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स्वयं की अंतिम यात्रा”

V2...Value and Vision
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दोस्तों ! आज मैं अदृश्यता से व्याप्त एक पहलू से आपको रु-ब-रू कराना चाहती हूँ जिसका प्रभाव समाज के शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही वर्गों पर हो रहा है’मैं चर्चा करने जा रही हूँ लोगों में बढती “आत्महत्या की प्रवृति “पर.ऐसा नहीं है कि यह प्रवृति सिर्फ मनुष्यों में ही है ,शोध से यह ज्ञात हुआ है कि फ्लेमिंगो नाम के पक्षी में सामूहिक आत्महत्या की प्रवृति होती है.

आज छोटी सी पीड़ा को भी हम बर्दास्त करने या उसका निवारण समझदारी से करने की बजाय खुद को मौत की नींद सुलाना ज्यादा आसान सोचते है .क्या हमारी शिक्षा इस प्रवृति से हमें निजात दिलाने के लिए राम बाण औषधि साबित नहीं हो पाएगी ?????

विचारणीय प्रश्न यह है कि जब ईश्वर ने हमारा सृजन किया है तो विध्वंस का अधिकार हम उनसे क्यों छिनना चाहते हैं ?कहते हैं “बड़े भाग माणूस तन पावा” सच है जिंदगी ईश्वर का दिया हुआ सबसे बड़ा उपहार है.जब हमारे घर कोई अतिथि आता है तो हम उसके रुकने तक खाने-पीने,रहने आदि की व्यवस्था उचित तरीके से करने की पुरी कोशिश करते हैं ;तो फिर सोचिये उस सर्वशक्तिमान ईश्वर ने भी जब हमें अतिथि बना कर इस धरा पर भेजा है तो हमारे हिस्से की ज़मीं,भोजन,पानी आदि की व्यवस्था नहीं की होगी???? यह हमारा कर्त्तव्य,हमारी सोच है कि हम परमपिता के मेहमान बनकर उस मेज़बान की कितनी मदद करते हैं?

१३ वर्ष की उम्र में घटी एक घटना की याद के बेतरतीब रंग आज भी वैसे ही चटकीले हैं. हमारे मोहल्ले में ही रहने वाली एक संभ्रांत महिला ने पति के साथ रोज़-रोज़ के झगड़ों से आजिज़ आकर खुदकुशी कर ली थी. दुःख की बात यह थी कि वह अपने संग अपनी दो छोटी बच्चियों को भी ले गयी थी.इस बेमानी निर्णय के पूर्व उसने ज़रा भी न सोचा कि उसे तो ईश्वर ने सृजन का सिर्फ एक माध्यम ही बनाया था.इश्वरेछा देखिये ;महिला की तो इहलीला समाप्त हो गयी पर “जाको राखे सैयां ….”दोनों बच्चियां घायलावस्था में हॉस्पिटल ले जाई गयीं.

इसी बीच मेरे पिताजी का भी स्थानान्तरण दुसरे शहर में हो गया था.

“बाल्यावस्था में मस्तिष्क में उठते असंख्य प्रश्नों के उत्तर के लिए जहाँ हम अपने माता-पिता को सबसे बड़ा स्त्रोत मानते हैं वहीँ किशोरावस्था में मानस पटल में उभरे हर सवाल का ज़बाब खोजने की ज़हमत अपने ही सर उठा लेते हैं ,हमारी यही बात किशोरावस्था को उम्र का अत्यंत ही संवेदनशील पड़ाव बना देती है.”

