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भाजपा देश में भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है लेकिन बतौर राजनीतिक पार्टी सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में आना उसे मंजूर नहीं है। वहीं राहुल गांघी अपनी हर सभा में सूचना का अधिकार(आरटीआई) को लाने की दुहाई देते हैं लेकिन अपनी पार्टी को इसके दायरे से बाहर रखना चाहते हैं। राजनीतिक पार्टियों को सूचना का अधिकार(आरटीआई) के दायरे में लाने के फैसले पर कांग्रेस और भाजपा एक साथ आ गई है।देश को सूचना का अधिकार (आरटीआई) देने का दावा करने वाली कांग्रेस व अन्य सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसके दायरे में लाने के केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के फैसले का खुलकर विरोध किया।कांग्रेस ने सीआईसी के इस फैसले को अति क्रांतिकारी करार देते हुए इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर हमला बताया। कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि हम इससे पूरी तरह असहमत है। हमें यह स्वीकार्य नहीं है। अपने विरोध के पीछे उन्होंने दलील दी कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं। वे सरकारी ग्रांट पर नहीं चलती हैं। आम आदमी की जिंदगी में भी सरकारी सहायता की जरूरत होती है। उन्होंने कहा कि यह लोगों की संस्थाएं हैं, जो अपने सदस्यों के प्रति जवाबदेह हैं। उन्होंने सीआईसी पर निशाना साधते हुए कहा कि कहीं ऐसा न हो कि इस तरह की अति क्रांतिकारिता के चक्कर में हम बहुत बड़ा नुकसान कर बैठें।
जवाबदेही, जिम्मेदारी और पारदर्शिता का ढोल पीटने वाले राजनीतिक दल किस तरह इस सबसे कन्नी काटते हैं, इसका पता केंद्रीय सूचना आयोग के उस फैसले का विरोध करने से हो रहा है जिसके तहत यह व्यवस्था दी गई है कि मान्यता प्राप्त सभी राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून के दायरे में आते हैं। यह फैसला आते ही जिस तरह कांग्रेस, माकपा और जनता दल-यू ने विरोध का झंडा उठा लिया है वह हास्यास्पद भी है और हैरान करने वाला भी।हैरानी की बात तो यह है कि भाजपा भी इस फैसले के खिलाफ इन दलों के साथ खड़ी हो गई है। देश के प्रमुख राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाने के केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले पर भाजपा ने जदयू, कांग्रेस और माकपा से अलग रुख अपनाते हुए शुरू में कहा था कि वह ऐसे हर नियम, कानून और निर्देश का पालन करेगी जिससे पारदर्शिता मजबूत हो।
उल्लेखनीय है, कि गत दिनों मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा, सूचना आयुक्त एम एल शर्मा व श्रीमती अन्नपूर्णा दीक्षित की खण्डपीठ ने एक याचिका का निराकरण करते हुए कहा था, कि कांग्रेस,भाजपा, भाकपा, माकपा व बसपा को आरटीआई के दायरे में लाया जाना जाहिए। आयोग ने इन राजनीतिक दलों को चार सप्ताह के भीतर मुख्य जनसूचना अधिकारी नियुक्त करने को भी कहा है। सूचना आयुक्त के इस फैसले का व्यापक विरोध शुरु हो गया है। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो आरटीआई पर ही अंकुश लगाने की वकालत करते हुए कहा कि इसे बेकाबू नहीं होने दिया जा सकता। जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि जब राजनीतिक दलों को निर्देश देने के लिए चुनाव आयोग है तो फिर केंद्रीय सूचना आयोग के दायरे में उन्हें लाने का क्या औचित्य है। उन्होंने कहा कि इस तरह के निर्णय से उन्हें धक्का लगा है और आश्चर्य हुआ है कि देश में यह क्या हो रहा है। राजनीतिक दलों को भी केन्द्रीय सूचना आयोग के तहत काम करना पडेग़ा। