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दल बदलन के कारने नेता धरा शरीर

मेरे विचार
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जैसे जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे वैसे राजनीतिक समीकरण भी बदलते जा रहे हैं। कल तो जो विरोधी थे पता नहीं कब पार्टी बदल कर किसके पाले में चले जाये। ऐसा कमोबेश सभी रजनीतिक दलों के साथ है। भाजपा और नरेंद्र मोदी की लहर को देखते हुए कई नेताओं ने भाजपा का दामन थामा है ,जिसमे ताजा नाम लोकजनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान का भाजपा के पाले में वापसी है। यही पासवान ने गुजरात दंगों के समय नरेंद्र मोदी को साम्प्रदायिक बताकर एनडीए का साथ छोड़ा था , पर अब जबकि पासवान को लग रहा है कि कांग्रेस के साथ उनका भला नहीं होने वाला तो यही नरेंद्र मोदी अब सेक्युलर हो गए हैं।
आखिरकार रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी एक बार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में लौट आई। नि:संदेह इससे भाजपा को भी चुनावी लाभ होगा और लोजपा को भी, लेकिन इन दोनों दलों का फिर से मिलन कई सवाल भी खड़े करता है। सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि क्या राजनीतिक दलों का इस तरह का मेल-मिलाप केवल चुनावी लाभ के लिए ही होता है? अभी कल तक रामविलास पासवान और उनके साथी न केवल भाजपा को सांप्रदायिक बताते थे, बल्कि उसे भारत जलाओ पार्टी की संज्ञा भी देते थे। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के तो वह कटु आलोचक थे और खुद को पंथनिरपेक्ष साबित करने के लिए यह भी रेखांकित करते थे कि वह गुजरात दंगों के कारण ही राजग से अलग हुए थे। एक समय वह ओसामा बिन लादेन की शक्ल वाले शख्स के साथ चुनाव प्रचार भी करते थे। हालांकि अब उनके पास यह एक मजबूत तर्क है कि मोदी को गुजरात दंगों के मामले में अदालत से क्लीनचिट मिल गई है, लेकिन शायद ही उन्होंने कभी अदालत के फैसले का इंतजार करने की बात कही हो। दरअसल हमारे राजनेता अपनी सुविधा के लिए कोई न कोई आड़ खोज ही लेते हैं।हर चुनाव से पहले इस तरह का दल-बदल होता है। इसका ज्यादा असर चुनाव पर नहीं होता लेकिन कई इलाके के चुनावों को नए नेता प्रभावित करते हैं। कुछ नेता तो ऐसे होते हैं जो हर चुनाव में नए दल से चुनाव लड़ते हैं और इलाके में अपनी पकड़ के चलते चुनाव जीत भी जाते हैं।
लोकसभा चुनाव से पहले लालू यादव भले ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ हुंकार भर रहे हों, लेकिन कभी उनके लाडले रहे साधु यादव चुनाव में मोदी की नैया के इंतजार में पलक पांवड़े बिछाए हुए हैं।साधु यादव ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें भाजपा से चुनाव लड़वाने का भरोसा दिया है। साधु का कहना है कि इस संबंध में उनकी मोदी से तीन-चार बार बात भी हुई है और वे उनके फैसले का इंतजार कर रहे हैं।
साधु ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने पटना रैली मे यदुवंशियों को साथ लेकर चलने की बात कही थी, इसलिए मैं उनकी बातों पर यकीन कर टिकट का इंतजार कर रहा हूं। उन्होंने आगे कहा कि वह बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ते हैं या बीजेपी उन्हें सहयोगियों के टिकट पर चुनाव लड़वाती है यह सब नरेंद्र मोदी पर निर्भर है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि वो मोदी के सहारे ही चुनाव लड़ेगें और आखिरी समय तक मोदी के फैसले का इंतजार करेंगे।
साधु यादव की छवि को मुद्दा बना कर लालू को घेरने के सवाल पर साधु यादव ने कहा कि उन पर किसी आपराधिक मामले का कोई एफआइआर दर्ज नहीं है। अगर, भाजपा कोई मुद्दा बनाती है, तो उसे दस्तावेज दिखाने होंगे।
