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भारत में नस्लीय भेद अनेकता मे एकता की भावना को कलंकित करता है

मेरे विचार
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विदेश में किसी भारतीय के साथ नस्लीय भेदभाव हो, तो पूरा देश उबल पड़ता है, लेकिन जब भारत में किसी और सिलेब्रिटी द्वारा इस तरह की शिकायत की जाती है, तो उस पर कोई कान नहीं देता। हालांकि यह बात और है कि अपने ही देश के भीतर जब कुछ लोग इस तरह के नस्लवाद के आरोप लगाते हैं, तो हम लोग उलटे उन पर ही कुछ और आरोप लगा कर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करते हैं। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में जब भारतीय छात्रों की नस्लीय आधार पर ह्त्या की जाती है तो दिल्ली के यही तथाकथित “संभ्रांत” लोग हाथ में मोमबत्ती ले सड़कों पर उतर आते हैं।वैसे तो किसी के साथ भी ऐसी घटना होना शर्मनाक है लेकिन अपने ही देश के वाशिंदों पर नस्लीय टिप्पणियाँ और भेदभाव और भी ज्यादा शर्मनाक है।
सोशल मीडिया से लेकर टीवी और अखबारों तक यह बात बहुत तेजी से प्रचारित की जा रही है कि दिल्ली के लोग नस्लीय टिप्पणी करते रहे हैं। दिल्ली में नस्लीय हिंसा आए दिन की बात है। अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो की हत्या के बाद यह बहस तेज होती दिख रही है। बहस में अब बिहार और पूर्वांचल के लोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। ऐसा होना लाजिमी ही था- दशकों से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आ गये बिहार-यूपी के लोगों के साथ जिस तरीके का भेदभाव होता रहा है वो अपने चरम पर है। दिल्ली में बिहारी मानसिकता लगभग गाली सा ही कोई मुहावरा बन गया है। दिल्ली वाले पहनावे-रहन-सहन को देखकर बिहारी टाइप या“चिंकी”कहकर चिढ़ाने का मौका नहीं छोड़ते। लेकिन मीडिया में जिस तरह दिल्ली वालों को नस्लीय घोषित किया जा रहा है मामला इतना भी सीधा नहीं है। नस्लीय बहस के आरोपों के केन्द्र में सिर्फ दिल्ली वालों को ही समेट देना एक खतरनाक प्रवृति है।
जब शिल्पा शेट्टी ने देश से बाहर रिऐलिटी शो ‘बिग ब्रदर’ के दौरान जेड गुडी पर नस्लवादी टिप्पणियों का आरोप लगाया, तो सारा देश उबल पड़ा। ब्रिटिश लोगों के साथ-साथ भारतवासियों ने भी इस मामले में अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी। सभी जानते हैं कि इस घटना से पहले बॉलिवुड में काफी लंबी पारी खेल चुकी शिल्पा शेट्टी को कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई थी, लेकिन इस मामले को राष्ट्रीय अस्मिता पर हमले का रूप देते हुए ऐसा हंगामा मचाया गया कि शिल्पा रातोंरात इंटरनैशनल स्टार बन गईं। पिछले साल शबाना आजमी ने इल्जाम लगाया था कि उन्हें और जावेद अख्तर को मुस्लिम होने की वजह से मुंबई में एक फ्लैट नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने कहा, ‘मैं मुंबई में अपने लिए एक घर खरीदना चाहती हूं, लेकिन मुस्लिम होने की वजह से कोई मुझे घर बेचने को तैयार नहीं है। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि जब मैं और जावेद अख्तर ही अपने लिए घर नहीं खरीद पा रहे हैं, तो बाकी मुसलमानों का क्या हाल होगा?’ पता नहीं इसके बाद शबाना को फ्लैट मिल पाया या नहीं, लेकिन सोसायटी पर रेसिज्म का इल्जाम लगाने के लिए उनकी फजीहत जरूर हुई।
पूर्वोत्तर के छात्र नीडो तानि‍या की मौत के बाद से देश भर में नस्‍लीय हिंसा के खि‍लाफ आंदोलन हो रहे हैं। लेकिन इस तरह की नस्‍ली हिंसा या नस्‍ली कमेंट कोई नई बात नहीं है। यहां तक की बॉलीवुड में भी नॉर्थ ईस्‍ट से आने वाले कलाकारों को इस तरह के कमेंट का सामना करना पड़ता है। बॉलीवुड के जाने-माने एक्‍टर डेनी डेन्जोंगपा को भी इंडस्‍ट्री में लोग चाइनीज़, गुरखा, नेपाली, चिंकी कह कर पुकारते थे।
ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि जब हम भारतवासी विदेश में किसी भारतीय के साथ कोई दुर्व्यवहार या रंगभेद होने पर उबल पड़ते हैं, तो फिर देश के भीतर किसी अल्पसंख्यक के इस तरह की शिकायत करने पर उस पर कान क्यों नहीं देते? पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में पूर्वोत्तर राज्यों के दो लोगों के साथ जिस तरह का अमानवीय सलूक किया गया वह बेहद ही निंदनीय है। दिल्ली में अरूणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया की मौत और मणिपुर की छात्रा से कथित बलात्कार जैसे नस्लीय हिंसा के मामलों में पुलिस की प्रतिक्रिया काफ़ी ढीली है।
देश की राजधानी दिल्ली में पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया पर नस्लीय टिप्पणी और फिर सरेआम पिटाई से हुई मौत, न केवल दिल्ली की बिगड़ती कानून-व्यवस्था का द्योतक है बल्कि देश की एकता के लिए आघातकारी भी है। गौरतलब है कि दक्षिणी दिल्ली के लाजपतनगर इलाके में नीडो तानिया के हेयरस्टाइल को लेकर कुछ दुकानदारों की टिप्पणी का विरोध करने पर उसकी पिटाई की गयी थी। इस घटना के कुछ घंटे बाद नीडो तानिया की मौत हो गयी थी।दिल्ली में पूर्वोत्तर के लोगों के ख़िलाफ़ कथित नस्लीय भेदभाव और हिंसा के विरोध में छात्र संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता एक कड़े नस्लभेद-रोधी कानून की मांग कर रहे हैं। दुकानदारों के साथ मारपीट की घटना के बाद अरूणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानि‍या की मौत और उसके कुछ ही दिन बाद दिल्ली में मणिपुर की एक छात्रा के साथ कथित बलात्कार, और मणिपुर के दो युवकों के साथ मारपीट की घटनाओं के बाद पूर्वोत्तर राज्यों के सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि दिल्ली में पूर्वोत्तर के राज्यों के लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा नस्लभेद का नतीजा है।
किसी छात्र को अपने ही देश में नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़े, इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है। नीडो की हत्या देश के माथे पर कलंक है।पूर्वोत्तर के समाज का इस घटना से उद्वेलित और विचलित होना स्वाभाविक है।आखिर उसके देश की राजधानी या अन्य हिस्सों में बर्बरता का व्यवहार कैसे हो सकता है।बहरहाल, विगत कुछ समय से जिस तरह दिल्ली व देश के अन्य हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों पर नस्लीय टिप्पणी कर अपमानित किया जा रहा है यह लज्जाजनक और देश की एकता भंग करने वाला है। अभी चंद रोज पहले पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर की कुछ लड़कियों पर नस्लीय टिप्पणी की गयी और विरोध करने पर उन्हें मारा-पीटा गया। विडंबना यह कि उन्हें पुलिस का भी पर्याप्त सहयोग नहीं मिला।हद तो तब हो गयी जब सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं पर भी दक्षिण अफ्रीकी महिलाओं के साथ आपत्तिजनक व्यवहार करने का आरोप लग गया।
याद होगा 2012 में असम में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र में रहने वाले पूर्वोत्तर के लोगों को निशाना बनाया गया।उपद्रवी तत्वों ने उन्हें एसएमएस कर धमकाया नतीजतन वे अपने गृहराज्य जाने को विवश हुए।इससे पहले पुणो में भी पूर्वोत्तर के छात्रों को निशाना बनाया गया।उस समय भी सवाल उठा था कि आखिर पूर्वोत्तर के लोगों के साथ गैरों जैसा व्यवहार क्यों हो रहा है?दिल्ली मे ही नही बल्कि देश के दुसरे राज्यो मे भी अन्य राज्यो के लोगो के साथ वहाँ के स्थानीय निवासी भेदभाव करते है। जोकि हमारे देश कि अनेकता मे एकता की भावना को कलंकित करता है। क्या दिल्ली या देश के अन्य राज्यों पर उनका अधिकार नहीं है? क्या वे भारत का हिस्सा नहीं हैं? अगर इस क्षेत्र के लोग देश के अन्य हिस्सों में खुद को असुरक्षित महसूस करें या उन्हें नस्लीय टिप्पणी से आघात पहुंचे तो यह देश व समाज को शर्मसार करने वाला परिदृश्य है।भारत विविधता पूर्ण देश है।दिल्ली के मूल-निवासी हमेशा से इस बात को लेकर बदनाम रहे हैं कि वो खुद को भारत का सबसे जागरूक और होशियार नागरिक समझते हैं।कारण शायद ये हो कि देश वहीँ से चलाया जाता है।खुद को प्रबुद्ध,शिक्षित और संभ्रांत समझने की इस सनक ने दिल्ली के “कुछ” लोगों को मानसिक रूप से विक्षिप्त बना दिया है।अरुणाचल प्रदेश के छात्र की ह्त्या इस बात का सुबूत है।
