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इतिहास में आस

V2...Value and Vision
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gandhiदोस्तों ,आज मैं विद्यालय की शिक्षा में “इतिहास विषय की शिक्षा” के तरफ आप सबका ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूँ.बचपन से एक चिर-परिचित पंक्ति सुनती आ रही हूँ :-

“इतिहास भूगोल बड़ी बेवफा ;रात को पढो ,दिन को सफा”

पर ऐसा मैं इसलिए नहीं मानती क्योंकि मैंने इतिहास पढ़ा है और अर्थशाश्त्र में मास्टर डिग्री लेने के बावजूद इतिहास विषय को तीन वर्षों तक बच्चों को पढ़ाया भी है.आज निशाजी के दो ब्लॉग मैंने पढ़े.एक पहले का ‘सरदार पटेल’ के विषय में लिखा गया था और दुसरा आज ही ‘बंकिम चंद ‘के वन्दे मातरम् गान के विषय पर.दोनों ही लेख बेहद सूचनापरक हैं.

.दो-तीन दिन पूर्व एक समाचार से अवगत हुई जिसमें CITY MONTESSARY स्कूल राजाजीपुरम ब्रांच (लखनऊ )की छठी कक्षा की छात्रा ऐश्वर्या पराशर ने सामाजिक अध्धयन विषय में महात्मा गांधी जी के विषय में जब पढ़ा कि उन्हें’ राष्ट्रपिता’ उपाधि से संबोधित किया जाता है तो उसके मस्तिष्क में सहज ही एक सवाल उठा “गांधीजी को किस वर्ष और किसने इस उपाधि से विभूषित किया?” उसने अपने माता-पिता से भी जानना चाहा,नेट पर भी ज़वाब खोजा पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया.उसकी माता उर्वशी पराशर ने उसे RTI के तहत जानकारी लेने की सलाह दी.

१३ फरवरी को उसने प्रधान मंत्री कार्यालय को पत्र लिखा.वहां इससे सम्बंधित कोई रिकॉर्ड नहीं था.यह प्रश्न Querry Ministry Of Home Affairs में गया जिन्होंने इसे National Archives Of India को भेजा .NAI की assistant director and central पब्लिक information ऑफिसर जैप्रभा रविन्द्रन के पास भी उत्तर ना था .उन्होंने ऐश्वर्या को इस प्रश्न का जवाब स्वयं ही खोजने के लिए archive आने की अनुमति दी है साथ ही इस विषय से सम्बंधित रेकॉर्ड्स मुहैय्या कराने की बात भी की है.

इस प्रश्न के ज़वाब में कई बातें ध्यान रखनी है जैसे :———-

* भारतीय संविधान की १८(१) में लिखा गया है “किसी भी व्यक्ति को शैक्षिक, सैन्य या अन्य इस तरह की उपाधि से नवाज़ा नहीं जाएगा.”अब यह तो स्पष्ट है कि राष्ट्रपिता की उपाधि भारत सरकार के तरफ से नहीं दी गयी है.

* यह उपाधि सर्वप्रथम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापूर रेडियो से ६ जुलाई १९४४ को अपने संबोधन में प्रयुक्त किया था जो इस प्रकार है

“Nobody would be more happy than ourselves if by any chance our countrymen at home should succeed in liberating themselves through their own efforts or any chance the British govt. accepts our “quit India”revolution and give effect to it.
‘Father Of Our Nation’ in the holy war for India’s liberation,we ask you your blessings and good wishes.

* गांधीजी के मृत्यु पर पंडित नेहरु जी ने रेडियो द्वारा राष्ट्र को संबोधित किया और कहा“राष्ट्रपिता अब नहीं रहे”.

* २८ अप्रैल १९४७ को सरोजिनी नाइडू जी ने गांधीजी को इस उपाधि से संबोधित किया था.

* २००४ में श्रीमान एल.के.आडवानी ने कहा “गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा जाता है पर सरकार ने औपचारिक रूप में ऐसी कोई उपाधि उन्हें नहीं दी है.

यह जिज्ञासा कोई नयी बात नहीं है .बच्चे जिज्ञासु होते हैं .दरअसल एक शिक्षक होने के नाते हम उनकी जिज्ञासा को कैसे सही उत्तर से शांत कर सकते हैं यह सोचने वाली बात है.Jorge Danison ने जब ‘फर्स्ट स्ट्रीट चिल्ड्रेन’नामक अपनी किताब लिखी तो एक सवाल किया था-“हम किन्हें पढ़ाते हैं”और इस प्रश्न का ज़वाब जब उन्हें ठीक से नहीं मिला तो उन्होंने स्वयं ज़वाब दिया था कि अधिकाँश शिक्षक अधिकाँश समय तो सिर्फ पाठों को ही पढ़ाते हैं,वे बच्चों को कहाँ पढ़ाते हैं”इस बात को मैं इतिहास की एक कक्षा के माध्यम से स्पष्ट करती हूँ .

