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आसमा थोड़ा और ऊपर उठ जाओ(कड़े घने मूंछों वाले कर्नल से पिता)

V2...Value and Vision
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हम में से बहुतों ने महान पंडित चाणक्य(कौटिल्य,विष्णुगुप्त) के नीतिशास्त्र को पढ़ा है.तीसरी शताब्दी के महान पंडित की कई बातें आज भी बेहद प्रासंगिक हैं,पर मैं कुछ बातों पर जब गौर करती हूँ तो वर्त्तमान परिपेक्ष्य में उससे सहमत नहीं हो पाती.father ‘s डे के अवसर पर ही मैं यह ब्लॉग सभी पिता को समर्पित करती हूँ,अगर किसी बात से असहमति हो तो स्वतंत्रतापूर्वक,बेहिचक अपनी राय रखियेगा क्योंकि मेरे लिए यह शोध का विषय बन चुका है.महान पंडित चाणक्य की निम्नलिखित उक्ति आज के परिवेश में किस हद तक स्वीकार्य है?दोस्ती की सही परिभाषा क्या है और पिता के नैतिक और जवाबदेही पूर्ण प्रतिमान पिता बनकर क्यों नहीं पूर्ण हो सकते,उन्हें दोस्ती के किन प्रतिमान को अपनी संतान के संग अपने संबंधों में लाना चाहिए ? इतिहास गवाह है कि राजा जनक ने एक पिता बनकर ही सीता सा आदर्श दिया.पंडित नेहरु ने इंदिरा जी को एक पिता बन कर ही मार्गदर्शन किया.
“Fondle a son until he is five years of age,use the stick for another ten years but when he has attained his 16th year treat him as a friend.
तत्कालीन समाज की जो संरचना थी उसमें से कई ने आज नयी करवट ले ली है,चाणक्य पितृसत्तात्मक समाज में यह बात रख रहे हैं ऐसा इसलिए मानती हूँ क्योंकि उनकी कई नीतियों में पुरुषसमाज के द्वारा स्त्री से की गयी अपेक्षाओं का वर्णन है पर कहीं पर भी यह वर्णन नहीं कि एक स्त्री पुरुष समाज से क्या अपेक्षा रखती है.तो ज़ाहिर सी बात है कि उपरोक्त पंक्ति भी (संतान से दोस्ताना समबन्ध )की अपेक्षा पितृसत्तात्मक समाज के पिता से ही की गयी है.
वह युग अत्यंत  अनुशासनात्मक था. चाणक्य स्वयं जिस विश्वविद्यालय (तक्षशिला)के विद्यार्थी और गुरु रह चुके थे वहां प्रवेश की पद्धति ही इतनी कठोर थी कि सात द्वारों पर प्रकांड पंडितों और विद्वानों के प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देकर अगले द्वार पर जाने की अनुमति मिलती थी.अधिकाँश विद्यार्थी घर से कोसों दूर बेहद अनुशासित परिवेश में विद्या ग्रहण करते थे.समाज में न्याय व्यवस्था इतनी कठोर थी कि गुनाह साबित हो जाने पर नाक-कान तक काट लेने की सज़ा का प्रावधान था.अब उस समाज में जहां चहुँ ओर कठोर अनुशासन था वहां घर ही एक ऐसी जगह थी जहां दोस्ताना सम्बन्ध के साथ कठोरता को कोमलता के साथ समन्वित किया जा सकता था.आज जहां वर्षों तक न्याय लटका रहता है,बचपन से ही स्वतंत्र परिवेश में हम सांस लेते हैं वहां इस अनुशासन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती.
आज आधुनिक युग में नयी तकनीक के साथ बच्चे अति संवेदनशील हो गए हैं स्वतन्त्रता किसी परिंदे से भी ज्यादा आजादी के साथ उड़ रही है.अब तो ८-१० वर्ष का बच्चा भी कठोर बात बर्दाश्त नहीं करता छडी क्या सहन करेगा?हाँ एक सुव्यवस्थित अनुशासन जो हर उम्र के हिसाब से सही हो सके वह ज़रूर रखना चाहिए.रबर ज्यादा कसेंगे तो एक हद तक आकार ले लेगा पर टूटने की संभावना ज्यादा है और अगर ढीला छोड़ दें तो उस रबर को कोई आकार ही नहीं मिलेगा .क्या एक मध्यमार्गी मार्ग एक पिता बन कर अपनी संतान को नहीं दिया जा सकता.?
चाणक्य एक जगह यह भी कहते है ” Wise men should always bring up their sons in various moral ways for children who have knowledge of nitishastra and are well behaved become a glory of the family”
यहाँ भी पुत्रों के ही परवरिश की बात हो रही है क्योंकि समाज(पितृसत्तात्मक) की संरचना बेहद कठोर थी.