यह नस्लीय भेदभाव कोई छिपी-छिपायी बात नहीं है। यह तो हमारे आम दैनिक जिन्दगी के हिस्सा हैं। आज तक किसी देवी को काले रंग में नहीं देखा है। काले रंग के मूल वाले भारतीय मूल के लोगों के देवी-देवता गोरे दर्शाये जाते हैं। भले ही देश काली को पूजता हो लेकिन सच यह भी है कि काले रंग की लड़कियों को काली माई कहकर मजाक भी उड़ाया जाता है। हमें समझने की जरूरत है कि सिखों को लेकर संता-बंता और सरदारजी वाले जोक्स फॉरवर्ड करते वक्त भी हम नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा दे रहे होते हैं और पंजाब में बिहारियों को गाली देते वक्त भी।
मीडिया में अक्सर दिखाया जाता है कि पश्चिमी देशों में किस तरह नस्लीय भेदभाव किये जाते हैं और एक भारतीय के रूप में किस तरह हम इनसे प्रताड़ित हैं लेकिन हमें यह मानने में गुरेज नहीं करना चाहिए कि हम भारतीय भी उतने ही नस्लीय हैं।नीडो के साथ जो नस्लीय घटना हुई है, वह कोई पहली दफा नहीं है। इससे पहले बेंगलूरू में भी एक छात्र को भी ऎसे ही मारा गया था। दिल्ली में खासतौर पर पूर्वोत्तर की महिलाओे के खिलाफ जो घटनाएं हुई हैं, वह सीधे तौर पर नस्लीयता की ओर इशारा करती हैं। नीडो का मामला भारत में नस्लीयता का एक और उदाहरण है। अहम बिंदू यह है कि खुद भारत सरकार और भारतीय समाज में बहुसंख्यक लोग मानने को तैयार ही नहीं हैं कि भारत में नस्लीयता है। उनका मानना है कि नस्लीयता तो यूरोप, अमरीका या ऑस्टे्रलिया में होती है। लेकिन यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वे खुद भी अपने मुल्क में अपने ही लोगों के खिलाफ नस्लीय हो सकते हैं।
गत वर्ष 2012 में बेंगलुरु तथा दक्षिण भारत के राज्यों में पूर्वोत्तर राज्य के लोगों पर हमले के चलते इस कदर अफवाह फैली कि पूर्वोत्तर राज्यों जैसे असम ,अरुणाचल प्रदेश ,मणिपुर आदि के हजारों लोगों को रातों रात भागना पड़ा था।देश की वाणिज्यिक राजधानी कही जानी वाली मुम्बई में भी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना तथा शिवसेना जैसी राजनीतिक पार्टियों द्वारा उत्तर प्रदेश तथा बिहार के निवासियों के साथ अक्सर मारपीट व उन पर हमले किये जाते हैं।पर राजनीतिक लाभ के चलते न तो कांग्रेस और न भाजपा इनका खुल के विरोध करते हैं और न इन पर कोई कड़ी कार्यवाही।
सिर्फ यह कहने से काम नहीं चलेगा कि पूर्वोत्तर भारत का अभिन्न अंग है। बात तब बनेगी जब यहां के लोगों की सुरक्षा शीर्ष प्राथमिकता में होगी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। उचित है कि दिल्ली सरकार ने नीडो की हत्या की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। नीडो को न्याय तब मिलेगा जब नस्लीय टिप्पणी करने वाले गुनाहागारों को भी उनके किए की सजा मिले। कहा जा रहा है कि इस बात की क्या गारंटी कि आगे पूर्वोत्तर के छात्रों के साथ फिर ऐसा बर्ताव नहीं होगा। यहां के लोगों ने नीडो की हत्या को नस्लीय हमला करार दिया है। यहां के सांसदों ने इस मामले को प्रधानमंत्री के समक्ष उठाने की भी बात कही है।
राजनीतिक बिरादरी भी पूर्वोत्तर के मामलों को लेकर ज्यादा परेशान नहीं होती। दिल्ली में जब किसी राज्य का कोई मुख्यमंत्री जाता है, तो वहां उसका आदर होता है, लेकिन पूर्वोत्तर के सीएम किसी मंत्रालय में जाते हैं, तो एक अतिरिक्त सचिव स्तर तक का नौकरशाह उनके साथ ठीक से पेश नहीं आता है, क्योंकि उनके दिमाग में उन लोगों के लिए अनभिज्ञता है। ऎसे बर्ताव की वजह से ही पूर्वोत्तर के लोगों में रोष रहा है। कुछ अन्य ऎतिहासिक वजह भी हैं, जिनके चलते पूर्वोत्तर में भी भारत विरोध रहा है। वहां सेना का हस्तक्षेप रहा है, वहां की अर्थव्यवस्था का नियंत्रण कुछेक लोगों के हाथों में रहा है, जिसके चलते भी वहां अन्य राज्यों से जाने वाले लोगों को खराब व्यवहार का सामना करना पड़ता है।
