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रोशन हैं;दो घर तुझसे(jagran junction forum )

V2...Value and Vision
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इस अनुपम मंच (जे.जे) के मुख पृष्ट(home page) खुलने के साथ एक शीर्षक कई दिनों से मुझे झकझोर रहा है,आज इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर मैंने अपनी लेखनी की स्याही को अविरल बहाना चाहा है. पाठकों वह शीर्षक है “क्या बेटियाँ पराई होती हैं”

यह शीर्षक जब-जब दिखाई दिया,ज़ेहन में बचपन से अब तक समाई कई गीतों की स्वर लहरियां हिलोरें लेने लगी.जिनमें बेहद ही सुरीले अंदाज़ में बेटियों के पराये होने की बात कही गयी है.

१- बहन पराया धन है कहना,उसको सदा नहीं रहना,बहना याद करे……

२- बाबुल तेरे अंगना की मैं हूँ ऐसी चिड़िया रे,रात भर बसेरा है सुबह उड़ जाना है…..

३- इन अंखियों की तू है मोती…..बेटी सदा ही पराई होती……

४- ये गलियाँ,ये चौबारा ,यहाँ आना ना दोबारा ,अब हम तो भये परदेशी….

ऐसे गीतों की लम्बी फेहरिस्त है.अब जब बचपन से ये परायेपन की घुट्टी ताल मिश्री की तरह पिलाई जाए तो बेटियाँ भी भला क्या करें?वे भी मान बैठती हैं कि उनका कोई अपना घर है ही नहीं.पर मैं समझती हूँ कि बेटियों की परवरिश के दौरान परायेपन का टैग लगाकर अभिभावक बहुत गलत करते हैं. अनजाने में ही वे सम्पूर्णता के साथ अपनेपन का भाव लेकर बेटियों के परिवार से जुड़ने की प्रवाहमयी सरिता पर खुद ही बाँध बना देते है और फिर इस बाँध की दीवारें तोड़ने का साहस वे इस भय से नहीं करती कि कहीं तबाही ना आ जाए .यहाँ तक कि उसकी विदाई के वक्त घिसी- पिटी सी नसीहत दोहराई जाती है'”अब तुम्हारा घर वही है जहां डोली जा रही है अर्थी भी वहीँ से उठनी चाहिए.बेटी, तुम जिनकी अमानत थी हमने तुम्हे उनको सौंप दिया है”
हाँ इस उपरोक्त सन्देश में यह भाव भी छुपा होता है कि जहां हम तुम्हे भेज रहे हैं वह भी तुम्हारा अपना घर है . इस घर की तरह वहां भी तुम्हे बहुत प्यार ,दुलार और एक मजबूत संरक्षण मिलेगा.
पर अमानत को लेने वाले सभ्य और सुसंस्कृत हुए तो बिटिया के भाग्य जग गए और अगर बदकिस्मती से वे लोभी,लालची हुए तो फिर फूल सी बिटिया उस वीराने में कैसे खिली रह पायेगी???????इस बात का अंदाजा ही वे नहीं लगा पाते.<!–
बेटियों को हमेशा यह विश्वास दिलाये रखें कि वे उनके लिए आजीवन महत्वपूर्ण हैं .उनकी ज़िंदगी परिवार समाज के लिए कीमती है.ऐसे में वे विवाह के बाद भी अगर दुर्भाग्य से घरेलु हिंसा या दहेज़ के दानव का शिकार होने लगें तो उनमें उनका मुकाबला करने की हिम्मत रहेगी . वे कभी भी आत्मघाती कदम नहीं उठाएंगी.अपनी किसी भी परेशानी को आपसे वैसे ही बांटने की हिम्मत और अधिकार रखेंगी जैसे वे विवाह के पहले करती थी.
इन छुटियों में जब मैं शिलौंग गयी तो स्थानीय चालक से एक अच्छी बात पता चली कि वहां दहेज़ जैसी कोई प्रथा नहीं है.उत्तर पूर्व भारत में बेटियाँ विदा नहीं होती लडके उनके घर आते हैं.मुझे इस दहेज़ रहित सामाजिक संरचना पर बेहद नाज़ हुआ.
दरअसल यह सोच और मानसिकता सर्वाधिक रूप में उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रचलित है.यहाँ बचपन से ही बेटियों की शिक्षा के सम्बन्ध में भी एतराज़ किया जाता है यह कहकर”अरे इन्हें पढ़ा-लिखा कर क्या फ़ायदा पराई हैं अपने घर चली जाएंगी आपको इनसे क्या मिलेगा”वे यह भी मानते हैं की लड़कियों से वंश नहीं चलता.वे तो सदैव परायों के लिए ही पाली जाती हैं.लोग यह भूल जाते हैं कि यही बेटियाँ बहु बन कर वंश वृद्धि में सहायक बनती हैं.और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह कि उसी राज्य उत्तर प्रदेश में जवाहर लाल नेहरु जी का वंश आज भी फलित पुष्पित हो रहा है जबकि उनकी एकलौती संतान बेटी (इंदिरा प्रियदर्शिनी )ही थी.आज भी सर्वाधिक जाना पहचाना गांधी वंश उन्ही(इंदिरा जी) से ही आगे बढ़ रहा है.वे तो कभी पराई नहीं मानी गयीं.
मैं स्वयं भुक्तभोगी हूँ.जब अपने गाँव जाती तो पापा को घर पर सब कहते,”कलक्टर बनवाना है क्या बेटी को ?बन भी गयी तो आपके किस काम की?? सारा राज भोग तो ससुराल वाले करेंगे”मैं बहुत चकित होती यह सोचती कि क्या समाज हमारी शिक्षा से लाभान्वित हो यह ज़रूरी नहीं?? यह अपना घर; पराया घर क्या है, इसकी परिभाषा तो उन दिनों समझ नहीं पाती,हाँ चुनौती समझ कर और भी जुनून तथा मेहनत से पढ़ती.