जहां तक बात है १६ वर्ष की संतान की तो उस के पास दोस्ती के अनगिनत साधन मौजूद हैं,दोस्ती की परिभाषा नेट,मोबाइल एस.एम्.एस ने कब बदल दी एहसास ही नहीं हुआ.झंझावातों के दौर से गुज़रती यह १६ वर्ष की नाज़ुक उम्र जब कॉलेज के उन्मुक्त परिवेश में कदम रखती है तो इतनी आज़ादी और दोस्ताना संबंधों की धुंध से दिग्भ्रमित होने लगती है सत्य और कल्पना की विभाजन रेखा तो और भी धुंधली हो जाती है.ऐसे में एक घर ही ऐसी महफूज़ जगह है जहां से दिशासूचक यन्त्र की तरह पिता का अनुशासन उसे सही राह दिखाता है.मेरे दृष्टिकोण से इस खुबसूरत और संजीदे रिश्ते पर किसी और रिश्ते(दोस्ती) का लेप चढ़ाना कतई आवश्यक नहीं पिता बनकर उन समस्त संतुलित और प्रेमपूर्ण व्यवहार की पूर्ति आसानी से की जा सकती है.एक छोटा सा उदाहरण है कि एक आधुनिक पोशाक और साज-सज्जा से अलंकृत किशोरी को देख उसके दोस्त कह सकते हैं ‘”वाह!!लेटेस्ट ड्रेस !लेटेस्ट जुएलेरी !पर पिता की अनुभवी और सजग आँखें नख शिख निरीक्षण के बाद माता द्वारा पुत्री को अपने सख्त निर्णय से अवगत करा देंगी कि वह साज-सज्जा उस परिवेश के अनुकूल नहीं है जिसमें हम रहते हैं यह मॉडल और अभिनेत्री को ही शोभा दे सकता है.

माता-पिता का रिश्ता कई नैतिक प्रतिमान को स्वयं में समेटे हुए है इसे दोस्ती या अन्य रिश्ते से प्रतिस्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं वर्त्तमान परिदृश्य में तो कतई उचित नहीं.बस इस पवित्र रिश्ते जुड़े प्रतिमान और ज़िम्मेदारी को शिद्दत और पुरे संजीदगी से समझने की ज़रूरत है.

माता के असीम मुखर प्यार और पिता के खामोश अनुशासन की परवरिश में इतनी अनोखी शक्ति होती है कि संतान ता उम्र इस रिश्ते की मजबूत डोर से बंधा रहता है और यही उसे उनके प्रति प्यार,सम्मान के साथ उनका भी ख्याल रखने की दिशा निर्देशित करता है.दरअसल पिता की डांट-फटकार और अनुशासन को हम उनका कठोर तानाशाही रूप मान लेते हैं पर यह तो ठीक वैसा ही है जैसे एक माली द्वारा अपने लगाए पौधों की अवांछित पत्तियों और टहनियों को काटते-छाँटते रहना या फिर एक मूर्तिकार सदृश मूर्ति को तराशा जाना जिसमें छेनी की प्रहार भी अहम् भूमिका निभाती है.

आज जब मैं समाज में व्याप्त छल,फरेब,धोखे पर भी नज़र डालती हूँ तो एक बात स्पष्ट रूप से महसूस करती हूँ कि जिन घरों में पिता का अनुशासन होता है अवांछित तत्त्व उस घर की दहलीज़ छू भी नहीं पाते;लांघना तो बहुत दूर की बात है.

