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निस्तब्धता को भंग करती वो सिसकियाँ

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“मृत्यु से कहो,कब,कहां,किसकी कभी रही यारी है
आज जो चली गई मैं तो कल तुम्हारी भी बारी है.”

जीवन को जीने की शैली और विवेकशीलता से हमारे स्वास्थय का सीधा सम्बन्ध होता है.फिर भी बीमारी ,दुर्घटना या यूँ कहें मृत्यु का भी सामना हम सब को करना ही पड़ता है.हमारी गतिविधि जीवन को भरपूर जीने और मृत्यु से बचने का जितना भी उपक्रम कर ले पर यह सत्य है कि तर्क शक्ति,ज्ञान-विज्ञान से लबरेज़ मानव मृत्यु के समक्ष आज भी उतना ही लाचार है जितना सभ्यता के प्रथम चरण पर था.एक डॉक्टर के लिए मौत उतनी ही निश्चित है जितनी एक मरीज़ के लिए है.
एक तरफ पुनर्जन्म और सात जन्मों के साथ की अवधारणा है तो दूसरी तरफ ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा के ज़ज्बे ,जिसने हमें दो बेहद विपरीत दिशाओं में ज़िंदगी जीने की राह दिखाई है.पहली धारणा अगले जन्म में दुःख,कष्ट ना भोगने के मोह में जहां हमें सात्विकता की ओर उन्मुख करती है तो दूसरी अवधारणा जब ज़िंदगी इसी एक जन्म में है तो जी भर भोग लिया जाए के बोध के साथ लोभ-लिप्सा.लुट-खसोट,भोगवादिता की ओर ले जाती है.ये वैसा ही है जैसे कुदरत में श्वेत और श्याम के बीच कई रंग बिखरे हैं पर चयन हमारा कि हमारे विवेक की कूची उन रंगों में से किन का चयन कर समाज के कैनवास को सजीवता से भरना चाहती है.

मृत्यु निश्चित है,इसे स्वीकार करना ही होगा.अपनी मृत्यु से ही ज्यादा अपनों के बिछोह का भय बेचैन करता है शायद यह आत्मीयता का मोहपाश होता है.पर इस सत्य में एक ही बात सांत्वना दे सकती है,वह कि हमारे आचार-विचार,व्यवहार ना हमारे लिए और ना ही दूसरों के लिए गलत या पीड़ादायक हों.सबके साथ सुन्दरता से जीवन जीने की शैली उनके मृत्यु के बाद हमें क्षोभ,ग्लानि और पश्चाताप से नहीं भरती बल्कि इस दुःख से परिपूर्ण माहौल में भी एक असीम शांति देती है कि जब तक हम उसके साथ रहे या वह हमारे साथ रहा हमने एक-दूसरे का पूरा ख्याल रखा,हमने बगैर शिकवे शिकायत के अपने जीवन लीला के किरदार बखूबी निभाए,.यही भाव जीवन और मृत्यु को निरपेक्ष भाव से देखने योग्य बनाता है. शेष सभी उपक्रम और गतिविधियाँ बेमानी हैं.इसलिए
मैंने यह कविता चार दिन पूर्व ही लिखी है.उम्र के इस पड़ाव में आकर अपने अनुभव के निचोड़ से मुझे यही कुछ अमृत बूंद मिले हैं जो मरने के बाद भी हम सब को जीवन देते हैं .बस………आज इतना ही.

रात्रि की इस पूर्ण निस्तब्धता में
हर वह दिल हाहाकार करता है,
जिसका अपना बेहद ही करीबी
उससे दूर कहीं अन्यत्र बसता है.
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रात्रि की कालिमा बेहद गहरी
उतरती उसके रूह में जाती है,
जिसकी प्यारी अनमोल छवि
क्रूर मृत्यु,अपने संग ले जाती है.
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इस नीरवता को भंग करता
दिल जार-जार बिलखता है,
निगाहें कहीं शून्य को घूरती
अंतर्मन में सैलाब उमड़ता है.
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दिन की आपाधापी में उसकी
छवि कठोर ज़मीं सी होती है,
पर कौन जाने उसके अन्दर
कसक इतनी  भरी होती है.
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लोरियां,कहानियां,थपकियाँ
सब बेअसर सी हुई जाती हैं,
उन सुरमई आँखों की नींदें
स्याह रजनी में डुबी जाती है.
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जो नयन निर्जल हैं दिन में उनके
दुखों का अंदाज़ा कौन लगाए ?
निशा की निस्तब्धता भंग करते
इस शोर को शांत कौन कराए ?
………………………….
ऐसे कई ग़मज़दा निज व्यथा से
मोमबत्ती बन पिघल रहे कोने में,
किसकी आहट पर यूँ चौंक रहे
किसका भान है उनके ना होने में.
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सुनो,सदा,राह से भटके,पथिको !
किस खोज में आज त्रस्त हो रहे?
मृत्यु के सत्य से यूँ मुख मोड़ कर
सत्तासीन,शक्ति बीच मस्त हो रहे.
…………………………..
किसके लिए तिजोरियां अपनी
भरने पर तुम सब अमादा हो?
कौन भोगेगा, क्या ले जाओगे
पास तुम्हारे कम या ज्यादा हो.
…………………………………
उठो,जागो  कि रात की नीरवता
किसी की सिसकी से भंग हो रही,

दिवस की तेज़ रोशनी भी देखो
रोज़ काली निशा में मंद हो रही.
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मत करो दंभ ,निज शक्ति का तुम
ना सत्ता का यूँ कभी गुमान करो,
डरो आह से ,उन अभावग्रस्तों के
इस सूनेपन का तुम भी भान करो.
………………………………..
ना करो अति ,मान अमर स्वयं को
सब के नयन इस रजनी में सजल हैं,
निस्तब्धता को चीरती सिसकियाँ
कहती, मृत्यु के पहरे पल-पल हैं.

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