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दरिया हूँ;अपना हुनर मालूम है..

V2...Value and Vision
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SDC13931“दरिया हूँ,हमें अपना हुनर बखूब मालूम है

जिस तरफ भी निकलूंगी रास्ता हो जाएगा ”

पाठकों,इस मशहूर शेर से यह निष्कर्ष न निकाल लीजियेगा कि यमुना आत्ममुग्धता या आत्मप्रशंसा के बहाव में है.यह ब्लॉग मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों को अनुभव करने और परिस्थिति समय ,स्थान के अनुसार उसे प्रयुक्त करने की चर्चा भर है.

शुरुआत एक घटना से करती हूँ.एक बड़े कंपनी के कर्मचारियों को एक दिन मेल मिला जिसमें उन्हें एक शोक सभा में शामिल होने की सूचना दी गई थी.श्रद्धांजलि देने के लिए एक-एक कर एक कमरे में जाना था जहां परदे के पीछे मृत व्यक्ति की तस्वीर लगी होने की बात बताई गई थी.साथ ही यह बताया गया था कि मृत व्यक्ति उनकी तरक्की में बड़ा बाधक था.कर्मचारियों के बीच इस मेल के लिए उत्सुकता,खुशी,दुःख की मिश्रित प्रतिक्रिया थी.सभी नियत समय पर बताए गए स्थान पर बने कमरे में एक-एक कर जाते.दीवार पर लगी तस्वीर पर माला चढाने के क्रम में बस अवाक रह जाते क्योंकि तस्वीर की जगह एक आईना (दर्पण)लगा था जिसमें खुद का ही प्रतिबिम्ब नज़र आता था.जब सभी कर्मचारी एक-एक कर बाहर एकत्र हुए तब बौस ने उन्हें संबोधित किया,”मेरे प्रिय साथियों,आप सभी ने अपनी-अपनी नकारात्मकता को श्रद्धांजलि दे दी है और आपके इस नए रूप का मैं स्वागत करता हूँ.”
1) यह घटना इस बात की परिचायक है कि दुनिया में हमारा सबसे बड़ा दुश्मन स्वयं के नकारात्मक विचार और स्वयं द्वारा पाली गई कमजोरियां हैं.

2) अब हम सब वह हर पल याद करें जब हमें काम करने के सिर्फ आदेश मिले थे उसे किस तरह करना है यह नहीं बताया गया था.हम सभी ने अपनी शक्ति,क्षमता,हुनर से उस काम को अंज़ाम दिया होगा; कुछ ने तो आश्चर्यजनक प्रतिभा के साथ कुछ अनोखा भी कर दिया होगा.यह सहजता,जिम्मेदारी और जवाबदेही की त्रिवेणी में डुबकी लगा कर ही संभव हो पाता है.उस हर पल के लिए हम सब बधाई के पात्र हैं.

उन चट्टानों से अपने ही कगारों और तटों को उर्वर बना कर बाधाओं से भी सृजन करने का सन्देश दे जाती है.

बस आत्मशोधन और धैर्य के स्वभावगत बहाव से हमें भी पत्थरों को मृदा कण बनाना होगा ताकि उर्वर व्यक्तित्व का निर्माण हो सके.यह स्वनिर्माण ही अनजाने ही समाज हित में तब्दील हो जाता है.

5) अगर किसी कार्य में पूरी शक्ति झोकने के बाद भी असफलता और आलोचना मिले या लोग हमें नकारने लगे तो आत्मविश्लेषण करना है क्योंकि लोग हमें नहीं, हमारे कार्य-व्यवहार को नकार रहे होते हैं.फिर अगर आत्मविश्लेषण और तदानुसार आत्मशोधन के बाद भी लगातार आलोचना के बाणों की बौछार हो रही हो तो हम इसे शान्ति से स्वीकार करें. लिंकन जब राष्ट्रपति बने तब भी लोग उनकी आलोचना करते थे.उन्होंने शांत होकर कहा,”कोई भी आदमी चाहे वह राष्ट्रपति ही क्यों न हो प्रत्येक की नज़र में अच्छा नहीं हो सकता,परन्तु किसी न किसी को तो राष्ट्रपति बनना ही है.”

