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बहुत इंतजार के बाद भारतीय महिलाएं अब वर्जनाएं तोड़कर परदे से बाहर निकल रही हैं, वह सब कर रही हैं जो कभी महिलाओं के लिए करना सपनों सा था. अगर कल की महिला और आज की महिला में तुलना की जाए तो ज्यादा फर्क नहीं आया है. फर्क जो दिखता है वह बस इतना कि कल की महिलाएं इच्छाओं को दबाकर रखती थीं और आज की महिलाएं अपनी इच्छाओं को दिखाना सीख गई हैं. यही कारण है कि महिलाएं वह कर रही हैं कि जो अब तक उनकी क्षमता से इतर माना जाता था.
एक वक्त था जब कबड्डी, बैंडमिंटन, टेबल टेनिस, फुटबॉल, क्रिकेट आदि खेल बस लड़कों के लिए मुफीद माने जाते थे. लड़कियों के लिए, गुड्डे-गुड़िया का खेल ही काफी था. बाहर जाकर खेलना तो दूर, घर पर भी ऐसे खेल लड़कियों के लिए निषेध थे. कुछ परदे में रहने की रीत, तो कुछ उनकी शारीरिक क्षमता के कारण ये खेल लड़कियों के लिए सही नहीं माने जाते थे. महिलाओं की दशा में बदलाव आने के साथ ही इस विचारधारा में आया परिवर्तन और महिलाओं का खेलों में बढ़ता दबदबा साफ देखा जा सकता है.
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शुरुआत करते हैं बडमिंटन से. बैडमिंटन खिलाड़ी सिंधु आज भारत की स्टार खिलाड़ियों में शामिल हो गई हैं. विश्व चैंपियनशिप के सिंगल्स में कोई पदक जीतने वाली ये पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं. इतना ही नहीं 1983 में प्रकाश पादुकोन (Prakash Padukone) के बाद भारतीय इतिहास में दूसरी बार किसी खिलाड़ी ने विश्व चैंपियनशिप में कोई पदक जीता है. वास्तव में भारतीय महिलाओं के लिए खेलों में रुझान के लिए यह बहुत ही उत्साहवर्धक है. यह तो वर्तमान परिदृश्य में दिखने वाली मात्र एक महिला है. इसके अलावे भी कई महिलाएं हैं जो अब खेलों को महिलाओं के लिए निषेध मानी जाने वाली परिकल्पना को तोड़ रही हैं. बैडमिंटन की प्रसिद्ध भारतीय खिलाड़ी सायना नेहवाल ओलंपिक में बैडमिंटन खेलों में भारत के लिए स्वर्ण पदक लाने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं. सानिया मिर्जा ने भारतीय टेनिस जगत में लिएंडर पेस और और महेश भूपति के वर्चस्व को चुनौती देते हुए महिला टेनिस में अपना मुकाम स्थापित किया. इसके अलावे कर्णम मल्लेश्वरी भारोत्तोलन खेल का एक जाना-पहचाना नाम हैं. 2010 में आयोजित कॉमन वेल्थ गेम्स में भी भारतीय महिला खिलाड़ियों का बोलबाला रहा. सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि इसमें भारत की उत्कृष्ट दावेदारी साबित करने वाली अधिकांश खिलाड़ी गांवों से संबंध रखती हैं. यह सबूत है इस बात का कि महिलाओं के लिए समाज की सोच, महिलाओं की स्वयं की सोच बड़े आयाम पर बदल रही है.
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आज से एक दशक पहले भारत में ऐसी महिला खिलाड़ियों को ढ़ूंढना जरा मुश्किल था. हालांकि भारत में महिलाओं का खेलों में रुझान कई दशक पहले ही दिखने लगा था. पी.टी. उषा इसकी प्रेरणास्रोत और शुरुआत मानी जा सकती हैं. 1984 में ओलंपिक के फाइनल में पहुंचने वाली वह पहली भारतीय महिला खिलाड़ी थीं. हालांकि पी. टी. उषा धावक रहीं, लेकिन महिलाओं को तय मानकों से अलग हटकर कुछ करने के लिए पी.टी. उषा की सफलता हमेशा उल्लेखनीय रहेगी. पर्वतारोहण में बछेंद्री पाल, बॉक्सिंग में मेरी कॉम आदि कुछ उल्लेखनीय महिलाएं हैं. यहां मेरी कॉम खास तौर पर इसलिए भी उल्लेखनीय हैं क्योंकि अपनी शारीरिक कद-काठी को नजरअंदाज करते हुए, दो बच्चों की मां, इस भारतीय महिला का बॉक्सिंग के लिए जज्बा प्रशंसनीय है. इसके अलावा अंजू बॉबी जॉर्ज, शाइनी विल्सन (Shiny Wilson), नीलम जसवंत सिंह, सोमा विश्वास आदि आज कई महिला खिलाड़ी उल्लेखनीय श्रेणी में पहुंच चुकी हैं. हॉकी से लेकर बैडमिंटन, शतरंज से लेकर भारोत्तोलन तक हर कहीं महिलाएं अपना परचम लहरा चुकी हैं. कल तक घर की चाहरदीवारी तक सीमित इन महिलाओं का इस तरह अपनी सीमाओं को धता बताकर मुख्य दृश्य में आना निश्चय ही महिलाओं के सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा.
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