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी इस तरह के फैसले के बिलकुल खिलाफ है और सरकार को इसे समाप्त करना होगा। श्री यादव ने कहा कि कोई राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के चयन की तथा आंतरिक बातों की कैसे जानकारी दे सकती है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का दिखावा करने वाली और चुनावी मुद्दा बनाकर जनता से वोट मांगने वाली राजनीतिक पार्टियों के खुद के हिसाब देने की बारी आई तो वे डर गए।
आरटीआई के दायरे में आना उसे मंजूर नहीं है। दिलचस्प ये है कि एक-दूसरे को पानी पी-पी कर कोसने वाली कांग्रेस और भाजपा दोनों एक ही पटरी पर आ गई है। कांग्रेस को लग रहा है कि केंद्रीय सूचना आयोग का ये फैसला लोकतंत्र पर चोट है।शुरू में भाजपा सीआईसी (सेंट्रल इन्फर्मेशन कमिशन) के इस फैसले पर कुछ भी खुलकर बोलने से परहेज करती रही लेकिन कांग्रेस ने जोरदार तरीके से विरोध करने के बाद भाजपा का रुख भी वैसा ही है। भाजपा के प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग के प्रति जिम्मेदार हैं न कि केंद्रीय सूचना आयोग के प्रति। भाजपा ने कहा कि सीआईसी का ये फैसला लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। नकवी ने कहा कि इस फैसले से पार्टियों को अपनी बैठकों के चाय पानी का खर्च, राजनीतिक सभाओं पर आने वाला खर्च और पार्टी की आंतरिक बैठकों की जानकारी देनी होगी। उन्होंने कहा कि इस फैसले से चुनाव आयोग और सूचना आयोग के अधिकारों में टकराव होगा और भ्रम की स्थिति पैदा होगी। जब भी चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों से जानकारियां मांगता है तो उसे जानकारियां दी जाती हैं लेकिन ये मुमकिन नहीं है कि पार्टियां अपने कार्यालयों में सूचना अधिकारी बैठाएं और रोजाना हजारों आवेदनों पर जानकारियां दें। पार्टियां अगर गड़बड़ करती हैं तो जनता उन्हें सीधे ही सजा सुना देती है। ऐसे में सीआईसी के फैसले को लेकर सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए। जेडीयू और सीपीआईएम ने भी इस फैसले का विरोध किया है।
दरअसल, राजनीतिक पार्टियों को डर सता रहा है कि आरटीआई के दायरे में आने से उन्हें मिलने वाले फंड को लेकर कई तरह के सवाल पूछे जाएंगे। राजनीतिक पार्टियों को कॉर्पोरेट घरानों से चंदे के नाम पर मोटी रकम मिलती है। हालांकि, 20 हजार से ज्यादा की रकम पर पार्टियों को इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को सूचना देनी होती है। लेकिन ज्यादातर मामलों में चालाकी से पार्टियां 20 हजार से कम की कई किस्तों में पैसा ले रही हैं। ऐसे में पता नहीं चलता है कि किसने कितनी रकम दी है और क्यों दी है। गौरतलब है कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की मांग लंबे समय से हो रही थी लेकिन पार्टियों का तर्क था कि उन्हें दान देने वालों की संख्या लाखों में होती है जिनका पूरा रिकॉर्ड रखना संभव नहीं होता। वैसे भी वे ट्रस्ट की तरह रजिस्टर्ड हैं। राजनीतिक दलों का ये तर्क मुख्य सूचना आयुक्त ने खारिज कर दिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई को छोड़कर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने खुद को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाये जाने का कड़ा विरोध किया था। हालांकि केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले के बाद वे सीधी टिप्पणी करने से बच रहे थे। लेकिन अब कांग्रेस ने सीधे तौर पर इसका विरोध कर दिया है।केंद्रीय सूचना आयोग ने बेहद अहम आदेश में कहा कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के तहत आते हैं। आयोग ने निर्देश दिया है कि सभी दल, चार हफ्ते के भीतर अपने यहां सूचना अधिकारियों की नियुक्ति करें। कांग्रेस और भाजपा समेत लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया था।
