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राह देखता तेरी बेटी, जल्दी से तू आना
किलकारी से घर भर देना, सदा ही तू मुस्काना
ना चाहूंमैं धन और वैभव, बस चाहूं मैं तुझको
तू ही लक्ष्मी, तू ही शारदा, मिल जाएगी मुझको
सारी दुनिया है एक गुलशन, तू इसको महकाना
किलकारी से घर भर देना, सदा ही तू मुस्काना
बन कर रहना तू गुड़िया सी, थोड़ा सा इठलाना
ठुमक-ठुमक कर चलना घर में, पैंजनिया खनकाना
चेहरा देख के तू शीशे में, कभी-कभी शरमाना
किलकारी से घर भर देना, सदा ही तू मुस्काना
उंगली पकड कर चलना मेरी, कांधे पर चढ़ जाना
आंचल में छुप जाना मां के, उसका दिल बहलाना
जनम-जनम से रही ये इच्छा, बेटी तुझको पाना
किलकारी से घर भर देना, सदा ही तू मुस्काना
‘असर’ नाम की यह कविता अशोक गर्ग की है.इस कविता में एक पिता अपनी बेटी के जन्म लेने से पहले उसके लिए तमाम सपने देख रहा है पर यदि इस कविता को समाज की वास्तविकता की कसौटी पर परखा जाए तो शायद यह कविता दुखमयी साबित होगी क्योंकि आज भी भारतीय समाज में बहुत कम पिता ऐसे हैं जो अपनी पत्नी की कोख में पल रहे बच्चे के जन्म लेने से पहले बेटी होने की की दुआ करते हैं और भविष्य में बेटी को तमाम सुख देने के सपने देखते हैं.
भारतीय समाज में लड़कियों का तिरस्कार चिंताजनक स्थिति है. जिस देश में स्त्री के त्याग और ममता की दुहाई दी जाती है उसी देश में कन्या के आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाना एक बहुत बड़ी विडंबना है. इस कविता में जैसे एक पिता अपनी बेटी के जन्म से पहले उसे लेकर तमाम सपने देखता है काश संपूर्ण समाज में हर पिता का ऐसा ही एक सपना होता.
“बेटी नयनों की ज्योति है, सपनों की अंतरज्योति है
शक्तिस्वरूपा बिन किस देहरी-द्वारे दीप जलाओगे?
बहन न होगी, तिलक न होगा, किसके वीर कहलाओगे?
सिर आंचल की छांह न होगी, मां का दूध लजाओगे”
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