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महिला सशक्तिकरण की बात जब भी आती है, महिलाओं के कल और आज की तुलना जरूर की जाती है. जाहिर है वक्त के साथ आए बदलाव को मापना है तो बदलाव किस-किस दिशा में हुआ, यह जानना बहुत जरूरी है. सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं की बंदिशों से जुड़ी महिलाएं हमेशा शोषित होने के लिए दया भरी नजरों से देखी जाती हैं. आज भी अमूमन यही स्थिति है, महिला कैसी भी हो, हमेशा ही कमजोर ही समझी जाती है. शारीरिक मजबूती की बात छोड़ भी दें, तो भावनात्मक कमजोरी आज भी महिलाओं की सबसे बड़ी कमजोरी समझी जाती है. पर आज वक्त बदला है और साथ ही महिलाओं की दशा भी.
भारतीय समाज में बेटे की चाहत जगजाहिर है. भ्रूण हत्या से जुड़े आंकड़े इसी चाहत का परिणाम हैं. इसकी एक बड़ी वजह यह सोच भी है कि बेटा ही वंश आगे बढ़ाता है. हालांकि बेटे के प्रति यह चाहत कोई नया मसला नहीं है, पर ऐसे परिदृश्य में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी बेटियों को बेटे से ज्यादा महत्व देते हैं.
हिंदू मान्यता के अनुसार शवयात्रा में शामिल होने, अर्थी को कंधा और मुखाग्नि देने जैसे कर्मकांड पुरुष ही करते हैं, जबकि महिलाओं की भूमिका घर तक ही सीमित है. इसके पीछे यह धार्मिक मान्यता भी एक बड़ा कारण है कि कि पुत्र के बिना गति यानी (मोक्ष) नहीं मिलता.
कुछ वर्ष पहले की बात है 86 वर्षीया सुगिया देवी की मौत हुई तो अर्थी को उनकी तीन पोतियों नीलम, तिस्ता और शिप्रा यादव ने कंधा दिया. उन्होंने न सिर्फ अपनी दादी के शव को शमशान घाट पहुंचाया बल्कि मुखाग्नि भी दी. ऐसा नहीं था कि मौके पर सुगिया की कोई संतान मौजूद नहीं थी. शवयात्रा और दाह संस्कार के समय शमशान घाट पर उनके पांच बेटे, पोते और अन्य रिश्तेदार मौजूद थे, पर सुगिया देवी उन लोगों के व्यवहार से इतनी दुखी थीं कि मरते समय उन्होंने अपने पोतियों से कहा था कि चाहे कुछ भी हो पर मेरा अंतिम काम तुम लोग ही करना तभी मेरी आत्मा को शांति मिलेगी.
सनातनी परंपरा में बेटे का महत्व सिर्फ वंश परंपरा को आगे बढ़ाने से ही नहीं है, बल्कि हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार पुत्र के हाथों से पिंडदान होने पर ही मोक्ष मिलता है. लेकिन अगर सभी परिवार वाले इस खोखली मान्यताओं को नकारकर बेटियों को अपने परिवार और जीवन का वैसा ही हिस्सा मानने लगें जैसा वह बेटे को मानते हैं तो शायद कभी किसी बेटी को कोख में ही दम नहीं तोड़ना पड़ेगा और ना ही पैदा होने के बाद एक बोझ की तरह जीवन जीना पड़ेगा.
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