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1)शान्ति
शान्ति शान्ति शान्ति ….
पर ये शान्ति है कहां !!!
इस अधीर समाज में इस शब्द ने दम तोड़ दिया है ।
अगर हम सब से शान्ति शब्द से और शब्द बनाने कहा जाए तो हम फौरन जवाब देंगे अशान्ति ।हिन्दी वर्णमाला का पहला वर्ण अ का प्रयोग कर देंगे । हममें इतना धैर्य ही नहीें कि हम तनिक रूक सकें …विचार कर सकें …धीरे धीरे आगे बढ़ने के लिए भी तैयार हो ।
शान्ति प्रिय… शान्ति दायक …शान्ति पूर्ण ..शब्द भी है पर यहां तक सोचने के लिए fast n first की अपरिपक्वता और जल्दबाजी नहीें बल्कि think n try का विवेक और धैर्य होना चाहिए ।
जीवन के महत्व पूर्ण फैसले के लिए भी हम वक्त लेने के लिए तैयार नहीें ।दिल टूट गया ..परीक्षा फल खराब हो गया …किसी ने कटु आलोचना कर दी … बस एक ही हथियार अशान्ति फैला दो ।मार दो मर जाओ ।
क्या अशान्ति के अलावा शान्ति प्रिय शान्ति पूर्ण जैसे शब्द जीवन का हिस्सा नहीें बन सकते है ।
2)
अनुशासन अस्तित्व का
र्य को उदित होने से कोई रोक नहीं सकता ।इसे डूबने से भी कोई बचा नहीं सकता । अपने उदय और अस्त को सूर्य ने अपनी नियति नहीं बल्कि अपने अस्तित्व का अनुशासन माना है ।
फिर हम सब अपने उत्थान और पतन को जीवन के अनुशासन के रूप में क्यों नहीं समझे पाते ???
शायद इसलिए कि हम सब को कुदरत से जंग लड़ने की आदत सी हो गई है । यह जानते हुए भी कि कुदरत के साथ चल कर ही हमारा अस्तित्व बचा रह सकता है ।
फिर भी व्यर्थ की चिंता जंग अवसाद की गिरफ्त में बंदी बन कर रहना ही हमने स्वीकार कर लिया है ।जब कि कुदरत के साथ अनुशासन में चलने पर गजब की आजादी का एहसास होता है ।
आओ हम सब हर सुख और दुख को एक अनुशासन मानें नियति नहीं ।
3) हर व्यक्ति एक किताब
हर व्यक्ति एक किताब की तरह है ।किताबों का चुनाव उन्हें सहेजना याद रखना पूर्णतः व्यक्तिगत निर्णय है ।कुछ किताबें ताउम्र याद रहती हैं.कुछ दराज़ में सम्हाल कर रख दी जाती हैं और कुछ पढ़ी तो नहीं जातीं पर दराज़ से बार बार बाहर अवश्य निकाली जाती हैं.कुछ हमारी ज़िंदगी को नए मोड़ दे कर पूर्णतः बदल देती हैं.और कुछ आधी पढ़ कर यूँ ही रख दी जाती हैं .
4)
कफन का बोझ
जिंदगी की तल्ख हकीकत से रूबरू होना बहुत अच्छी बात है । कुछ लोग हकीकत को हकीकत की नजर से देख पाते हैं और कुछ लोग भुलावे में जीना बेहतर मानते है ।मोम की बैसाखियों पर सफर क्यों और कब तक ??
क्या हम सब में इतना भी सामर्थ्य और नैतिक बोध नहीं कि स्वयं की तटस्थता पर सवाल खड़े कर सकें ।
हम कठपुतलियां है या जिन्दा लाशें …अपने ही कफन का बोझ उठाने को मजबूर … हमें आग जलाने का शगल है और जलने के पहले उठने वाले धुएँ के छल्ले हमें बरबस लुभाते है ….यह जानते हुए भी कि जिस
धुएं को हम पैदा कर रहे है वह एक दिन हमारी नजर को ही धुंधला कर देगा ।
5)सॉरी …न बने लोरी
हम सब ने थैंक्स प्लीज और सॉरी तीन शब्दों को आचार की त्रिवेणी के रूप में सीख लिया है .यह अच्छी बात भी है .थैंक्स और प्लीज शब्द तो ठीक है पर किसी समस्या के फौरी समाधान के लिए गलत बात पर भी सॉरी का प्रयोग मैं गलत मानती हूँ.फिर यह शब्द लोरी की तरह काम करता है .जो समस्या को आराम की नींद सुला देता है .और यह कुम्भकरणी नींद भी हो तब भी समस्या पुनः आकार ले ही लेती है.अतः क्विक फिक्स समाधान के रूप में सॉरी का प्रयोग ना किया जाए तो जड़ जमाई कई समस्याओं को ख़त्म करने में मदद मिल जाएगी .
6) अभिव्यक्ति
एक लेखक समाज सुधारक होने का दम्भ कभी नहीं भरता है.उसकी रचनाएं या लेखन तो बस समाज में होने वाली घटनाओं पर एक प्रतिक्रिया है ….यह बहुत स्वाभाविक है ठीक वैसे ही जैसे आम्र मंजरियों के आते ही कोयल की कूक की तान .कुछ कोयल की कूक को ध्यान देते हैं और कृतज्ञता से भर उठते हैं …कुछ इसे कुदरत की एक घटना मान कर अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं तो कुछ के लिए ना अमर मंजरियों और ना ही कोयल का कोई अस्तित्व होता है.
यमुना पाठक
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