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दोस्तों,आज मैं तेजी से बदलते पारिवारिक परिवेश में बुजुर्गों के हालात पर चर्चा करना चाहती हूँ.हमारी सामाजिक व्यवस्था से संयुक्त परिवार धीरे-धीरे ख़त्म होते जा रहे है;विलुप्त इसलिए नहीं कहूंगी क्योंकि मैं स्वयं एक ऐसे well knit संयुक्त परिवार की छोटी वधु हूँ; जहाँ एक भाई का दर्द, दुसरे भाई की आँखों का मोती बन जाता है,माता को बेटों के मजबूत कन्धों का सहारा है, पिता तो इसी वर्ष गुज़र गए ,अलग-अलग घरों और संस्कारों में पली-बड़ी ६ वधुएँ एक ही छत के नीचे सहयोग और समझदारी से ईंट-पत्थर से बने मकान को घर का शक्ल देने में पुर्णतः सक्षम हैं,आर्थिक स्थिति से कमज़ोर भाई को इस दृष्टिकोण से मजबूत भाई कभी भी विवश नहीं होने देते.थोड़े शब्दों में कहूँ तो वह हर मूल्य, जिसकी पहुँच बहुत से एकल परिवारों के लिए सिर्फ सपनों या कहानियों तक होती है ,ईश्वरीय अनुकम्पा से वे सब मेरी ज़िन्दगी की झोली में अनमोल सौगात सदृश मौजूद है.पिता ने मृत्यु के कुछ दिन पहले बहुओं को बुला कर एक ही बात कही थी’घर की एकता ना टूटने पाए’वे अपने पुत्रों को दिए गए संस्कार से वाकिफ थे और यह भी जानते थे कि घर को बनाने वाली बहुएं ही होती हैं क्योंकि वे ज्यादा संवेदनशील होती हैं .उन्होंने एक काम बहुत अच्छा किया था कि हम बहुओं को अपने घरों से लाये अच्छे संस्कारों को पुरी आज़ादी के साथ घर के परिवेश में रच-बस जाने दिया था.उनका मानना था कि लड़कियां भी अपने मायके में बचपन से वयस्कता तक बहुत से संस्कार सीखती हैं फिर उन्हें सिर्फ अपने ससुराल की ही तहजीब और संस्कार तक सीमित क्यों रखा जाए ?हम सब उनके माता-पिता से सीखे संस्कारों को भी क्यों ना उनके नए घर का हिस्सा बनाए?यही वज़ह है कि हम सभी ने एक-दुसरे से बहुत कुछ सीखा.
इसलिए मैं अपने समाज में जब-जब बिखरे रिश्तों को देखती हूँ तो मन एक अजीब सी कसक से भर जाता है ख़ास कर जब किसी बुजुर्ग को कहीं हाशिये पर खडा पाती हूँ.जीवन की सांध्य बेला में बुजुर्गों की सबसे बड़ी ज़रूरत उनके अपनों के प्यार भरे दो बोल और कुछ पल का साथ ही होते हैं .यह ज़रूर है कि ढलती उम्र में शारीरिक व्याधियां आर्थिक बोझ बढ़ा देती हैं पर इसके लिए उनकी उपेक्षा करना कहाँ तक जायज़ है?
दरअसल थोड़ी सी भूल उनसे भी अतीत में हो जाती है जो कि हममें से कुछ मध्य वय के लोग वर्त्तमान में कर रहे हैं -प्रथम,तो यह की काम,नौकरी,व्यस्तता की दौड़ में सर्वप्रथम पारिवारिक रिश्तों की ही बलि चढ़ा देते हैं जबकि यह हकीकत है कि विपत्ति में या सुख में अपने परिवार के लोग ही सबसे बड़े संबल के रूप में खड़े होते हैं .अभी कुछ दिनों पूर्व सुना था कि एक सरकारी ऑफिसर ने खुद को और अपनी लकवाग्रस्त पत्नी को गोली मार ख़त्म कर दिया क्योंकि रिश्तेदारों ने उनकी साध्य बेला में ही उनसे मुख मोड़ लिया था और वे इस बात से काफी व्यथित थे .दुसरा यह कि आर्थिक रूप से भविष्य में स्वयं की सुरक्षा की व्यवस्था ना रखना,यह बात बहुत अहम् इसलिए है क्योंकि बच्चे अपनी रोजी-रोटी की जद्दोजेहद में परेशान हो सकते हैं ऐसी हालात में इस सुरक्षा से आप उनपर अतिरिक्त ज़िम्मेदारी न बन कर निश्चिंत रह सकते हैं ,साथ ही सहयोग भी कर सकते हैं.
