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मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रन्दन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली,
मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन बन अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
यह कविता महादेवी वर्मा की कविता हैं जिसका अर्थ यह है कि एक लड़की माटी की गुड़िया के समान है जिसे अपनी जिंदगी के हर मोड़ पर टूटने और बिखरने का डर है. उसकी जिंदगी में परेशानियों का सफर हमेशा चलता रहता है. लड़की के पैदा होने पर परिवार दुखित होता है और यदि पहले ही पता चल जाए कि गर्भ में लड़की है तो उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है. कुछ बड़ी हुई तो बाल-विवाह का डर, वो भी नहीं हुई तो गिद्ध की तरह हर वक्त घूरती नजरों का खौफ.
यदि लड़की पढ़ने-लिखने गई तो अवसरों का डर क्योंकि यदि अवसर मिल गए तो उसे ‘कीमत’ चुकाने का डर. शादी के लिए दहेज का डर और यदि गलती से ससुराल की इच्छा के अनुसार माता-पिता ने कम दहेज दे दिया तो ससुराल की प्रताड़ना का डर. यदि औरत के जीवन में पति न रहा तो समाज का डर. कुछ इसी तरह एक लड़की की जिंदगी तमाम परेशानियों के साथ चलती रहती है.
महादेवी वर्मा की कविताओं में एक गंभीरता होती थी जिसे पढ़ने पर एक रस का अनुभव तो होता ही था पर साथ ही समाज को एक नए चश्मे से देखने का अनुभव भी होता था.
महादेवी वर्मा ने जिस परिवार में जन्म लिया था उसमें कई पीढ़ियों से किसी कन्या का जन्म नहीं हुआ था इसलिए परिवार में महादेवी की हर बात को माना जाता था. महादेवी का विवाह अल्पायु में ही कर दिया गया, पर वह विवाह के इस बंधन को जीवनभर स्वीकार न कर सकीं.
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गईं. 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए ‘पद्म भूषण’ की उपाधि और 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि से अलंकृत किया. इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिए 1934 में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, 1942 में ‘स्मृति की रेखाओं’ के लिए ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए. 1943 में उन्हें ‘मंगला प्रसाद पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ वर्ष 1983 में प्राप्त हुआ. इसी वर्ष उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार के ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 1988 में उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से भी सम्मानित किया गया. आज भी वो दिन याद है जब 1 सितंबर, 1987 को महादेवी वर्मा की मृत्यु हो गईं.
जो तुम आ जाते , मैं प्रिय पहचानी नहीं, अश्रु यह पानी नहीं है , व्यथा की रात, तुम मुझमें प्रिय!, फिर परिचय क्या, कौन तुम मेरे हृदय में, तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना , उत्तर , यह कविताएं महादेवी वर्मा की हैं जिन्हें आज भी लोग पढ़ा करते हैं और अपने लिए प्रेरणा मान कर इन कविताओं की गंभीरता को अपनी निजी जिंदगी में अमल किया करते हैं.
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