मैं आठवीं कक्षा में मध्ययुगीन इतिहास पढ़ाने के क्रम में उस दिन ‘रज़िया सुलतान ‘के विषय में बताना शुरू करती हूँ.अचानक एक छात्रा ने प्रश्न पूछने की अनुमति ली.मुझे अच्छा महसूस हुआ क्योंकि मेरी आकांक्षा ही शुरू से थी बच्चे ३ R ‘s (reading , writing ,arithmetic )के अलावा reason ,responsibility ,rights ,relations ,recreation ,जैसे अन्य R ‘s को भी समझें.उसका प्रश्न था,“हम विद्यार्थी रजिया सुलतान के विषय में आज के युग में क्यों पढ़ें?वह कैसे प्रासंगिक है? मैंने उनकी जिज्ञासा शांत की और कहा जब उनके व्यक्तित्व से परिचित होगी तो खुraziaद ही समझ जाओगी कि वह किस तरह प्रासंगिक है.फिर रज़िया के विषय को मैंने एक प्रेरणा के रूप में उनके समक्ष रखा .वह किस तरह पुरुष प्रधान युग में ,दक्षिण एशिया की पहली महिला शाषक बनी.आज मुस्लिम समुदाय जिस पर्दा प्रथा की जकड़न में है उसे सन १२३६ में ही उसने नकार दिया था ;दरबार हो या युद्ध का मैदान वह मर्दों की वेश-भूषा में ही जाती थी.उसके कुशाग्रबुद्धि,कुशल नेतृत्व के गुणों को देखकर पिता इल्तुतमिश ने बेटों की जगह उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया.मैंने रज़िया को आज के युग से जोड़कर प्रस्तुत किया सभी छात्राएं अत्यंत संतुष्ट हुईं.

अब छात्र कैसे शांत बैठ सकते थे.बच्चों को वैसे भी लीक से हटकर प्रश्न रखना बहुत भाता है.जब आधुनिक भारत के अध्याय शुरू हुए और १९१५ से १९४७ तक गान्धीयुगीन भारत की कक्षा चल रही थी,एक छात्र ने प्रश्न रखा,“सब कहते हैं कि गांधीजी शान्ति के मसीहा थे फिर आप यह बताइये उन्हें अब तक शान्ति का नोबल पुरस्कार क्यों नहीं दिया गया?”यह प्रश्न सच में विचारणीय था .

शान्ति और अहिंसा के लिए पूरा विश्व गांधीजी को याद करता है,उनके शान्ति सिद्धांतों पर चलकर किंग मार्टिन लूथर ,दलाई लामा,नेल्सन मंडेला और आन-सां-सु ने शान्ति का नोबल पुरस्कार प्राप्त किया है फिर वे ही इस पुरस्कार से वंचित क्यों रह गए?हालांकि इस पुरस्कार के ना मिलने से उनकी छवि धूमिल हो रही है ऐसी कोई बात नहीं पर बच्चों की जिज्ञासा का क्या करती?

मैंने उसे से दो दिनों का वक्त चाहा,उसने क्या सारे विद्यार्थियों ने कहा “mam ,आप टाल मत जाना”मैंने उन्हें आश्वासन दिया पर ज़वाब क्या दूंगी यही सोचती रही.कुछ दिनों पहले ही महात्मा गांधी जी पर एक लेख तैयार किया था जिसमें श्रीमान ‘अशोक रहाटगांवकर’जी की बहस के कुछ अंश जो एक अखबार में प्रकाशित हुए थे, उधृत किये थे और दो दिन बाद उस बहस की मदद से मैंने बच्चों की जिज्ञासा शांत की.

इसमें एक जगह अशोकजी ने प्रोफेसर जेकब कर्म मुलर के विचार रखे हैं कि जब १९३७ में गांधीजी का नाम इस पुरस्कार के लिए विचार में लिया गया तो कमिटी के एक सदस्य ने कुछ कारण गिनाये थे “गांधीजी उद्दात विचारों के सद्गृहस्थ थे इसमें कोई दो मत हो ही नहीं सकते.परन्तु वे एक ही समय पर कई भूमिकाएं अदा करते हैं.कभी वे एक ओर हुक्मशाह बनते हैं तो दुसरी ओर स्वतन्त्रता सैनिक बन खड़े होते हैं. ध्येयवादी बनते हैं तो दुसरी तरफ राष्ट्रवादी.कभी वे अहिंसा के पुजारी बन जाते हैं तो कभी सामान्य राजनीतिज्ञ.यही वज़ह है कि उनकी परिवर्तित भूमिकाओं के कारण ही उनके चयन में बाधा आती गई”

गांधीजी के जीतेजी यह पुरस्कार उन्हें मिल सकता था पर उस समय स्वीडन (नोब्ले पुरस्कार का सम्बन्ध स्वीडन की राजधानी स्टोकहोम के.निवासी अल्फ्रेड नोब्ले से है)ब्रिटेन का मित्र राष्ट्र था ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ गांधीजी के विरोध को ध्यान में रखते हुए वह नहीं चाहता था कि ब्रिटेन उससे नाराज़ हो इसलिए उसने कई बार यह विचार आने पर भी टाल दिया.

पुरे आलेख का सार यह है कि अगर बच्चों को सही शिक्षा देनी है तो ज्ञान जो अनंत और अपार जगह-जगह बिखरा पडा है उसे शिक्षक को स्वयं तो खोजना ही है पर बच्चों में भी खोज की वृति जगानी है सब कुछ पाठ्यक्रम और पुस्कों में दे देने से बच्चा सीखेगा,इस मानसिकता को बदलना होगा.

गांधीजी तो चाहते थे सीखना यानी स्वयं में और समाज में परिवर्तन कर देना पर वह हुनर ओर साहस हम कहाँ सीखा पाते हैं .परीक्षा में ऊँची श्रेणी हासिल करना,नौकरी पाना ही तो शिक्षा का लक्ष्य रह गया है .

ऐसे में बच्चों के सहज पर झिन्झोरने वाले प्रश्न खोज की प्रवृति को नयी दिशा देते हैं और “इतिहास में आस “जगाते हैं.

(साभार नेट और अशोकजी के प्रकाशित बहस के कुछ अंश )

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