6) हम जैसे भी हों,उस स्वाभाविक रूप का आत्मस्वीकार और उस रूप का सर्वोत्तम विकास ही ध्येय होना चाहिए.चलने फिरने में पूर्णतः असफल एक व्यक्ति से राहगीर ने पूछा,”तुम्हारी ऐसी हालत कब से है ?तुम्हे अपनी ज़िंदगी से शिकायत है ?तुम्हारी देखभाल कौन करता है.?”उस व्यक्ति ने सहज,संतुलित पर गूढ़ उत्तर दिया,”मैंने इसी हालत में जन्म लिया था,मेरी देखभाल माँ और प्रभु करते हैं.और हाँ,क्या आपको कभी यह सोच कर परेशानी नहीं होती कि आपके पंख होते तो अच्छा था; कम से कम हवाई जहाज में बैठ कर न उड़ना होता स्वयं ही उड़ पाते .ज़नाब,यह अपने-अपने सोच की बात है कि हम स्वयं को अपूर्णता में भी सम्पूर्णता के मधुर गान की तरह स्वीकृत करते हैं या फिर सम्पूर्णता में अपूर्णता के करुण क्रंदन के साथ ?”

7) जिस स्थान पर भी हम रहे वहां उपलब्ध समय और साधनों का विवेकपूर्ण ढंग से सर्वोत्तम उपयोग करें एक मृग की कस्तूरी के सुवास सदृश विस्तार पाएं पर स्मरणीय यह रहे कि उस सुवास के स्वामित्व का हमें इल्म या अहंकार ना हो. सफलता मिलने पर अगर संशय,अहंकार भ्रम ने स्थान ले लिया तो सफलता अपूर्ण हो सकती है.शिव जी की प्रथम पत्नी सती की तर्कबुद्धि के कारण शिव के साथ होते हुए भी उनका राम कथा ठीक से सुन पाना इस बात का एक उदाहरण है.

8) कुछ लोगों का मानना है“सर पत्थर से भी टकराओ ताकि कुछ आवाज़ तो हो” मेरा मानना है कि आवाज़ सुनने और सुनाने के जुनून में अपने-अपने सर को क्यों लहूलुहान करना ? अगर सत्ता,शक्ति,या कुछ अन्य अपरिहार्य वज़हों से परिवर्तन लाने के आसार ना दीखाई पड़ें तो स्थान,परिस्थिति,समय,व्यक्ति कैसे भी हों उनकी प्रकृति और नजाकत को समझ कर कभी-कभी सामंजस्य बिठा लेना भी ज्ञान का सही व्यवहारिक प्रयोग है.दरिया जिन चट्टानों को नहीं काट पाती उन से परे अपना नया घुमावदार बहाव पथ बना कर आगे अपनी मंजिल की तरफ बढ़ जाती है,उनसे टकराते रहने में वक्त जाया(waste) नहीं करती है.१२ वर्ष के वनवास के बाद १ वर्ष का अज्ञातवास  पांडवों के लिए चुनौती से कम न था पर अपने मौलिक परिवेश से परे उन्होंने कृत्रिम रूप रचा.विराट नरेश के यहाँ युधिस्ठिर कंक नामक ब्राहमण बने,भीम बल्लभ रसोइया,अर्जुन ने वृहन्नला बन राजकुमारी उत्तरा का गुरुपद सम्हाला तो नकुल ने ग्रंथिक के रूप में कोचवान की जिम्मेदारी ली,सहदेव अरिष्टनेमी के रूप में मवेशियों की देखभाल के लिए नियुक्त हुए,द्रौपदी सैरंध्री बन रानी की दासी नियुक्त हुई.इस तरह वनवास और अज्ञातवास दोनों को ही स्वीकार किया .

9) कोई व्यक्ति या स्थान छोटा-बड़ा नहीं है बस अपने आप में महत्वपूर्ण है .गुलाब का छोटा सा पौधा अपनी सम्पूर्णता के साथ प्रकृति में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना एक वट का विशाल वृक्ष एक अपनी खुशबू से तो दूसरा अपनी ठंडी छाया से प्रकृति को उपकृत कर रहा है.

