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बचपन में आपने कबूतर और शिकारी वाली कहानी पढ़ी होगी जिसमें कबूतरों को उसका मालिक शिकारी से बचने के तरीके गाने की तरह रटा देता है, “शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा..पर तुम फंसना नहीं…”. कबूतर हमेशा वह गाना गाते रहते हैं. एक दिन जब मालिक की अनुपस्थिति में शिकारी आता है और जाल बिछाकर दाना डालता है तो कबूतर दाना चुगने चले जाते हैं और जाल में फंस जाते हैं. भारत में सरकारी व्यवस्था में महिलाओं की दशा भी कुछ इसी प्रकार की कही जा सकती है.
भारतीय संविधान महिलाओं को समाज में पुरुषों के मुकाबले हर प्रकार से समान दर्जा देता है. महिलाओं की दशा देखते हुए संविधान ने कानूनी नियमों से इसे बराबर करने की कोशिश भी की है. हमारा समाज चाहे जिस भी तरह की सोच रखता हो पर संविधान ने महिलाओं को कमजोर करने और शोषण करने वाली सोच से बचाने के लिए कई तरह के प्रावधान रखते हुए, कई कानून बनाए हैं. आज भी जरूरत के अनुसार उन कानूनों में बदलाव या नए कानून बनाना जारी है. जब भी महिलाओं के शोषण से संबंधित कोई बुरी खबर आती है हम इन कानूनों का राग अलापने लगते हैं. पर हकीकत यह है कि कुछ महिलाओं की स्वयं की मनोदशा, कुछ समाज की बदनीयती से आज भी कई जगह ये कानून बस नाम के ही हैं. कई महिलाओं को आज भी कानून में उनके लिए प्रस्तावित अधिकारों और कानूनों की जानकारी नहीं है. अधिकांश महिलाएं ऐसी हैं जो आज भी कानूनी सुरक्षा को दूर की कौड़ी मानती हैं. कई मामलों में सरकारी पुलिस और वकीलों के उपेक्षित रवैये ऐसे कानूनों को ताक पर रखकर इनका मखौल उड़ाते हैं. महिला शोषण के ज्यादातर मामले घर के होते हैं पर ऐसी अधिकांश महिलाएं इसे अपनी निजी परेशानी मानती हैं. हालांकि आज अधिकांश महिलाएं यह भी जानती हैं कि उनके साथ किसी भी तरह के दुर्व्यवहार अपराध की श्रेणी में आते हैं और इसके लिए वे कानूनी सहयता ले सकती हैं. समस्या यह है कि जब ऐसा वक्त आता है तो उन्हें या तो पता ही नहीं होता कि यह सहायता उन्हें किस प्रकार और कहां से मिलेगी या अगर उन्हें जानकारी होती भी है और हिम्मत कर इनकी सहायता लेने का साहस वे दिखाती भी हैं तो कानून और उनके बीच उपेक्षित पुलिसिया रवैया आ जाता है.
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भारतीय संविधान में यूं तो कई कानून हैं पर इन सभी कानूनों के मूल में 1993 में बना ‘महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर कन्वेंशन का अनुसमर्थन’ है. इसके अंतर्गत महिलाओं की सुरक्षा और समाज में इसकी स्थिति सुधारने के लिए तमाम उपाय किए जाने की अनुशंसा की गई है. इस कन्वेंशन को 1979 में यूएन जनरल असेंबली से लिया गया था. यह एक प्रकार से महिलाओं के समान अधिकारों के लिए बनाया गया अंतरराष्ट्रीय बिल है जिसके अंतर्गत 30 धाराएं डाली गई हैं ताकि महिलाओं को समाज में पुरुषों के समान अधिकार और सम्मान मिले. इसमें घरेलू स्तर पर महिलाओं की सुरक्षा और समानता के साथ ही, कामकाजी महिलाओं को भी कार्यस्थल पर एक सम्मानजनक और सुरक्षित माहौल बनाने के लिए कानूनी प्रावधान हैं.
भारतीय संविधान में महिलाओं की दशा सुधारने और उन्हें एक सम्मानजनक सामाजिक स्थिति प्रदान करने के कई प्रावधान हैं. संविधान महिलाओं को लिंग के आधार पर, जाति के आधार पर, मानव अधिकारों के आधार पर, सामाजिक व्यवस्था के आधार पर समानता देने के साथ ही आर्थिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक समानता के अधिकारों को महिलाओं के लिए सुलभ बनाता है. इसके साथ ही कार्यस्थल पर महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन देने को गैरकानूनी करार दिया गया है. इस संबंध में आर्टिकल 14, 15, 15(3), 16, 39(अ), 39(ब), 39(स) तथा 42 उल्लेखनीय हैं.
भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत बलात्कार, धारा 363-373 के अंतर्गत अपहरण, 302/304-ब के अंतर्गत दहेज और इससे जुड़ी प्रताड़ना, धारा 498-अ के अंतर्गत शारीरिक और मानसिक शोषण, धारा 509 के अंतर्गत सेक्सुअल शोषण अपराध माना गया है.
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इसलिए महिलाओं के खिलाफ अपराध और हिंसा के लिए कानून को दोष देना कहीं से भी सही नहीं कहा जा सकता. भारतीय संविधान ने महिलाओं के लिए पर्याप्त कानून बनाए हुए हैं जो आमतौर पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अपराधों को कम करने और रोकने के लिए काफी हैं. पर बात वहां बिगड़ जाती है जब इनका सही रूप में पालन नहीं होता. आज भी हर एक नई घटना पर नए कानूनों की मांग होने लगती है जबकि सच्चाई तो यह है कि जितने कानून हमारे पास हैं उतने ही हम सही दिशा में उपयोग नहीं कर पाते. नए कानूनों का कोई अर्थ नहीं रह जाता. इस तरह बस सरकार को यह फायदा होता है कि वह कानून बनाकर निश्चिंत हो जाती है. जनता देखती है कि सरकार ने कानून बनाया पर यह भी तो सोचो कि क्या उन कानूनों का पालन सही प्रकार से हो रहा है. क्या हम सचमुच इस नए कानून को उपयोग कर पाने की हालत में हैं? और क्या यह नया कानून वर्तमान समस्या का हल कर सकने में सक्षम है?
समस्या यह है कि हम हर समस्या का हल कानून में ढूंढ़ते हैं, लेकिन सिर्फ कानून किसी समस्या का हल नहीं हो सकता. आखिर उस कानून को सही दिशा में उपयोग करना भी तो आना चाहिए. भ्रष्टाचार हर जगह पांव पसारे है. जो कानून के रखवाले हैं और जो अपराध के भुक्तभोगी हैं, हर कोई बस किसी प्रकार अपना काम निकाल लेना चाहता है, चाहे वह कानून के अंदर हो या गैरकानूनी रूप से हो. तो कानून वहां बस एक खिलौना बनकर रह जाता है. कुछ इसी प्रकार कि बच्चे को लिखना आए न आए, उसे महंगी कलम चाहिए. जाहिर है लिखना आता नहीं तो वह उस कलम को लिखने के लिए नहीं लेकिन खेलने के लिए जरूर उपयोग करेगा. इसलिए कानून की मांग कर समस्या से निजात पाने की बात कहीं से भी समस्या का निदान नहीं कर सकती. महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कानून और समाज का समन्वय अति आवश्यक है.
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