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“जब तुम नन्हे परिंदे से थे “

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SDC13469आज’ दैनिक जागरण ‘अखबार की एक खबर ने मुझे बहुत ही व्यथित कर दिया.९२ वर्षीया माता ने अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक से शिकायत कर न्याय की गुहार लगाईं है ताकि बेटे और उसके परिवार का उसके प्रति अत्याचार बंद हो सके.सांध्य बेला की इस पीड़ा को पहले भी मेरी लेखनी मेरे ब्लॉग “शाम तो ज़रूर आयेगी” के नाम से व्यक्त कर चुकी है.फिर भी आज मैं इस पीड़ा को ‘माँ की ममता ‘ के परिप्रेक्ष्य से आप सबों के समक्ष रखने जा रही हूँ.ऐसे बच्चे जो अध्ययन या जीविकोपार्जन के उद्देश्य से माता से दूर हैं या फिर जिनकी माता अपनी सांध्य बेला में उनके संग रह रही हैं ;वे एक बार इस रिश्ते की गहराई को पुनः समझने की कोशिश करें.

बढे जा रहा हूँ आगे कैसे ,नहीं कुछ मुझे खबर है
सब कहते हैं ये तेरी माँ की दुआओं का असर है

एक बहु-बेटे से उनके पड़ोसियों ने पूछा “क्या आपकी माताजी आपके साथ रहती हैं ?”सुशिक्षित,सुसंस्कृत बहु-बेटे ने ज़वाब दिया,“नहीं,हम अपनी माताजी के साथ रहते हैं” कितना गहरा अर्थ समेटे था यह ज़वाब ! ‘माँ’ शब्द स्वयं में ही ममता का सागर है’ इसकी गहराई कौन माप पाया है ? जहाँ जैविक तौर पर कुदरत भी पुत्र-पुत्री में भेद कर जाती है ;समाज तो बहुत दूर की बात है,वहीँ माँ तो उसे बस एक नाम से जानती है और वह है , “संतान” जिसके जन्म के पूर्व ही ममता का अथाह सागर उसके अन्दर हिलोरें भरने लगता है.माता बनकर तो एक स्त्री इस भाव से अवश्य ही अवगत हो जाती है; फिर बहु बनकर वह अपने पति को उस ममता की छाँव से दूर रखने की कोशिश क्यों करती है ?उन पुत्रों से भी मेरा एक प्रश्न है “ओ आकाश की उंचाइयां मापने वाले परिंदों !वो दिन भी ज़रा याद क्यों नहीं कर लेते ;ज़ब तुम नन्हे से परिंदे थे ;तुम्हारे पंखों में तनिक भी जान ना थी; तब उसे परवाज़ किसने दिया था ?तुम्हारी हंसी तुम्हारी माँ के अधरों की मुस्कान थी और तुम्हारा रुदन उसकी आँखों के मोती..?”

एक बेहद प्रासंगिक शेर याद आता है,किसने लिखा है यह तो नहीं याद आ रहा ……

“वो लम्हा ज़ब मेरे बच्चे ने माँ पुकारा मुझे
एक शाख से कितना घना दरख़्त हुई मैं”

अभी इसी १ अप्रैल की बात है ;मैंने हॉस्टल में रहने वाली अपनी बिटिया को फ़ोन किया तो उसकी आवाज़ भर्राई सी थी .मैंने कहा,”कल रात स्वप्न में देखा कि तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है.क्या तुम सच में बीमार हो?”उसने कहा,”हाँ माँ,मुझे ज्वर सा लग रहा है .” इतना सुनते ही मैंने अपनी माँ से सीखे नुस्खों की पिटारी से कुछ अभी निकालना शुरू ही किया था कि उसने हँसते हुए कहा,”माँ , मैं बीमार नहीं हूँ ;मैंने तुम्हे आज अप्रैल फुल बना दिया “पर माँ तो कोसों दूर बैठे बच्चे की आवाज़ से ही समझ जाती है कि उसकी संतान किस हालात में है.खैर अगले दिन उससे मिलने गयी देखा वो सच में ज्वर में थी.

