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“मेरे नाम को छिपाया जाता है जैसे मैंने कोई गुनाह किया हो. मेरे माता-पिता, भाई-बहन या फिर मुझ से जुड़े किसी भी व्यक्ति का नाम उजागर नहीं किया जाता है जैसे उन सब ने कोई गुनाह किया हो. ऐसा क्यों होता है मेरे समाज में कि मेरे साथ ही बलात्कार होता है और मुझे ही दोषी पाया जाता है.” यह आवाज उन हजारों लड़कियों की है जिनके साथ बलात्कार जैसी घिनावनी घटना हुई है और उस घटना ने उन्हें शारीरिक स्तर के साथ-साथ मानसिक स्तर भी तोड़ दिया है.
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दिल्ली गैंग रेप को लेकर हर तरफ ‘न्याय चाहिए’ का शोर तो सुनाई दे रहा है और उस शोर के बीच में ही अपने आपको को महान व्यक्तियों, बुद्धिजीवियों धर्मगुरुओं में से एक बताने वाले आसाराम बापू का कहना है कि बलात्कार जैसे वारदातों में गलती दोनों तरफ की होती है. उन्होंने कहा कि केवल 5-6 लोग ही दोषी नहीं हैं. बलात्कारियों के साथ-साथ पीड़िता भी दोषी है. उसे दोषियों को भाई कह कर संबोधित करते हुए उनसे ऐसा घृणित कार्य ना करने का अनुरोध करना चाहिए था. इससे उसकी जान और इज्जत दोनों बच जाती. इतना ही काफी नहीं था कि आसाराम बापू ने अपनी बात में यह भी साफ किया कि वे आरोपियों को कठोर सजा दिए जाने के खिलाफ हैं. उनके मुताबिक इस तरह के बने कानूनों का हमेशा से दुरुपयोग हुआ है. दहेज प्रताड़ना के खिलाफ बना कानून इसका एक उदाहरण है. आसाराम बापू जैसे सभी बुद्धिजीवियों, धर्मगुरुओं को यह बात समझने की जरूरत है कि बलात्कार पीड़िता पर आरोप लगाने से हम मर्दवादी समाज की घिनौनी सोच को छिपा नहीं सकते हैं और साथ ही इस बात को ज्ञात कराना जरूरी है कि अधिकांश बलात्कारी महिलाओं के रिश्तेदारों में से एक होते हैं तो इस संदर्भ में आसाराम बापू की ‘बलात्कारी को भाई बनाकर बलात्कार जैसी घटना से बचने वाली बात निरर्थक साबित हो जाती है’. समाज के हर व्यक्ति को अपने मानसिक स्तर पर विकास करते हुए यह सोचना होगा कि क्यों हम बलात्कार से पीड़ित महिला या मासूम लड़कियों को बलात्कार जैसी घिनौनी घटना के लिए दोषी मान लेते हैं या फिर दोषी बना देते हैं. बदलते समय के साथ हम समाज में बहुत सी बातों में परिवर्तन चाहते हैं या फिर कई स्तर पर हम नजरिए में परिवर्तन कर भी रहे हैं पर सवाल यह है कि क्या लाभ है उन खोखले परिवर्तनों का जब हम आज भी बलात्कार पीड़ित को ही दोषी की नजर से देखते हैं.
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