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नाजियों के नरसंहार के शिकार इन भारतवंशियों को आज भी सहनी पड़ रही है नफरत और उपेक्षा… पढ़िए अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करते इन बंजारो की दास्तां

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चालीस के शुरूआती दशक में एक समुदाय के रुप में नाजियों के अत्याचार को जिसने सबसे अधिक सहा वह शायद यहूदी हैं पर एक और समुदाय है जिसपर होने वाले अत्याचार को इतिहास में उचित जगह नहीं मिली. संयोग से यह जाती भारत से जुड़ी है. यहूदियों को तो युद्ध समाप्त होने के बाद अपना एक अलग देश भी मिल गया जिसका आज विश्व की राजनीति में अच्छी खासी धाक है, पर यूरोप का यह सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय इस महाद्वीप के लगभग सभी देशों में उपेक्षित और अवांछित हैं.



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हम बात कर रहें हैं यूरोप के घुमक्कड़ समुदाय रोमा की. मुख्यत: पूर्वी यूरोपीय देशों में बसने वाले रोमाओं की कुल तादाद करीब डेढ़ करोड़ है. इन्हें रोमानी भी कहते हैं.  रोमानी लोग विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में बिखरे हुए हैं, किन्तु अधिकांश यूरोप में हैं. यह यूरोप की सबसे गरीब और बदहाल समुदाय है. घुमक्कड़ होने के कारण रोमा को जिप्सी भी कहा जाता है. रोमा करीब हजार साल पहले भारत से मध्य-पूर्व होते हुए यूरोप पहुंचे थे. बाद में ये बाइजेंटाइन साम्राज्य का हिस्सा बन गए. चूंकि ये खुद को रोमन साम्राज्य का उत्तराधिकारी समझते हैं इसलिए इन भारतवंशी बंजारों ने अपने समुदाय का नाम रोमा रख लिया.


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एक अनुमान के मुताबिक द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान करीब 200,000 रोमाओं का नाजियों द्वारा कत्ल कर दिया गया था. पर इस नरसंहार को कुछ इतिहासकार एक भुलाया जा चुका नरसंहार करार देते हैं. चुनिंदा ही इतिहास की किताबें हैं जिनमें इस नरसंहार के बारे में उल्लेख है.



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द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त हुए करीब 70 साल बीत चुके हैं. इस दौरान युरोप के कई ग्लेशियरों का बहुत सारा बर्फ पिघल चुका है. यूरोप और विश्व में बहुत कुछ बदल गया है पर रोमा समुदाय के लिए इतिहास शायद ठहर गया है. खुद को लोकतंत्र, मानवाधिकार आदि बड़े-बड़े दर्शनों का मसीहा घोषित करने वाले यूरोप की लगभग सभी सरकारें रोमा समुदाय की तकलिफों के प्रति उदासीन हैं. फ्रांस ने तो एक कदम और आगे बढ़कर रोमा समुदाय को अपने देश से खदेड़ने का अपना राष्ट्रीय एजेंडा बना लिया है. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी फ्रांस की नाजीपरस्त सरकार ने रोमा समुदाय के हजारों लोगों को जर्मनी खदेड़ दिया था.


सारकोजी के शासन काल में फ्रांस के इस दागदार अतीत में एक नई कड़ी जोड़ दी गई. ब्रुसेल्स में यूरोपीय संघ की एक शिखर बैठक में तमाम आलोचनाओं को खारिज करते हुए सारकोजी ने बेशर्मी से कहा था कि जिप्सियों या रोमा लोगों को खदेड़ना सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक है और इस बारे में फ्रांस को किसी की नसीहत की जरूरत नहीं है. बतौर सारकोजी उखाड़े गए सौ रोमा शिविर आतंक, अपराध और वेश्यावृत्ति का अड्डा थे. सारकोजी ने कहा कि “हम आगे भी इन अवैध शिविरों को नष्ट करते रहेंगे.”


सच्चाई यह है कि पूरे यूरोप में रोमाओं को लेकर काफी पूर्वाग्रह है और आज भी उनके खिलाफ युद्घकालीन भेदभाव जारी है. यूरोप के कई देशों में कट्टरपंथी संगठनों ने रोमा समुदाय के खिलाफ नफरत का अभियान चला रखा है. वे ये दुष्प्रचार फैलाते हैं कि ये भूरे रंग की चमड़ी वाले लोग गाना गाते हैं, चोरियां करते हैं, अपने बच्चों को जूते नहीं पहनाते और गंदगी में रहना पसंद करते हैं. यह समुदाय सभ्य यूरोपीय देशों में रहने के काबिल ही नहीं है.


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वर्षों से उपेक्षित गरीबी और अशिक्षा के मारे रोमा समुदाय के लोग झुग्गी-बस्तियों में रहने के लिए मजबूर हैं. यूरोप की ज्यादातर सरकारें उन्हें अपने देश के नागरीक के रूप में स्वीकार नहीं करती. ज्यादातर रोमा समुदाय के लोगों के पास न जन्म प्रमाण पत्र होता है न मतदाता पहचान पत्र. रोजगार के अभाव में रोमा लोग इधर-उधर घूमने को मजबूर हैं पर जहां भी ये जाते हैं इन्हें दुत्कार ही मिलती है. खौफ के मारे कई रोमा अपनी पहचान जाहिर करने से कतराते हैं.


रोमानिया में पिछली जनवरी एक दक्षिणपंथी संगठन ने रोमा समुदाय के औरतों का बंध्याकरण करने का फरमान जारी किया था. बुल्गारिया की राजधानी सोफिया में पिछले साल रोमा समुदाय के लोगों के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन हुआ था. 2012 में चेक रिपब्लिक में प्रदर्शन के दौरान भीड़ नारे लगा रही थी “गैस द जिप्सीस” यानी रोमा जिप्सियों को नाजी कालीन गैस चैंबरों में डालकर मार दिया जाए.


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सन 2003 में पद्मश्री से सम्मानित डा. श्याम सिंह शशि ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर रोमा समुदाय के लोगों को भुखमरी से बचाने की अपील की थी. उन्होंने अपने पत्र में कहा था कि प्रवासी दिवस पर रोमा समुदाय को भी याद किया जाना चाहिए क्योंकि रोमा भारतीय मूल के ही लोग हैं.


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने 2001 में रोमा समुदाय पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन किया था. तब एक दर्जन देशों से 33 रोमा प्रतिनिधि सम्मेलन में शामिल हुए थे. तब इस समुदाय को सांस्कृतिक आदान-प्रदान और अन्य प्रकार की सहायता का वचन भी दिया गया था. इसमें रोमा जाति के लोगों को भारतीय नागरिकता देने की मांग भी उठी थी.


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रोमा अपने आप को हिंदू नहीं मानते. लेकिन ‘रोमानी’ या ‘रोमानेस’ नाम की साझी भाषा में प्रयोग होने वाले लगभग 800 सबसे आम शब्द संस्कृत और हिंदी के ही शुद्ध या अपभ्रंश रूप हैं. ‘रोमानी’ के बोलने वालों की संख्या 35 लाख से अधिक आंकी जाती है. वर्तमान में भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार विदेश मामलों को लेकर बेहद सक्रिय है. क्या लगभग भुला दिए गए ये भारतवंशी नरेंद्र मोदी की सरकार से कुछ उम्मीद कर सकते हैं?


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