आजकल राजनीति तो मौकापरस्ती का दूसरा नाम है। खुद के लाभ की खातिर वसूलों-सिद्धांतों से समझौता कर लेने में ही भलाई है, कहावत है जैसा देश वैसा भेष। देखिए ना कल्याण सिंह जी को जो पहले खालिस राम भक्त थें पहले भी आज भी हैं। क्या हुआ जो बीच में समाजवाद का टेस्ट ले लिया। लाल व केसरिया टोपी में अन्तर ही क्या है?छोटे चौधरी अजित सिंह से काफी हद तक सहमत हूं, एनडीए और यूपीए में फर्क क्या? सिर्फ मंत्रीपद से सरोकार। नरेश अग्रवाल जी का चरित्र तो इस मामले में एकदम दुरूस्त है हाथी व साइकिल के बीच हमेशा गैप बना के चलते हैं। सरकार बदलते ही सवारी बल लेते हैं। भई! हम किसी के साथ आखिर रहें क्यों? जब हमारे लोगों को लाभ व सम्मान ही न मिल पावे। दलबदलुओं का अपना कुछ उसूल भी होता है जिसपर वे पूरी तरह अमल करते हैं।
उनकी इसी प्रवृत्तिके चलते गठबंधन राजनीति अवसरवाद का पर्याय बन गई है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव सिर पर देखकरणा सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जनता के दुख-दर्द दिखाई पड़ने लगे हैं। हर नेता अपने आपको गरीबों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने में जुट गया है।
भारतीय राजनीति में पनपता अवसरवाद ने संपूर्ण राष्ट्र को खोखला बना दिया है। राष्ट्र के प्रति समर्पण कम निंज के प्रति व्यामोह अधिक बढ गया है अवसर वाद का यह खेल राष्ट्र के लिए काफी घातक है, इसी राजनीति के कारण देश में प्रतिगामी शक्त्यिां सिर उठा रही है। इसके ही कारण देश में हिंसावाद को बढाव मिला है। देश में से बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना सुप्त हो रही है, मनुष्य के व्यक्तिगत संबंधों में भी अलगाव एवं कडवाहट बढ रहा है। इस राजनीति ने राष्ट्र के प्रति त्याग एवं अनुराग की भावना पर कालिख पोत दी है। अवसरवाद के पीछे मानो पूरा जन सैलाब ही उमड रहा है। इसके फलस्वरूप योग्यताधारी व्यक्ति दौर में पिछड रहे है तथा चाटुकार एवं चारणधर्मा व्यक्ति आगे बढ जाते हैं। छोटे से छोटे एवं बडे से बडे ओहदे की प्राप्ति में अवसरवाद ने कमाल कर दिखाया है। पता नहीं कब इस देश से अवसरवादी राजनीति का पलायन होगा।
दल बदलने के बाद नेता शाम की सुरमई रोशनी के साथ किसी दूसरे दल के सिद्धांतों के तालाब में कूद कर फ्रेश हो जाता है। जहां पुरानी पार्टी के सिद्धांतों के मैल को नई पार्टी के वसूलों के क्लीनिंग सोप से रगड़-रगड़ के धो डालता है। गाड़ी से पुराने दल के झण्डे को उतारकर नये दल के झण्डे से चमका देता है। इतना ही नहीं नये दल के दफ्तर में उसके आमद का तमाशा होता है और उसके चरित्र के कसीदे पढ़े जाते हैं। मोटी माला पहनाकर नये अवतार में पेश किया जाता है। वह भी नयी पार्टी के सिद्धांतों के लिए जीने-मरने की कसमें खाता है। फिर क्या दल में पद के ताज से उसका मस्तक ऊंचा किया जाता है, इस दौरान उसको काफी मान व सम्मान का बोध कराया जाता है। ऐसे में पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं से उसको फजीलत खुद-ब-खुद हासिल हो जाती है। अगर दल सत्ता में आ जाए तो सिंहासन भी मिलना वजिब है। आप ही सोचिए जब दल बदलने पर इतना ईनाम व एकराम मिले तो नेता क्यों न दलबदलू होवें।
दलबदलुओं से आधुनिक राजनीति को ऑक्सीजन मिल रहा है। अगर ये खत्म हो गये तो कितनों के राजनीति संकट आ जायेगा। इनके ना रहने से छोटे सियासी दलों के साथ बड़े दलों को भी सरकार बनाने में दिक्कत व मशक्कत का सामना करना पड़ेगा। बेहद पवित्र व मुफीद है दलबदलू चरित्र। एक बात जो इन दल बदलुओं पर एकदम मुफीद बैठी है ,कि दल बदलन के कारने नेता धरा शरीर।

विवेक मनचन्दा,लखनऊ

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