मेरी बड़ी दीदी एक सशक्त उदाहरण है उन्होंने और उनके परिवार(ससुराल) वालों ने पापा की कई जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम दिया और आज भी घर की ज़िम्मेदारी में सबसे पहले वही सलाह मशवरा देती हैं.यह पिता और पिता तुल्य ससुर जी के संबंधों का विस्तार था.प्रशंसनीय बात यह कि उनकी शादी  पान पत्ते पर मात्र सवा रुपये रखा कर की गयी थी.वज़ह उनके ससुर जी को दहेज़ शब्द से ही नफरत थी,वे बस एक सुशील बहु की आकाक्षा रखते थे.पर अफ़सोस की बात यह है कि दीदी को अपनी दोनों बेटियों के विवाह में दहेज़ देने पड़े,जबकि छोटी बेटी सरकारी नौकरी करती थी.यह इस समाज का विरोधाभासी कटु और स्याह पक्ष है.हाँ, उन्होंने बेटियों को परायेपन का टैग नहीं आत्मविश्वास का टैग लगा कर विदा किया था कि जब भी कोई मुसीबत आये अपनी अच्छी शिक्षा और संस्कार का सहारा लेना; फिर भी समाधान ना हो तो घर का हर सदस्य तुम्हारे साथ है.बेहिचक चली आना या हमें सूचित करना.

माता-पिता को बेटी को कभी यह सन्देश नहीं देना चाहिए कि वह उनके पास पराई अमानत है.बल्कि हर कदम पर बताना चाहिए ,” वे उन्ही का अंश होती हैं और उनके लिए वे आजीवन बेहद महत्वपूर्ण हैं.” उन्हें शिक्षित कर स्वावलंबी बनाना माता-पिता की उनके प्रति पहली ज़वाबदेही है.विवाह व्यवस्था समाज में आपसी संबंधों के विस्तार के लिए की गयी है.फिर भला शादी के उपरान्त माता-पिता के घर से बेटियों का नाता क्यों टूटे?जिस बेटी को पाल पोस कर हर सुख-दुःख में भागीदार बनाया वह पराई क्यों और कैसे हो सकती है?इस बात का हमेशा ख्याल रखा जाना चाहिए. कि समाज में मान-सम्मान प्रतिष्ठा से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है बच्चों की खुशी ,सुख और उनकी समाज और परिवार में सुरक्षा.

है इस अहम् से कि बहु
बार -बार मायके क्यों जाए,उसकी ज़रूरत पहले ससुराल में है .अब ज़रा सा गौर किया जाए तो स्पष्ट है ——- क्या उस बहु के ससुराल आने के पूर्व घर नहीं चल रहा था?अगर माता-पिता को ज़रूरत है तो क्या ससुराल वालों की सहयोगपूर्ण जिम्मेदारी नहीं बनती कि उसे (बहु) वहां(मायके) भेजें?यकीन मानिए इससे उस बहु के मन में सम्मान की भावना जागृत होगी और वह दो घरों को जोड़ने के लिए एक मजबूत सेतु का काम करेगी.

हाँ, यहाँ बेटी के माता-पिता को थोड़ी सावधानी रखनी होगी कि प्यार के वशीभूत हो बार-बार उसे अनावश्यक रूप से ना बुलाएं .आखिर बेटी जब पढ़ने के लिए उनसे दूर जाती है तब भी तो वे उसके बगैर रह रहे थे न !तब उन्होंने बेटी को पढ़ाई में विघ्न ना हो ये ख्याल कर अपने से दूर रखा . अब भी वह कुछ जिम्मेदारी निभाने की राह पर ही तो बढ़ रही है.

