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आज बेटे के प्रति इसी चाहत की वजह से ही भ्रूण हत्या से जुड़े आंकड़ों में वृद्धि होती जा रही है तो ऐसे में संभव है कि आपको यह जानकर हैरानी होगी की कोई ऐसा भी सोच सकता है कि उसे बेटा नहीं चाहिए.
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अधिकांश लोगों का यही मानना है कि बेटा ही वंश आगे बढ़ाएगा, वहीं बेटियों को बोझ समझे जाने की प्रवृत्ति में भी बढ़ोतरी देखी जा सकती है. उल्लेखनीय है कि बेटे के प्रति चाहत कोई आज का मसला नहीं है. अगर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर डाली जाए तो कितने ही लोग ऐसे नजर आएंगे जिन्होंने बेटे की चाहत के चलते कई शादियां की और आज भी कई लोग बेटे के चाहत में अपनी बेटी को मार देते हैं.
लेकिन ऐसे परिदृश्य में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने बेटियों को बेटे से ज्यादा महत्व देते हैं.
देखा जाए तो हिंदू मान्यताओं के अनुसार शवयात्रा में शामिल होने, अर्थी को कंधा और मुखाग्नि देने जैसे कर्मकांड पुरुष ही करते हैं, जबकि महिलाओं की भूमिका घर तक ही सीमित है. परंतु अब वह जमाना गया जब कहा जाता था कि पुत्र के बिना गति यानी (मोक्ष) नहीं मिलता. कम से कम बिहार के गया में तो कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है. यहां महिलाएं अर्थी को कंधा देने से लेकर पिंडदान जैसी क्रियाओं को अंजाम दे रही हैं.
इंजीनियरिंग की थर्ड ईयर की छात्रा दीपिका दीक्षित की ही बात कर लें तो पिता की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण में दीपिका अपनी मां के साथ मध्य प्रदेश के रतलाम से गया धाम अपने पिता का पिंडदान करने गई थी. बेटा न होने के कारण उसकी मां हमेशा पति के पिंडदान को लेकर चिंतित रहा करती थी. लेकिन जब दीपिका को अपनी मां की परेशानी की वजह पता चली तो उसने अपनी मां से कहा कि मां अगर मैं पापा का पिंडदान करुंगी तो वो खुश नहीं होगें क्या? इस पर उसकी मां कुछ बोल नहीं पाई तब दीपिका ने उन्हें समझाया कि “मां, पापा मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते थे, तभी तो उन्होंने कोई बेटा गोद नहीं लिया. वह हमेशा मुझसे कहते रहते थे कि मैं ही उनका बेटा हूं तो क्या मैं उनके लिए इतना भी नहीं कर सकती? क्या उनका प्यार मेरे लिए सिर्फ दिखावा था? यह कहते-कहते वह रोने लगी.
इस पर उसकी मां ने उसे गले लगाकर रोते हुए कहा कि वैसे तो तू मुझसे छोटी है, पर आज तूने मुझे छोटा साबित कर दिया अपनी यह सोच बता कर. फिर दीपिका ने अपने पापा का पिंडदान कर उनके बेटे होने का फर्ज अदा किया.
86 वर्षीया सुगिया देवी की मौत हुई तो अर्थी को उनकी तीन पोतियों नीलम, तिस्ता और शिप्रा यादव ने कंधा दिया. उन्होंने न सिर्फ अपनी दादी के शव को शमशान घाट पहुंचाया बल्कि मुखाग्नि भी दी. ऐसा नहीं था कि मौके पर सुगिया की कोई संतान मौजूद नहीं थी. शवयात्रा और दाह संस्कार के समय शमशान घाट पर उनके पांच बेटे, पोतें और अन्य रिश्तेदार मौजूद थे, पर सुगिया देवी उन लोगों के व्यव्हार से इतनी दुखी थी कि मरते समय उन्होंने अपने पोतियों से कहा था कि चाहे कुछ भी हो पर मेरा अंतिम काम तुम लोग ही करना तभी मेरी आत्मा को शांती मिलेगी .
सनातनी परंपरा में बेटे का महत्व सिर्फ वंश परंपरा को आगे बढ़ाने से ही नहीं है, बल्कि हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार पुत्र के हाथों से पिंडदान होने पर ही मोक्ष मिलता है. लेकिन अगर सभी परिवार वाले इस खोखली मान्यताओं को नकारकर बेटियों को अपने परिवार और जीवन का वैसा ही हिस्सा मानने लगें जैसा वह बेटे को मानते हैं तो शायद कभी किसी बेटी को कोख में ही दम नहीं तोड़ना पड़ेगा और ना ही पैदा होने के बाद एक बोझ की तरह जीवन जीना पड़ेगा.
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