मुझे काले,,कड़े घनी मूंछों वाले अपने पापा किसी कर्नल की तरह लगते पर यह सख्ती सिर्फ हमारे सही पल्लवन के लिए थी जिसे आज इस मकाम पर समझना बहुत आसान है.मध्यमवर्गीय समाज का हिस्सा होने के कारण बेवज़ह की आजादी उन्हें कतई पसंद ना थी.उनका कहना था'”जो वक्त रचनात्मक कार्य में लगाया जा सकता है उसे दोस्ती-यारी में व्यर्थ क्यों करना?”अनावश्यक बहस उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आता था.समाज की उंच-नीच से वे हमें बेहद ही सांकेतिक रूप से सजग करते थे.जब मुझे घर से बाहर शिक्षा के लिए जाना था,पुरी गंभीरता से कही गयी एक सांकेतिक बात ज़ेहन में शिला पर लिखे लेख की तरह अंकित हो गयी.“बिटिया,समाज कितना भी आधुनिक बनने का ढोंग कर ले पर वह लड़कियों की इज्ज़त एक कांच की तरह ही समझता है जिसमें हल्की सी दरक भी आ जाए तो यह कांच उसके लिए बदसूरत और महत्वहीन हो जाता है. चरित्र की सुन्दरता किसी भी अन्य चीज़ से ज्यादा महत्वपूर्ण है.” उनकी संजीदगी और अनुशासन ने हम बहनों को बेहद जुझारू बना दिया था आज हम सभी सफलतापूर्वक अपने परिवार,समाज का अहम् हिस्सा बन जीवन के उतार-चढ़ाव में भी सफलतापूर्वक बढे जा रहे हैं.

अपने ससुराल में भी मैंने माता-पिता और संतान के बीच कोई दोस्ताना सम्बन्ध नहीं देखा पर एक सुव्यवस्थित अनुशासन अवश्य देखा जिसने पापा (ससुरजी)के तीन भाई के परिवार और स्वयं के पांच बहु-बेटों और उनके संतान को ऐसी एकता के सूत्र में बाँध रखा है जिसे तोड़ने का साहस भी कोई सदस्य नहीं कर सकता .भयवश नहीं मर्यादा और संस्कार के वशीभूत हो कर सभी ना केवल उस मजबूत सूत्र में बंधे हुए हैं बल्कि एक विश्वास भी है कि कितनी भी कठिनाई आये यह डोर कमज़ोर नहीं होने पाए..आज भी अगर हम बहुओं से कोई गलती हो जाए तो बड़े भाई दोस्ताना व्यवहार से नहीं अपितु एक अनुशासनात्मक रूप में समझाते है .जो सीधे मन पर असर करती है और मन अपनी गलती के लिए ग्लानि से भर जाता है इस कसम के साथ की जीवन में वह गलती फिर कभी नहीं होगी.
राजा जनक द्वारा सीताजी की परवरिश की संस्कारी खुशबू रामायण को सुवासित और अमर कर गयी,आधुनिक युग में पंडित नेहरु ने एक दोस्त नहीं बल्कि एक पिता बन कर इंदिराजी का मार्गदर्शन किया उनकी पुस्तक”पिता के पत्र पुत्री के नाम”इस बात का साक्षात उदाहरण हैं .
अगर दोस्ताना सम्बन्ध इतना महत्वपूर्ण है तो इतिहास के किसी भी पिता ने एक दोस्त बनकर मिसाल क्यों नहीं कायम किया?अपने और संतान के मध्य रिश्तों को दोस्ताना मानने वाले अभिभावकों से मेरे कुछ प्रश्न हैं——-

1  क्या अपनी संतान को सही-गलत का भेद समझने के लिए उन्होंने एक बार भी कठोर कदम नहीं उठाये?
2  क्या किसी महत्वपूर्ण मुद्दों पर इस सम्बन्ध के साथ बच्चों से की गयी बहस की कोई भी बात उन्हें नागवार नहीं गुज़री?
3  क्या वे दोस्तों की तरह ही उनके साथ पार्टी मनाना पसंद करेंगे और यदि हाँ तो क्या बच्चे सहज हो कर उनका साथ देने को तैयार हैं?

4  क्या इस सम्बन्ध के बाद अगर बच्चे खुल कर वर्त्तमान slang भाषा से कोई भी शब्द उनके सामने प्रयोग कर बैठे तो वे आसानी से हँस कर टाल जायेंगे?
आज मैं अपनी प्यारी बिटिया को माता का कोमल प्यार देती हूँ पर जब उसके भी कड़े घनी मूंछों वाले अनुशासित पिता को देखती हूँ तो बिटिया की व्यवहारिकता,आत्मविश्वास की वज़ह स्पष्ट हो जाती है और इस अनुशासन को मैं जायज़ मानती हूँ.मेरे अंतर्मन से एक ही आवाज़ आती है
“आसमा थोड़ा और ऊपर उठ जाओ
पिता के कठोर परों ने ली है परवाज़.”

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