यहाँ एक बात मैं और देखती हूँ कि कुछ बेटियाँ शादी के उपरान्त स्वयं को ससुराल में इतना व्यस्त कर लेती हैं कि माता-पिता के प्रति कर्त्तव्य को यह कह कर टाल देती हैं ,” अब वहां हमारा क्या काम है? भैया-भाभी हैं ,उनकी(माता-पिता) सेवा करने के लिए,मैं अपनी ससुराल के लिए हूँ.”ससुराल वालों के प्रति अपने कर्त्तव्य निभाना बहुत अच्छी बात है पर ज़रूरत पड़ने पर भाई-भाभी की मदद करना बेटियों को सदा परिवार के करीब रखने में भी सहायक होता है .साथ ही दो परिवार के स्नेह डोर की मजबूती भी इससे बनी रहेगी.भाई-भाभी भी बेटियों(बहनों) को पैत्रिक सम्पति पर हक के प्रतिद्वंदी के तौर पर कभी ना समझें.
बेटियों से भी मैं यही कहना चाहूंगी कि परम्पराओं ने भी उन्हें कभी पराया नहीं बनाया है;उन्हें ज़रूरत अपने वजूद,अपने अस्तित्व को मजबूती के साथ समाज के समक्ष रखने की है.यकीन करिए जब तक आप पूर्ण विश्वास के साथ स्वयं को दोनों घरों से जुडा मानती रहेंगी सभी को आप प्रिय और अपनी लगेंगी और यही अपनापन सर्वाधिक प्रिय होता है,जिसे अपना मानो वही प्रिय हो जाता है.अपना स्थान बेटियाँ समाज,परिवार,देश में खुद स्थापित कर लेती हैं,यही उनके आत्मविश्वास की दिव्य ज्योति है.

“दो घरों को जोड़ने वाली एक मजबूत सेतु और इज्ज़त है बेटी
अपनेपन से एक नहीं दो आशियाने को करती ज़न्नत है बेटी.”

एक बार एक कार्यक्रम के दौरान counsellor ने हम सभी महिलाओं से प्रश्न किया,”अगर एक ही वक्त में आपके ससुराल और मायके दोनों जगह विवाह समारोह का आयोजन रखा गया हो तो आप का निर्णय किस स्थान पर जाने का होगा?”कई ज़वाब थे .मेरा ज़वाब था,”जहां मेरी ज्यादा ज़रूरत होगी मैं वहां जाने का निर्णय लूंगी.”कभी-कभी ऐसा होता है कि ससुराल पक्ष में कोई ज़िम्मेदार हेल्पिंग हैण्ड ना हो और मायके में कई सहायक हों,या फिर हालात इसके ठीक विपरीत भी हो सकते हैं ऐसे में महज़ एक दर्शक की भूमिका निभाने से ज्यादा अच्छा है ज़िम्मेदारी निभाना.

अगर दोनों ही जगह हेल्पिंग हैण्ड की कमी नहीं है तो विवाह समारोह में एक जगह जाएं और reception में दूसरी जगह .वह भी ज़रूरत के हिसाब से पति-पत्नी(दोनों पक्ष) सहयोगिता पूर्ण माहौल में निर्णय ले लें.

बस समझदारी से अपनी बिटिया की परवरिश अभिभावक करते रहे तो परायेपन का यह शब्द उनकी बिटिया की ज़िंदगी के शब्दकोष से नदारद होगा.और उनकी बिटिया अपने नुपुर के रुनझुन की मधुर आवाज़ से दोनों घरों में संगीत लहरी बिखेरती रहेगी और गायेगी—-

“माँ ने तो हमें जन्म दिया,सासू ने दिया हमें प्यारा पिया
रोशन हो दो घर मुझसे,मैं बन सकूँ ऐसा एक दीप्त दिया”

बेटियाँ पराई नहीं होती हैं ;अपने पराये के दायरे से कोसों दूर बेटियाँ भी तो बस अपना ही अंश होती हैं. जिस भारतीय संस्कृति की परम्पराओं के तहत ये दुहाई दी जाती है कि “बेटियाँ पराई होती हैं”वास्तव में दोष उस संस्कृति की परम्पराओं का नहीं ;दोष उस पर अमल करने वालों की सोच और समझ का है.

ठीक उस तरह जैसे अपने चहरे पर अवांछित तत्त्व की मौजूदगी से बेखबर होकर अपने आईने को दोष देना.

एक मशहूर शेर अर्ज़ करती हूँ

“यकीन मानिए हमारे ही चहरे पर धुल है
इलज़ाम लगाना आईने पर फ़िज़ूल है.”

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