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सीरिया संकट: पैसा, ताकत और रणनीति का गजब खेल

International Affairs
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राष्ट्रपति को पद से हटाने और कथित तौर पर तानाशाही शासन को समाप्त करने के लिए पिछले काफी समय से सीरिया को अंदरूनी विद्रोह से जूझना पड़ रहा है. सीरिया के वर्तमान राष्ट्रपति बशर अल-असद को तानाशाह करार देते हुए विद्रोही गुट सक्रिय हो गए हैं जिनका उद्देश्य मौजूदा सरकार को गिराकर लोकतांत्रिक राष्ट्र की स्थापना करना है.


सीरिया की सीमा में उग्र प्रदर्शनों का दौर अभी चल ही रहा था कि इस बीच अमेरिका के सीरिया पर आक्रमण करने जैसी खबर से हड़कंप मच गया. हालांकि यह मात्र अफवाह ही थी क्योंकि इजराइल और अमेरिका के परमाणु परीक्षण को सीरिया पर हमले के तौर पर देखा जाने लगा था जिसकी वजह से वैश्विक शेयर बाजार डूबने भी लगा था. खैर यह तो मात्र एक अफवाह थी लेकिन इस अफवाह ने भविष्य में होने वाले घटनाक्रमों की एक तस्वीर जरूर पेश कर दी है.


सीरिया में राष्ट्रपति के खिलाफ चल रहे प्रदर्शनों को अंदरूनी हालातों से जरूर देखा जा रहा है लेकिन अपने दुश्मनों और सॉफ्ट टार्गेट को शिकस्त देने के लिए अमेरिका की रणनीति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.


सुपरपॉवर बन चुका अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है कि उसे अपने मार्ग में आने वाली रुकावटों से किस तरह निपटना है. उत्तर कोरिया और अमेरिका के बीच हुई तनातनी ने तो तीसरे विश्वयुद्ध के हालात बना ही दिए थे लेकिन अब सीरिया पर मंडरा रहे खतरों के बादलों का ठीकरा अगर अमेरिका के सिर फोड़ा जाए तो भी गलत नहीं होगा.


अमेरिका की यह विशेषता रही है कि वह अपने दुश्मनों पर सीधा निशाना नहीं लगाता. वह आंतरिक विद्रोह की भावना को भड़काता है और सरकार द्वारा विद्रोहियों के दमन को लोकतंत्र का हनन करार दे दिया जाता है. सरकार द्वारा की जा रही कार्यवाहियों को दमनकारी बताते हुए वह सीधे सत्ता पर आसीन सरकार पर प्रहार करता है. अमेरिका द्वारा प्रायोजित इस आंतरिक विद्रोह के अंतर्गत सीरिया के अंदरूनी हालातों को इस कदर बिगाड़ दिया गया है कि वैश्विक स्तर पर सीरिया को दमनकारी राष्ट्र समझा जाने लगा है. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा इराक और अफगानिस्तान के साथ किया गया था.


अमेरिका की चाह दुनियाभर के प्राकृतिक स्त्रोतों पर कब्जा जमाने के साथ-साथ सभी देशों के भीतर अपनी छवि को लेकर एक खौफ बरकरार रखने की भी है. अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है कि अगर अपनी मौजूदा छवि का फायदा ना उठाया गया तो बहुत हद तक संभव है कि कल कोई देश उसकी सत्ता को चुनौती देने में कामयाब हो जाए. थोड़े बहुत समय अंतराल के बाद किसी ना किसी देश में आंतरिक विद्रोह की खबर और फिर उस विरोध में अमेरिका के हस्तक्षेप की खबर उठती है. कुछ समय पहले लीबिया के शासक गद्दाफी और इराक के तानाशाह सद्दाम को कुछ इसी रणनीति के तहत मौत के घाट उतारा गया था.


कहते हैं जिसके पास ताकत, पैसा और सही रणनीति हो वो कुछ भी कर सकता है और अमेरिका के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात हैं. ताकत और पैसे की तो अमेरिका के पास कोई कमी नहीं है रही बात रणनीति की तो जिस तरह वह अपनी सत्ता का विस्तार देश के बाहर कर रहा है उससे इस बात में भी कोई संदेह नहीं रहता कि अमेरिका के पास कमाल के रणनीतिज्ञ भी हैं.


जिस देश पर अमेरिका हमला करवाता है वहां कथित तानाशाही सरकार को उखाड़कर अपने मनचाहे प्यादों को तैनात कर दिया जाता है जिससे कि संयुक्त राष्ट्र संघ में या फिर अन्य किसी भी मौके पर संबंधित देश अमेरिका का गुणगान करें और उसके विरोध में अपनी आवाज उठा ही ना पाएं. लीबिया, इराक और अफगानिस्तान के बाद अब उसका निशाना सीरिया है. हैरानी की बात तो ये है कि शायद ही कोई ऐसा मुल्क हो जो अमेरिका की इस शातिर रणनीति से परिचित ना हो लेकिन खुद पर ही आंच ना गिर जाए इसलिए कोई भी अपनी आवाज उठाना नहीं चाहता. यह तो बस शुरुआत है. बढ़ते हौसलों की वजह से अमेरिका अगली बार किसे निशाना बनाता है यह बात देखनी होगी.


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