किशोरावस्था की दहलीज़ पर खडी मैं यह घटना दूसरे शहर जा कर भी ना भुला पायी.कई वर्षों तक दोनों बच्चियां याद आती रहीं उस समय तो फ़ोन,मोबाइल इत्यादि की भी कोई सुविधा नहीं होती थी.संयोगवश पांच वर्षों के बाद उसी शहर फिर से जाना हुआ .कौतुहल मन इस घटना का अंजाम देखने को तो विकल था ही.जब हम उनके घर पहुंचे ,चबूतरे पर ही एक अपाहिज बच्ची बैठी मिल गयी,पहचानते देर न लगी यह वही बच्ची है जिसकी माँ के ममतामयी प्रेम की तपिश ने जीवन भर के लिए इसे जलने के लिए छोड़ दिया था. उसका एक पैर जांघ के नीचे से कट चुका था.उसके बड़े भाई से ज्ञात हुआ कि घायल हुई दूसरी बच्ची ने उस दिन की सिर पर लगी अंदरुनी चोट की वजह से घटना के १ वर्ष के बाद ही दम तोड़ दिया था.मेरी समझ भी अब विकसित हो चुकी थी.मन के कोने से आवाज़ आयी “अच्छा ही हुआ वरना वो बिचारी भी बाकि की ज़िन्दगी के लिए दूसरों का मोहताज़ हो जाती.”

मैं आज भी जब-जब ऐसी घटनाएं सुनती या पढ़ती हूँ; सोचती हूँ क्या जीवन इतना भारी ,बेमानी हो जाता है,क्या मौत के बाद सब कुछ ठीक हो जाता है?पर नहीं ;मेरा विचारशील मन यही कहता है “जीवन की कोई भी समस्या मृत्यु से ज्यादा कठिन नहीं है.ईश्वर ने हर व्यक्ति को किसी न किसी मकसद से इस पृथ्वी पर भेजा है,सवाल यह है कि उस मकसद की पहचान कैसे हो? तो दोस्तों,, सरल सा उपाय यह है कि “जीवन को सहजता के भाव से लो,हर निशा की एक उषा अवश्य होती है ,जो आपके लिए सही है यह ज़रूरी तो नहीं कि दूसरे के लिए भी वो ही परिस्थितियां सही हों.माली चाहता है कि बारिश अच्छी हो ,मेरे बगीचे में पेड़-पौधों के लिए ज़रूरी है;पर कुम्हार की चाह होती है बारिश ना हो मेरे बर्तन कैसे सूखेंगे?”ईश्वर को तो दोनों की फिक्र रखनी है .इसलिए हर समय यह सोचो कि भगवान् तुम्हारे लिए वही कर रहा है जो तुम्हारे सर्वोत्तम विकास के लिए आवश्यक है.

मैंने एक व्यंगात्मक कविता इस घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में लिखी है”स्वयं की अंतिम यात्रा”

मैं बस एक बार साक्षी बनना चाहती हूँ

अपनी मृत्यु का,जहाँ मैं खत्म हो गयी हूँ

जीवन के बिखरे रंग की उज्जवलता में,

दूर तक फैले सन्नाटे में,सत्य हो गयी हूँ
……..

यह देखना है मुझे,क्या मौत की कल्पना

हकीकत से भी, कहीं भयावह ज्यादा है ?

मेरी अनुपस्तिथि से उपजी गहरी कमी का

भरने का भी प्रियजन द्वारा कोई इरादा है?
…………

मेरी अनुपस्तिथि से उपजी कमी के

वे विषाद भरे बादल कितने गहरे हैं ?

क्या परिवर्तन को चिर सत्य मान

शांत हो चुके परिजनों के चेहरे हैं?
………

जीवन के असंख्य उतार-चढ़ाव के विवरण

समझाने को तो हैं उपलब्ध ढेरों आख्यान

मुझे मृत्यु को जीकर है बस करना

आत्महत्या की प्रवृति को सावधान
…………

जानना चाहती हूँ मैं मृत्यु के बाद

क्या,कहाँ,कितना ,बदल जाता है

स्वयं की अंतिम यात्रा में शामिल

होने को जी मेरा मचल जाता है
………

सब कहते हैं जीवन है क्षणभंगुर

पानी के एक बुलबुले के सदृश्य

मौत के सत्य को अपनाते कैसे हैं ??

देखना चाहती हूँ मैं भी हो अदृश्य
………..

जीवन जीकर इसके मूल्य को तो

समझ चुका है जग का हर प्राणी

मृत्योपरांत एक भी जीव ना लौटा

जो दे सके इस रहस्य को वाणी
……….

सोच लिया है जो मृत्यु हुई

कठिन जीवन से ज्यादा अगर

भाग वापस आ जाउंगी मैं तो

तज मृत्यु की रंगहीन डगर.
…………

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