10) अगर अकेले भी हैं तो उस खालीपन को भी अपने शौक से भर देना है कोई भी रुचिकर कार्य बागवानी,चित्रकारी,लेखन,नृत्य,संगीत में तल्लीन होना और जीवन के उत्साह को बनाए रखना ज़रूरी है.अपनी पारिवारिक और सामाजिक उपयोगिता बनाए रखना आवश्यक है.खाने के पत्तल भी भले ही कूड़े में फेंक दिए जाएं पर एक बार तो अपने अस्तित्व का मकसद पूरा कर ही लेते हैं.

11) सामाजिक जीवन को मैं इसलिए महत्वपूर्ण मानती हूँ क्योंकि लोगों से मिलने-जुलने से ही मन,वचन और कर्म के संयमित होने की परीक्षा हो पाती है.यहाँ मैं जिम दोर्नैन के सूत्र वाक्य “A Short Course In Human Relations” की याद दिलाती हूँ जो लोगों से व्यवहार करते समय की प्राथमिकता याद दिलाता है :-
सबसे महत्वहीन शब्द ———————————————————मैं
सबसे महत्वपूर्ण शब्द———————————————————-हम
सबसे महत्वपूर्ण दो शब्द——————————————————-आपका धन्यवाद
सबसे महत्वपूर्ण तीन शब्द—————————————————–सब माफ़ किया
सबसे महत्वपूर्ण चार शब्द—————————————————–आपका क्या विचार है
सबसे महत्वपूर्ण पांच शब्द—————————————————–आपने बहुत अच्छा काम किया
सबसे महत्वपूर्ण छः शब्द——————————————————मैं आपको बेहतर समझना चाहता हूँ.

12) पहाड़ों से निकलती दरिया अपने शैशवास्था में जो चंचलता रखती है, मैदानों में आकर अपने युवावस्था में गाम्भीर्य और परिपक्वता रखती हुई अपने मुहाने के प्रोढ़ावस्था में अत्यंत धीर-गंभीर हो जाती है.यह इस बात की शिक्षा है कि हमारा व्यवहार उम्र या आयु के अनुसार (gracefully  ) ही समाज में अपेक्षित है. इस बात का ध्यान न रखने पर हम हास्यास्पद साबित होते हुए समाज द्वारा नकार दिए जाते हैं.

अंत में इतना ही कहना चाहूंगी कि ज़िंदगी मूलभूत मानवीय मूल्यों के साथ-साथ अपने नैतिक मूल्यों और स्वभावगत उसूलों के साथ जीने का नाम है.इन मूल्यों की शक्ति हमें कहीं और किसी भी गलत व्यवहार से पराजित होने नहीं देती. अगर जीवन की हरियाली शुष्क होने लगे,कुदरत की नाराज़गी हम पर बरसने वाली हो फिर भी ईश्वर से यही प्रार्थना रहे कि हमारे होठों पर मुस्कान की हल्की ही सही पर एक उजली रेखा सदैव विद्यमान रहे.

मेरे प्रिय पाठकों, दरिया समंदर में मिलकर भले ही एकाकार हो जाती हो पर उसके बहाव पथ को दुनिया हमेशा याद रखती है क्योंकि वह अपनी इस यात्रा में हारती नहीं बल्कि सारी बाधाओं से नए सृजन कर ,कुदरत को उपकृत कर जाती है.इस दरिया के पानी की और खास बात यह भी है कि जिस पात्र में डालो उसी का रूप ज़रूर ले लेती है पर यह आत्मसमर्पण नहीं बल्कि उसका यह लचीलापन अपने मौलिकता को बरकरार रखते हुए अन्य के स्वभाव के साथ सामंजस्य बिठाने की उदारता का द्योतक है.

एक प्रसिद्ध कवि की पंक्तियाँ लिख रही हूँ …………..

इस तरह चल कि तुझ पर लक्ष्य को अभिमान हो
पद चिन्ह का फिर बाद तेरे दीप सा सम्मान हो…..

wishing good luck to all.
happy navraatri

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