं को उत्तर प्रदेश में प्रत्याशी बनाया है। इन दलबदलुओं को टिकट मिलने से भाजपा के नेता गुस्से में हैं।
भाजपा ने कांग्रेस से आए जगदंबिका पाल डुमरियागंज, सपा से आए कीर्तिवर्धन सिंह गोंडा व मौजूदा सांसद बृजभूषण सिंह को कैसरगंज लोकसभा से तथा बसपा से आए अशोक दोहरे को इटावा व राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी से भाजपा में आए कौशल किशोर को मोहनलालगंज सुरक्षित सीट से टिकट दिया है। दलबदलुओं की लिस्ट काफी लंबी है । कुछ एक को छोड़ कर बाकी सभी सीटों पर भाजपा के दलबदलू उम्मीदवारों का विरोध हो रहा है। ऐसे में सवाल यहीं है कि क्या ये दलबदलु नेता पार्टी के साथ ईमानदारी निभाएंगे? क्या मोदी इन दलबदलुओं की मदद से प्रधानमंत्री बन पाएंगे? क्या भाजपा इन दलबदलुओं की मदद से दिल्ली की सत्ता पर बैठने का अपना सपना पूरा कर पाएंगी? लोकतंत्र तभी फायदे में रहेगा जब राजनीति विचारधारा और सिद्धांतों के आधार पर होगी, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि केवल चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल सिद्धांतों की तिलांजलि देकर दलबदलुओं को टिकट दे रहे हैं।
लालकृष्ण आडवाणी टिकट प्रसंग, जसवंत की आंखों में आंसू जैसे मामलों से वरिष्ठ नेताओं के साथ व्यवहार में अशालीनता और कुप्रबंधन का जो संदेश गया उसने भी माहौल पर असर डाला है। किंतु ये तो भाजपा की आंतरिक कलह और गलत रणनीतियों की ही परिणतियां हैं। मूमेंटम घटने के कारण और भी हैं।सूत्रों के मुताबिक खुफिया ब्यूरो बिहार की 40 सीटों में जेडी (यू) को सिर्फ दो और लगभग सारी सीटें भाजपा को दे रहा था। इसी स्रोत के मुताबिक अभी पूरे गठबंधन के साथ भाजपा 20 के नीचे सिमट गई है और जेडी (यू) को सात सीटें सुनिश्चित बताई जा रही हैं। स्वयं मोदी द्वारा मुजफ्फरपुर की सभा में पिछड़ा कार्ड खेलने, रामविलास पासवान से समझौता करके उनकी पार्टी को सात सीटें देने, रामकृपाल यादव को शामिल कर चुनाव लड़ाने, मोदी के मुखर समर्थक गिरिराज सिंह को बेगुसराय की जगह जानबूझ कर नवादा भेजने और शाहनवाज हुसैन की रणनीति के अनुरूप अश्विनी चौबे को भागलपुर से दूर वरिष्ठ नेता लालमुनि चौबे के क्षेत्र बक्सर भेजने का प्रदेश के मनोविज्ञान पर विपरीत असर पड़ा है।
समझ से परे है कि नरेंद्र मोदी के दोनों कट्टर समर्थकों गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे के साथ इस तरह का व्यवहार क्यों हुआ? ये अगर जीत जाएं तो यह इनका सौभाग्य होगा, अन्यथा माना यही जा रहा है कि सीटों की यह फेंटफांट इनको हराने के लिए ही की गई है।दोनों जिन जातियों से आते हैं, बिहार में वही दोनों जातियां भाजपा का मुख्य जनाधार हैं।ऐसे में इनको निराश करके पार्टी चुनाव कैसे जीतेगी? पासवान के साथ गठबंधन के पक्ष में एक भी जमीनी कार्यकर्ता नहीं था, लेकिन गठबंधन में अचानक उनकी मजबूत स्थिति बन जाने के विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया हुई। बिहार से आगे यूपी पर नजर डालें तो जिस ढंग से वाराणसी और लखनऊ का मामला निपटाया गया, उसका भी संकेत नकारात्मक गया है। राज्य के कुछ गिने-चुने क्षेत्रों को छोड़ दें तो गाजियाबाद से लेकर बलिया तक आधे से ज्यादा लोकसभा क्षेत्रों में असंतोष और विद्रोह की स्थिति है। जाहिर है, यूपी-बिहार बिगड़ गया तो लोकसभा का गणित भी बिगड़ जाएगा।
पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह अन्ना हज़ारे के साथ थे। अन्ना सीधे तौर पर किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ने से इनकार करते हुए ममता बनर्जी का समर्थन करने लगे तो वी.के. सिंह भारतीय जनता पार्टी की नाव में सवार हो गए।रामकृपाल यादव राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के बेहद क़रीबी माने जाते थे, लेकिन पाटलिपुत्र से उम्मीदवार नहीं बनाए जाने के बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया।तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद एवं फिल्म अभिनेत्री विजयाशांति ने तेलंगाना के गठन के बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया है।