Menu
blogid : 13858 postid : 716258

भाजपा की कथनी और करनी में अंतर

मेरे विचार
मेरे विचार
  • 153 Posts
  • 226 Comments

भाजपा के नेता सिद्धांत और नैतिकता की दलीलें देते हुए थकते नहीं हैं। टिकट देते समय भाजपा दावा करती है कि वह लीक से हट कर टिकट नहीं देती। आम कार्यकर्ताओं की राय पर टिकट देती है। पर इस बार भाजपा का असली चेहरा सामने आ चुका है। सिद्धांत और नैतिकता की दुहाई देने वाली भाजपा इस बार मिशन 2014 लोकसभा चुनाव के लिए सबकुछ करने को तैयार है। वह अब मनसे से भी हाथ मिला रही ताकि कुछ सीटें बढ़ जाये ,जबकि जिस राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के साथ कैसा सलूक किया है सब जानते हैं। जो राज ठाकरे मुंबई में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को वहां से भगाने की बात करते हैं, उनकी ही पार्टी से समझौता क्यों?बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को भाजपा क्या सफाई देगी ?
लेकिन मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए इसकी चिंता नहीं लगती। वह छोटे दलों से समझौता कर इसकी भरपायी करने के फेर में दिखते हैं। उत्तर प्रदेश में अपना दल जैसी छोटी पार्टी के साथ भी भाजपा समझौता कर रही है। पीए संगमा की पार्टी भी सात सीटों के बदले भाजपा का साथ देने को तैयार है। हरियाणा में आईएनएलडी से समझौते की बात भी सुनाई दे रही है। हालांकि, इसके सबसे बड़े दो नेता ओम प्रकाश चौटाला और अजय चौटाला टीचर भर्ती घोटाले में जेल की सजा काट रहे हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रह चुके और भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खा चुके येदियुरप्पा को भाजपा टिकट दे ही चुकी है। खनन माफिया कहलाने वाले बेल्लारी के श्रीरामुलू भी साथ आ गए होते, अगर सुषमा स्वराज ने विरोध नहीं किया होता। अगर सचमुच नरेंद्र मोदी की हवा चल रही है, तो फिर यह सब क्यों?
चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक आस्थाएं बदलने का दौर चल रहा है। यह खेल पहले भी होता रहा है, लेकिन इस बार बात कुछ अलग है। एक मुहावरा है, देख कर मक्खी निगलना। इसे चरितार्थ करते हुए राजनीतिक दल, दलबदलुओं के बारे में पूरी जानकारी होने के बावजूद उन्हें अपने यहां ला रहे हैं, ताकि कुछेक सीटें बढ़ जायें। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या दलबदलुओं की राजनीतिक आस्था की तरह लोगों की भी आस्था तेजी से बदलती है।
क्या राजनीतिक दल यह नहीं जानते हैं कि रातोंरात आस्था, आदर्श और सिद्धांत बदल लेनेवालों के साथ जनता कैसा सुलूक करती है? इस कारण अब चुनावों में इस तरह के दलबदलुओं को लेकर लोगों में उदासीनता का भाव रहता है।
मिशन 2014 के लिए भाजपा को सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवार चाहिए। पार्टी को ‘बाहरी’ प्रत्याशियों पर भी दांव लगाने से परहेज नहीं है। अलबत्ता उसमें चुनाव जीतने का दमखम हो।
दिल्ली तख्त के लिए अपने पुराने रुख में बदलाव कर पार्टी अब ‘साफ छवि’ के प्रत्याशियों की बजाए ‘जीतने वाले’ उम्मीदवार तलाश रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को अब कांग्रेस, सपा और बसपा छोड़कर नेताओं को टिकट देने से परहेज नहीं है।
लंबे समय तक लालू प्रसाद यादव के वफादार रहे रामकृपाल यादव अब भाजपा में शामिल हो गए हैं । पिछले कुछ दिनों तक नरेंद्र मोदी को पानी पी-पीकर कोसने वाले रामकृपाल ने पार्टी में शामिल होते ही जमकर मोदी की तारीफों के पुल बांधे और उन्हें सभी समाज के लोगों को साथ लेकर चलने वाला नेता बताया। इससे पहले गुजरात दंगों को लेकर राजग छोड़ने वाले रामविलास पासवान भी एक बार भाजपा के खेमे में लौट आये हैं। पिछले दो दशक से सत्ता का वनवास भोग रही भाजपा इस बार येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए सभी सिद्धांतों और नैतिकता को तिलांजलि दे चुकी है।
यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर क्या बात हुई कि मात्र टिकट के लिए उन्होंने अपनी आस्था बदल ली है। अगर लोकसभा क्षेत्र में ऐसे ही उम्मीदवारों की भरमार है, तो अब ‘इनमें से कोई नहीं’ का बटन भी मौजूद है। पहले यह मजबूरी होती थी कि नागनाथ या सांपनाथ में किसे चुनें। अब यह मजबूरी नहीं रही।
अगर चुनाव में जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर या किसी भावनात्मक कारण से आस्था बदलनेवाले नेताओं का हम समर्थन करते हैं, तो इसमें पूरा दोष मतदाताओं का भी है। दल-बदल करनेवाले नेताओं या उनके समर्थकों को यह तर्क हो सकता है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है। लेकिन यह तर्क, नहीं कुतर्क है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए टिकट या व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण नीति, नीयत व सिद्धांत है। इसके लिए केवल राजनीतिक दल व राजनेता नहीं, मतदाता भी उतना ही जिम्मेदार है।

विवेक मनचन्दा ,लखनऊ

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply