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16 जून, 2013 की वह काली रात हजारों जिंदगियों को लील गई, हजारों घर बर्बाद हुए, जाने कितने बच्चे बेघर हो गए, कितने आज भी अपने खोए हुए परिवार से मिलने की आस में राहत शिविरों में दिन गुजार रहे हैं. 2013 की उत्तराखंड बाढ़ आपदा का कहर पूरे देश ने महसूस किया. इस आपदा को बीते अब एक साल हो चुके हैं. वक्त के साथ देश इस सदमे से बाहर आकर अपनी सामान्य दिनचर्या में व्यस्त हो गया लेकिन इस त्रासदी में अपना घर-परिवार गंवा चुके लोगों के लिए इतना आसान नहीं है इतनी जल्दी इसे भूलकर आगे बढ़ जाना. उनके लिए सामान्य होने में शायद आधी जिंदगी गुजर जाए और भूलना तो शायद कभी संभव ही न होगा. पर हौसले हर जगह काम आते हैं. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्रकृति के इस कहर से बच तो नहीं पाए लेकिन इसे अपनी नियति बनने देने की बजाय लड़ते हुए आगे बढ़ने का हौसला दिखाया. ऐसी ही एक कहानी हम बता रहे हैं आपको:
ममता रावत की कहानी हौसले की मिसाल है. उत्तरकाशी जिले में बंकोली गांव की रहने वाली ममता रावत के परिवार की एकमात्र संपत्ति उनका घर ही था. उसका एक हिस्सा 2012 के बाढ़ में ही ढह गया था, 2013 की इस तबाही में उनका पूरा घर ही बर्बाद हो गया. आज उनका पूरा परिवार टिन के छत वाले घर में रह रहा है.
पर्वतारोही ममता एक निम्न-मध्यम आयवर्ग परिवार से ताल्लुक रखती हैं. 2013 में जब अचानक बाढ़ आई उस वक्त वह वहीं थीं. द्यारा में ट्रेनिंग दे रहे एक इंस्टिट्यूट की ओर से एडवेंचर कैंप के लिए देश के कोने-कोने से आए 30 बच्चों के एक ग्रुप के साथ वह गाइड के रूप में उनके साथ थीं. वहां वह फ्रीलांस इंस्ट्रक्टर थीं. अचानक बाढ़ की इस विभीषिका से ममता ने उन्हें बचाकर सबसे पहले घर पहुंचाया और उसके बाद बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए वहां वापस गईं. कई लोगों को वहां से निकालने में भी ममता ने मदद की. बाढ़ में फंसकर बेहोश हुई एक बूढ़ी औरत को अपनी पीठ पर लादकर पथरीले पहाड़ों पर वह लगातार 3 घंटे तक भागती रही ताकि राहत हेलिकॉप्टर तक पहुंचाकर उसकी जान बचाई जा सके.
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त्रासदी का वह वक्त गुजर चुका है. अपनी परवाह न करते हुए लोगों की जान बचाने के लिए ममता जितना कर सकती थीं उतना किया पर उससे अधिक वह किसी के लिए कुछ नहीं कर सकतीं. एक एनजीओ ने ममता के टूटे घर को बनाने का प्रस्ताव रखा जिसे ममता ने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि उससे जरूरी है नदी पार करने के लिए उसके गांव का टूटा पुल बनना जो बाढ़ में पूरी तरह बर्बाद हो चुका है.
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अपनी बीमार मां की देखभाल के लिए पढ़ाई छोड़ चुकी ममता बड़ी मुश्किल से उत्तरकाशी के ही एक पर्वतारोही इंस्टीट्यूट से पर्वतारोहण की बेसिक ट्रेनिंग ले सकीं. अपने घर में ममता अकेली कमाने वाली हैं. सरकार की ओर से भी उन्हें कोई मदद नहीं है. एक सामाजिक संस्था ममता के उत्तराखंड बाढ़ के दौरान दिखाए साहस के रिवार्ड के रूप में उनका घर बनाने के लिए चंदा इकट्ठा कर रही है. उम्मीद है संस्था की मदद से कम से कम ममता अपने परिवार को एक पूरी छत का मकान दे पाएंगी.
उत्तराखंड की उस भयानक प्राकृतिक आपदा को आज एक साल हो चुके हैं लेकिन उसमें अपना घर-बार, परिजन गंवा चुके लोगों के लिए सदियों में यह कुछ वक्त गुजरने जैसा है. उस वक्त को यादों से मिटाया नहीं जा सकता, न ही उसकी क्षतिपूर्ति किसी भी रूप में की जा सकती है लेकिन यह भी सच है कि ममता जैसी साहसिक मिसालें ऐसी आपदाओं की ही देन हैं. ममता सिर्फ इंसानियत की नहीं नारी शक्ति की भी पहचान हैं. खुद को कमजोर समझकर हालात से समझौता करने वाली महिलाओं के लिए ममता प्रेरणा स्रोत हैं.
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