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दोस्तों यमुना का प्यार भरा नमस्कार.
पिछले एक सप्ताह से मैं उत्तर पूर्व के पहाडी स्थल शिल्लोंग में थी.पहाड़ मुझे बचपन से आकर्षित करते रहे हैं.गोहाटी के रास्ते शिलौंग जाते हुए पहाड़ों की खूबसूरती पर विकास के ग्रहण की छाया स्पष्ट दिख रही थी.वाहन का चालाक बताता जा रहा था कि पहाड़ अब पहले जैसे हरियाली से परिपूर्ण नहीं रह पा रहे हैं.इन पहाड़ों में चुना-पत्थर है अतः उद्योगपतियों की नज़र से ये बच नहीं पाए हैं.सड़क के चौडीकरण की प्रक्रिया ने भी पहाड़ों के काटने में अहम् वज़ह की भूमिका निभाई है.मुझे यह सब सुनकर अफ़सोस हो रहा था .पर आदिल(चालक) अपनी धुन में था,कहने लगा,”मैम,वैसे सच कहूँ तो सड़क को चौड़ा करना बेहद ज़रूरी है ,पहाड़ों पर वाहन सर्पिलाकार राहों से गुज़रते हैं,संकरी सड़कें दुर्घटना की संभावना में वृद्धि कर देती हैं ,बचाव के लिए टू वे अत्यावश्यक है,हमें चिकिस्ता सुविधाओं के लिए भी गोहाटी शहर आना ही पड़ता है .”
वह अपनी बातों में मशगुल था और मैं विकास से उत्पन्न वेदना और आवश्यकता के विरोधाभास के मध्य पहाड़,झील,झरने,संग्राहलय की यादों को समेटे अपनी लेखनी में इस यात्रा के अनुभव को भर लेना चाहती थी. शिद्दत से जो महसूस किया वह कुछ इस तरह रहा……….
जहां पहाड़ों की शोभा,जंगलों से सज रही थी
सुदूर गाँव को जाती,पगडंडी कुछ कह रही थी
सीढीनुमा खेतों की छटा,झोलियाँ भर रही थी
खूबसूरती कुदरत की,हर कण से छलक रही थी
वहां भी कंक्रीट के,विशाल जंगल जोड़ आये हैं
लोग विकास की वेदना के बीज रोप आये हैं.
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ज़मीं के चंद हिस्सों पर,सिमटा था सारा जहां
छिटका था वैभव जहां तक था झुका आसमान
समृधि से भरा जीवन चढ़ता हर सपना परवान
होगी मरघट की चुप्पी कैसे सजेंगे जीवन गान
प्रकृति के संतुलित सुरों की बंशी तोड़ आये हैं
लोग विकास की वेदना के बीज रोप आये हैं
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भोर की रश्मि से भीगते ज़िन्दगी की शुरुआत
रुपहली धुप संग किसानों की सजती थी बारात
कानन में लहराते सपनों की वह भोली सी बात
प्रगति की होड़ ने दी सौगात में काली घनी रात
रंगीन कागजों के बलबूते सब तोल-मोल आये हैं
लोग विकास की …………………….
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माटी से गोबर की खुशबू ना जाने कहाँ है खो गयी
ढेंकी,जातें,सिलबट्टे की पहचान यहाँ से लो गयी
पालकी संग नववधू की सज्जा है जहां पे सो गयी
पपीहे,महोखे,पिक की आवाज़ आइपौड़ में खो गयी
ज़मीन से जुडी ये चीज़ें संग्राहालय में संजो आये हैं
लोग विकास की…………………….
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शुद्ध,स्वच्छ हवा हो रही विषैली धुओं के गुबार से
चंचल शोख नदियाँ बनी मैली कचरों के भरमार से
धरा यहाँ की पट रही ईंट रेत व गारों के अम्बार से
परतें पहाड़ की दहक रही नव मशीनों के अंगार से
सृजन की सुरमई वादियों को ध्वंश पे मोड़ आये हैं
लोग विकास की………………………………….
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प्रगति की अंध दौड़ में सब कुछ पाने का अटल विश्वास
आपदाओं की विभीषिका में जान बचाने का व्यर्थ प्रयास
भूले क्यूँ धरा को हरीतिमा से सजाने का अमूल्य इतिहास
वन काटे बिना क्या संभव नहीं मनुज का सफल विकास ??????????
विनाश के किताब के पन्नों पर ऐसे कई प्रश्न छोड़ आये हैं
लोग विकास की ……………………………
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