दरअसल सूचना के अधिकार कानून यानी आरटीआई के तहत अब आम आदमी राजनीतिक दलों से उनका हिसाब किताब मांग सकेगा। आयोग के सामने दाखिल याचिका में कहा गया था कि राजनीतिक दलों को सरकार की तरफ से महंगी जमीन, पार्टी कार्यालय खोलने के लिए दी जाती है। इसके अलावा कई और तरह की सुविधाएं भी वे सरकार से लेते हैं। आम आदमी सिर्फ उनका आयकर रिटर्न ही देख सकता है। अधिकतर राजनीतिक दलों के पैसे का महज 20 फीसदी ही चंदे के जरिये आता है, जिसका वो चुनाव आयोग के सामने खुलासा करते हैं। बाकी की रकम कहां से आती है, इसका कोई हिसाब नहीं है।आयोग के इस फैसले के बाद राजनीतिक दलों को बताना होगा कि उन्हें चंदा कौन दे रहा है।पार्टियों को ये भी बताना होगा कि चंदे की रकम कितनी है।सभी दलों को नकद चंदे की भी जानकारी देनी होगी।ये भी बताना होगा कि चंदे में मिली रकम का कहां और कैसे इस्तेमाल किया गया।सियासी दलों को अपने सारे खर्चों का ब्यौरा देना होगा।
राजनीतिक दल सिस्टम में पारदर्शिता लाने की बात कहते जरूर हैं, पर वे अपने ऊपर किसी तरह की बंदिश नहीं चाहते। चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी वे अपने चुनाव खर्च और अपनी संपत्ति का सही-सही ब्योरा देने को तैयार नहीं हैं। वे नहीं बताना चाहते कि उन्हें किस तरह के लोगों से मदद मिल रही है।
असल में हमारे देश में हर स्तर पर एक दोहरा रवैया कायम है। राजनीति में यह कुछ ज्यादा ही है। यहां धनिकों से नोट और गरीबों से वोट लिए जाते हैं। लेकिन कोई खुलकर इसे मानने को तैयार नहीं होता। राजनेताओं को लगता है कि अगर वे अपना वास्तविक खर्च बता देंगे तो गरीब और साधारण लोग शायद उनसे रिश्ता तोड़ लें। किसी में यह स्वीकार करने का साहस नहीं है कि उनकी पार्टी धनी-मानी लोगों की मदद से चलती है।
दूसरी तरफ, किसी पार्टी में इतना भी दम नहीं कि वह सिर्फ आम आदमी के सहयोग से अपना काम चलाए। यह दोहरापन कई तरह की समस्याएं पैदा कर रहा है। विकसित देशों में ऐसी कोई दुविधा नहीं है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में सारे उम्मीदवार फेडरल इलेक्शन कमिशन के सामने पाई-पाई का हिसाब देते हैं। कोई उम्मीदवार यह बताने में शर्म नहीं महसूस करता कि उसने अमुक कंपनी से या अमुक पूंजीपति से इतने डॉलर लिए।
अगर पार्टियां अपने को आम आदमी का हितैषी कहती हैं, तो आम आदमी को सच बताने में उन्हें गुरेज क्यों है? अगर एक नागरिक किसी पार्टी को वोट दे रहा है, तो उसे यह जानने का अधिकार भी है कि वह पार्टी अपना खर्च कैसे चलाती है। अगर राजनीतिक दल वास्तव में जनहित के लिए काम करते हैं और उनके सारे फैसले जनता को ध्यान में रखकर होते हैं तो वे पारदर्शिता का परिचय देने के लिए क्यों तैयार नहीं हैं? राजनीतिक दलों ने सूचना आयोग के फैसले का विरोध कर यही जाहिर किया है कि वे खुद को निजी जागीर की तरह चलाना चाहते हैं। लोकतंत्र में जागीर अथंवा निजी कंपनियों की तरह चलाए जा रहे राजनीतिक दलों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। बेहतर हो कि राजनीतिक दल यह समझें कि उनका हित पारदर्शिता का परिचय देने में है, न कि तरह-तरह के बहाने बनाकर उससे बचे रहने में।
विवेक मनचन्दा,लखनऊ
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