देश में उत्तर-पूर्व के लोगों से शेष भारत का नाता कमजोर रहने के ऎतिहासिक कारण हैं। ब्रिटिश काल से ही उन्हें शेष भारत से अलग रखा गया। अंग्रेजों ने पूरे भारत को ब्रिटिश काल में एकत्र किया, लेकिन फिर भी उत्तर- पूर्व के आदिवासियों को अपराधियों की तरह अलग कर दिया। तब से ही उत्तर-पूर्व के लोग आंशिक रूप से भारतीय समाज से अलग देखे गए। उन लोगों के बारे में शेष भारत में विश्वास पैदा नहीं हो पाया और ऎसे ही उनके साथ भी हुआ।
खासतौर पर उत्तर भारत में “हिंदी, हिंदू, हिंदुत्व” की स्थिति के चलते नॉर्थ ईस्ट के लोगों को अलग समझा जाता है। उत्तर भारत में दूसरी संस्कृति को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है, हमें इस विचाराधारा को तोड़ना पड़ेगा। यह समझना होगा कि भारत एक धर्म, एक भाषा का देश नहीं है, ये सबका देश है। एक सेक्युलर देश है, जहां विविधतापूर्ण जीवन है, इसलिए दूसरे समाज या संस्कृति को आदर-सम्मान देना होगा। इसके लिए सिर्फ जागरूकता ही काफी नहीं है, बल्कि नस्लीय सोच के खिलाफ एक आंदोलन करना होगा। विकसित सोच के लोगों को मिलकर लड़ना होगा। हमें उत्तर-पूर्व के लोगों को सम्मान देना होगा, उनमें भारत के प्रति भरोसा पैदा करना होगा। जब तक हम उनको यह भरोसा नहीं देंगे, तब तक वे भारत से अलग ही रहेंगे।
हमें उत्तर-पूर्व के लोगों की प्रतिभा का सदुपयोग करना चाहिए। कई बड़े-बड़े खिलाड़ी वहां पैदा हुए हैं। जानी-पहचानी मुक्केबाज मैरी कोम नॉर्थ ईस्ट की हैं, कई अच्छे फुटबॉलर, रॉक म्यूजिशियन यहां की देन हैं। बहुत ही रचनात्मक लोग यहां निवास करते हैं, लेकिन हम उन्हें पहचान नहीं पा रहे हैं, यही समस्या है। उत्तर-पूर्व का अच्छा विकास न हो पाना भी एक बड़ी समस्या रही है।
नीडो तानि‍या की मौत साधारण घटना नहीं है। यह झकझोरने वाली वारदात है, जो हमें राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की राह में मौजूद एक खास किस्म की चुनौती के प्रति आगाह करती है। सचमुच वक्त आ गया है, जब हमें ऐसे सामाजिक पूर्वग्रह की मनोग्रंथियों को खोलने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए।
अगर आजादी के इतने सालों बाद भी पूर्वोत्तरवासी खुद को अपने ही देश में असुरक्षित समझते हैं तो इसके लिए उनके साथ होने वाला भेदभाव ही जिम्मेदार हैं। यह तथ्य है कि नगालैंड और मणिपुर में आज भी देश के दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को हिंदुस्तानी कहा जाता है।अलगाव की इस प्रवृत्ति को उग्रवादी संगठन लगातार हवा दे रहे हैं। अगर पूर्वोत्तर के लोगों के साथ इसी तरह का व्यवहार जारी रहा तो इससे उग्रवादी संगठनों को ही मजबूती मिलेगी। एक अरसे से नगा संगठन नेशनल सोशलिस्ट कांउसिल ऑफ नगालैंड असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल इलाकों को मिलाकर वृहत्तर नगालैंड के गठन और संप्रभुता की मांग कर रहे हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी उग्रवादी संगठन सिर उठाए हैं। यह सही है कि यहां के अन्य राज्यों की अपेक्षा अरुणाचल शांत है लेकिन नीडो की मौत से यहां भी संवेदनाओं का ज्वार उठ सकता है।चीन अरुणाचल पर पहले से ही कुदृष्टि जमाए है। इस घटना के बाद वह यहां के लोगों को भारत के खिलाफ भड़का सकता है। उचित होगा कि केंद्र सरकार नफरत की दीवार खड़ा करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर पूर्वोत्तर के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उन्हें विश्वास में ले।

विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

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