माँ बनकर इस ममता को समझना आसान हो जाता है .कुदरत का यह नियम है कि “माँ अपने बच्चे को जितना प्यार करती है उतना प्यार वह बच्चा अपनी माँ से नहीं करता पर अपनी औलाद से अवश्य करता है.”पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि वह माता पर अत्याचार के बाण का प्रयोग कर उसके स्नेह ,प्यार और त्याग का स्रोत ही सुखा दे और माँ इतना विवश हो जाए कि उसे पुलिस और अदालत की शरण लेनी पड़े….

वर्त्तमान नैतिकता के अवमूल्यन का यह एक बेहद शर्मनाक उदाहरण है.माँ बड़े अरमान से बच्चों को बड़ा करती है,उसकी खुशी उन्हें एक सफल इंसान बनाने में होती है. उसकी डांट-फटकार का लक्ष्य  भी सिर्फ शिल्पकार की छैनी सदृश बच्चे की मूर्ति को तराशने के उद्देश्य से इस्तेमाल करना होता है. संतान के धन-दौलत से उसे कुछ लेना-देना नहीं होता.उसके त्याग का मोल संतान कभी चुका नहीं सकते और ना ही वह कभी ऐसी अपेक्षा रखती है. फिर यह अत्याचार क्यों ?क्या हर दिन सांध्य बेला में ,हर घर में,बहु-बेटे के द्वारा, ईश्वर के समक्ष जलाए दीप में इतना भी घी नहीं होता कि वह इन माताओं की सांध्य बेला को भी रोशन कर सके?

माँ की पीड़ा माँ की जुबानी-

(पाठकों इसी सप्ताह मेरी बिटिया का जन्म दिवस है और हर माँ की तरह मैं भी उस दिन को अपने जीवन का महत्वपूर्ण दिवस मानती हूँ और वह इस सन्दर्भ में भी भाग्यशाली है कि उसके जन्म पर ढोल की थाप और सोहर से उसका स्वागत किया गया था जो अमूमन उत्तर भारत में बेटे के जन्म पर होता है ).

एक नहीं,दो नहीं,पुरी पांच ;कहानियों से भी तुझे ना होता था संतोष

कैसे सोती होगी अब बिटिया मेरी,सोचती रह जाती मैं मन मसोस

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आत्मविश्वास से भरपूर भोली सी,पुरी तैयारी से स्कूल को जाना,

थकी-हारी पर फिर भी मुस्काती,वो वापिस फिर तेरा घर को आना

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मेरे आगे-पीछे,बुलबुल सी चहकती,भोजन की तू करती फरमाइश,shore bird

हर जार,हर डिब्बों में बंद भोजन की,बिन थके मैं करती थी नुमाइश

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फिर अपनी पसंद का भोजन चुन,प्यारी सुंदर चिड़िया सी उसे चुगना,

क्यों भेजा स्वयं से दूर ओह!तुझे अभी आता भी ना था ठीक से उड़ना

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दिवस तो कट जाता है बिटिया ,पर निशा होते ही तू बहुत याद आती ,

नैना मेरे हैं झम-झम बरसते,नींद सदा मुझसे कोसों दूर भाग जाती.

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प्रभु के सहारे हर बार ही तो बिटिया तुझे ,पूछो ना मैं कैसे छोड़ हूँ आती ,

तेरे बिन उन पहचानी राहों में गुमसुम सी ,जीवन अपना मैं मोड़ हूँ आती .

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सब कुछ सह लूंगी यही ठान कर ,ज़ब-ज़ब हूँ वापिस अपने घर आती ,

हर कोने से छुपी तेरी यादें आ बाहर,हैं मायूस और ग़मगीन कर जाती.

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घोंसले में बैठी वो माँ चिड़िया,बड़े प्यार से जिन अण्डों को सेती है,

उड़ान सीखाने को घोंसलों से,अपने ही परिंदों को धकेल वो देती है.

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इसी सच्चाई के साथ ज़िन्दगी नित्य,नयी राह और नए मोड़ लेती है.

बेटियां कितनी सहजता से स्वयं को,हमेशा नयेपन से जोड़ लेती हैं .

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आंसू के हर मोती पिरो-पिरो कर,माला मेरी रानी बिटिया बनाएगी,

सफल हो कर अपनी ज़िन्दगी में,मुस्कान मेरे अधरों की लौटाएगी.

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