रामविलास पासवान गोधरा कांड के बाद राजग गठबंधन से अलग हो गए थे, लेकिन ठीक 12 साल बाद उन्हें नरेंद्र मोदी क़बूल हो गए। उत्तर प्रदेश के पू्र्व मुख्यमंत्री और राज्य में कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार जगदंबिका पाल ने चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस पार्टी का दामन छोड़ दिया।पू्र्व प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी की भांजी करुणा शुक्ला ने कांग्रेस का दामन थामा है।विशाखापत्तनम से सांसद और मनमोहन सिंह सरकार में वाणिज्य एवं मानव संसाधन राज्य मंत्री रहीं डी। पुंदेश्वरी भी चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं ।अमर सिंह और अभिनेत्री जया प्रदा हाल में अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल में शामिल हो गए।
जिस समय जनता दल यूनाइटेड की ओर से नितीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया था उस समय पासवान ने स्वयं को राज्य का मुस्लिम हितैषी नेता दिखाने की कोशिश करते हुए यह ड्रामा रचा था कि ‘बिहार का मुख्यमंत्री कोई मुस्लिम व्यक्ति होना चाहिए’। अपनी इस बेतुकी व खोखली बयानबाज़ी मात्र से इन्होंने कुछ अनपढ़ सरीखे बिहारी मुस्लिमों के मध्य संभवत: कुछ लोकप्रियता भी अर्जित कर ली हो। परंतु पिछले दिनों जिस प्रकार स्वयं को मुस्लिम हितैषी जताने वाले पासवान ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामते हुए उसके साथ गठबंधन किया उससे एक बार फिर यह सा$फ ज़ाहिर हो गया कि पासवान का कभी मुस्लिम हितैषी दिखाई देना तो कभी भाजपा व नरेंद्र मोदी का हमदर्द बन जाना दरअसल किसी सिद्धांत या विचारधारा पर आधारित राजनीति का हिस्सा नहीं बल्कि उनकी अति स्वार्थी एवं सत्तालोभी राजनीित का ही परिचायक है। $खबर यह भी है कि पासवान ने भाजपा के साथ 7 सीटों पर लोजपा के उम्मीवारों को खड़ा करने का जो समझौता किया है उनमें पासवान के भाई,पुत्र तथा रिश्तेदार भी शामिल होंगे। अब आप स्वयं इस निर्णय पर पहुंच सकते हैं कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ तथा पासवान जैसे स्वार्थी एवं परिवारवाद की शुद्ध राजनीति करने वाले सत्तालोभी नेताओं के बीच का गठबंधन कितना मज़बूत,स्वस्थ,टिकाऊ तथा राष्ट्रहित में होगा?जातिविहीन व निष्कलंक राजनीति का मुद्दा भाजपा की मुट्ठी से रेत की माफिक फिसलता जा रहा है।
देश की बिगड़ती हुई वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था का जितना जि़म्मेदार भ्रष्ट व सत्तालोभी नेता है, देश की जनता व मतदाता भी उससे कम जि़म्मेदार नहीं है। क्योंकि मतदाता ही ऐसे अवसरवादी नेताओं को जिताकर उनके नापाक इरादों को पूरा करने में सहायक होता है। कोई भी निर्वाचित विधायक या सांसद जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है वह व्यक्ति उस क्षेत्र के मतदाताओं की पहली पसंद समझा जाता है। अब यदि विजयी नेता चरित्रवान,शिष्टाचारी, समाजसेवी तथा अपने क्षेत्र व देश के लिए कुछ करने का हौसला रखने वाला व्यक्ति होता है तो उस क्षेत्र के मतदाता प्रशंसा के पात्र समझे जाते हैं तथा उस क्षेत्र के साथ-साथ देश के विकास की संभावनाएं भी बनी रहती हैं। और वही निर्वाचित व्यक्ति यदि भ्रष्ट,अपराधी,बाहुबली,लुटेरा या देश को बेचकर खाने की प्रवृति रखता है तो निश्चित रूप से उस क्षेत्र की जनता के लिए भी वह किसी कलंक से कम नहीं होता।दलबदलू नेताओं को टिकट दिए जाने पर भाजपा सफाई दे रही है कि वह सीट जिताऊ उम्मीदवार होने के कारण टिकट दे रही है। अगर भाजपा को सीट जीतने की इतनी ही लालसा है तो वह शायद दाऊद का समर्थन भी कर दे क्योंकि हो सकता है ऐसा करने से उसके वोट कुछ और बढ़ जाये।
कल को अगर पवन बंसल और सुरेश कलमाड़ी, या ए. राजा जैसे दागी नेता भी भाजपा में आना चाहेंगे तो भाजपा उनका खुलकर स्वागत भी करेगी और टिकट भी देगी।
विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

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