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मृत्युदंड का होना जरूरी

मेरे विचार
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पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी हत्याकांड में मौत की सजा पाए तीन मुजरिमों संथन, मुरुगन और पेरारिवलन की सजा को आजीवन कैद में बदल दिया है। तीनों ने दया याचिकाओं के निबटारे में देरी के आधार पर मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील करने का अनुरोध किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसका विरोध कर रही केंद्र सरकार के तमाम तर्कों को खारिज करते हुए उन्हें यह राहत दे दी।
राजीव गांधी की मई 1991 में हत्या कर दी गई थी। उनके हत्यारों को टाडा अदालत ने जनवरी 1998 में दोषी साबित कर उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। जिस पर 11 मई 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मुहर लगाई थी। तीन हत्यारों वी श्रीहरण ऊर्फ मुरुगन, अरिवु और टी सुथेंद्रराजा ऊर्फ संथन ने दया याचिका लगभग 11 सालों से लंबित रहने की वजह से मृत्युदंड को उम्रकैद में बदलने की अपील की थी।सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि देरी न्याय की निष्पक्ष और सही प्रक्रिया का उल्लंघन है। दया याचिका निपटाने में हुई अनुचित देरी न सिर्फ अमानवीय है बल्कि मौलिक अधिकार का हनन भी है।
जब देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को ही सजा नहीं दी जा सकती तो आम जनता इन्साफ के लिए कहाँ जाए। सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिए ही तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने सभी सातों दोषियों को रिहा करने का फैसला किया है। तमिलनाडु सरकार ने ए जी पेरारिवलन और नलिनी समेत राजीव गांधी हत्याकांड के सभी सात दोषियों को रिहा करने का निर्णय लिया है। जयललिता ने घोषणा की, ‘अगर केन्द्र की तरफ से तीन दिन के अंदर कोई जवाब नहीं आता है तो राज्य सरकार दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 के तहत राज्य सरकार को सौंपी गई शक्तियों के अनुरूप सभी सात दोषियों को रिहा कर देगी।’ इस फैसले से, उम्रकैद की सजा भुगत रहे सभी सात दोषी तीन दिन में जेल से रिहा हो जाएंगे।
चेन्नई पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के तीन हत्यारों के मृत्युदंड को उम्रकैद में बदले जाने के फैसले पर डीएमके अध्यक्ष करुणानिधि ने खुशी जाहिर की। एम.करुणानिधि ने मंगलवार को केंद्र एवं राज्य सरकार से उन्हें रिहा कराने की अपील की है।
भारतीय न्याय-तंत्र पुलिस, वकील, जजों की वजह से ऐसा सुस्त सिस्टम बन चुका है, जो आपराधिक-न्यायिक तंत्र को प्रभावित करता है। इसलिए निचली अदालत से ऊपरी अदालत तक आते-आते मामले कई दशक गुजार चुके होते हैं। इसके अलावा, मृत्युदंड देने और दया-याचिका को मंजूर करने से पहले यह देखा जाता है कि मुजरिम का अपराध कितना ‘बर्बर और अक्षम्य’ है। लेकिन इस चरण पर आकर सरकार ‘जजमेंट’ के ऊपर बैठ जाती है। इस मामले में केंद्र की तरफ से यह दलील दी गई कि संविधान में राष्ट्रपति को दया-याचिका के निपटारे के लिए कोई समय-सीमा नहीं है। यह तथ्य भी एक व्यापक बहस का विषय है। संसद के अंदर इस पर बहस होनी चाहिए कि दया-याचिकाओं के निपटारे की समय-सीमा क्या हो? क्योंकि, इस चरण तक पहुंचते-पहुंचते तथ्यों और कानूनों पर पूरी बहस हो चुकी होती है और अब राष्ट्रपति को अपराध की बर्बरता के आधार पर फैसला लेना होता है।
‘पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी पर लटकाना संवैधानिक रूप से गलत होगा।’ यह चौंकाने वाला बयान किसी और ने नहीं बल्कि उन्हें फांसी की सजा सुनाने वाली सुप्रीम कोर्ट के बेंच के अध्यक्ष रहे जस्टिस केटी थॉमस ने दिया है। थॉमस ने एक इंटरव्यू में यह बात कही है। करीब 13 साल पहले जस्टिस थॉमस की अध्यक्षता वाली तीन जजों की सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने नलिनी, मुरुगन , संतन और पेरारीवलन को फांसी की सजा सुनाई थी। बाद में सोनिया गांधी की अपील के बाद अप्रैल 2000 में नलिनी की फांसी की सजा को आजीवन उम्रकैद में बदल दिया गया था।
उधर दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजीव गांधी हत्याकांड के 3 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील किए जाने की पृष्ठभूमि में केंद्रीय मंत्री फारक अब्दुल्ला ने कहा कि संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी पर लटकाना ‘पूरी तरह अनुचित’ था।
नैशनल कॉन्फ्रेंस के नेता ने कहा कि केंद्र सरकार ने गुरु को फांसी पर लटकाने का फैसला लेने से पहले उनकी पार्टी से सलाह-मशविरा नहीं किया था। उन्होंने संसद परिसर में संवाददाताओं से कहा, ‘उन्होंने कभी हमसे नहीं पूछा, उन्होंने कभी हमें नहीं बताया, उन्होंने बस उसे फांसी दे दी। यह पूरी तरह अनुचित था।’
राजीव गांधी हत्याकांड के 3 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीफ करते हुए अब्दुल्ला ने कहा, ‘सरकारी देरी हो या अन्य कोई वजह, आप उन्हें फांसी पर क्यों लटकाते हैं। मौत की सजा नहीं दी जानी चाहिए और उम्रकैद सही है।’
जब देश के नेता ही आतंकवादियों और हत्यारों के हिमायती बन जाए और उनको लेकर राजनीति करे तब इससे ज्यादा शर्मनाक बात भला क्या हो सकती है।
आतंकवादी चाहे अफजल गुरु हो या मुरुगन, अरिवु और टी सुथेंद्रराजा ऊर्फ संथन हो या कोई अन्य इनका अंजाम सिर्फ और सिर्फ मौत ही होना चाहिए। जब देश का सर्वोच्च न्यायालय ही ही खूंखार आतंकियो और हत्यारों को उनके सही मुकाम तक नहीं पंहुचा सका तब आम आदमी को भला इन्साफ कहाँ मिलेगा।
इस फैसले को इस तरह से भी नहीं देखा जाना चाहिए कि हम मृत्युदंड को खत्म करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। देश फिलहाल एक असामान्य स्थिति से गुजर रहा है, जहां कई आतंकी हमले हो चुके हैं और इसके खतरे बरकरार हैं। दूसरी तरफ, महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराध के मामले भी आते रहते हैं। ऐसे में, मृत्युदंड का होना जरूरी लगता है।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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