आप कहेंगे कि आर्थिक रूप से मजबूत बुज़ुर्ग भी बच्चों की उपेक्षा का शिकार हो जाते हैं .मैं आपसे सहमत हूँ विदेशों में बसे बच्चे,अपने ही देश के अलग स्थानों में बसे बच्चे अपने काम-काज,व्यस्तता का हवाला देते हैं.पर मेरा मानना है कि प्यार इतना मजबूत बंधन है कि यह वक्त,स्थान की बंदिशों का मोहताज़ नहीं है .आजकल तो संचार और परिवहन के साधनों ने दुनिया इतनी छोटी कर दी है कि हर व्यक्ति, हर वक्त ,एक-दुसरे की मदद के लिए उपलब्ध हो सकता है .पर ज़ब दिल की ही दूरियां बढ़ जाए तो कोई क्या करे?माँ बगल में बैठी प्यार और स्नेह के दो बोल को तरस रही होती है और हम मोबाइल या नेट पर सात समंदर पार किसी मित्र से झूठे संबंधों की बुनियाद खडी करने में व्यस्त होते हैं .जिस वक्त उन्हें हमारी सर्वाधिक ज़रूरत होती है उसी वक्त हम उन्हें एकाकी छोड़ देते हैं.
लौट आओ दोस्तों,बस यह समझने के लिए कि आज जिस वर्त्तमान का सामना करने के लिए कुछ बुज़ुर्ग अभिशप्त हैं वही अनायास ही सही पर कहीं हममें से कुछ का भविष्य बनने तो नहीं जा रहा है!!!!!!!!!!!!!!!!!
आज इन शब्दों में एक बुज़ुर्ग की सदा सुनिए……………..
उम्र के इस पड़ाव पर क्यों भला
करता नहीं कोई हम पर रहम ?
सुने ,उदास इस जीवन पथ पर
बोझिल आँखें और हैं थके कदम.
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खुशियाँ बिखरी थीं आँगन में
और थी अपनी हर रात पूनम,
आज क्यों हुए ये संतान पराये
ढाए जा रहे यूँ चुपचाप सितम.
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उनको लेकर जो देखे थे सपने
हकीकत बन अब तोड़े हैं दम,
बिखर गए वक्त की आंधी में
जैसे सूखे तिनकों से ये बेदम.
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उम्मीद करना न कभी अब
उनसे जिन्हें दिया था जन्म,
जीवन-सांध्य की कराह पर
ना रखेंगे वे ज़ख्म पर मलहम.
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बुजुर्ग हैं दरख़्त की साया से
क्यों ना होता आज तुम्हे इल्म,
कल अपनी सांध्य बेला में तो
पाओगे वही जैसे किये करम.
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साँसे रुक जायेंगी एक दिन
बस जाएगा घर में मातम,
चले गए जो सदा के लिए
कैसे लौट कर आयेंगे हम ?
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तरुण;उठो,मजबूत भुजा से
सहारा हमें देते रहो हरदम ,
इतिहास है दोहराता खुद को
फ़साना ना होता कभी ख़त्म.
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ना प्रार्थना ,ना पूजा ही करती
तब तक तुम पर रहमो करम
जब तक दुआ ना बरसे हमारी
आगे कैसे बढ़ पायेंगे तेरे कदम ?
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