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१)
हरे भरे दरख़्त से लगी सूखी डाल
सुबह शाम राह से गुज़रते
ध्यान अटक ही जाता है
हरे भरे दरख्त की
नीड विहीन..पर्णविहीन
एक सूखी डाल पर
सूख ही गया है जीवन
दोष किसका होगा ??
जड़ों का…
स्वयं डाल का…
या फिर
नियति का
संवहन ख़त्म हो गया होगा
जड़ों से डाल तक
खनिज पानी का
डाल से जड़ों तक
भोजन का
कुदरत ने भी
कर दिया होगा उपेक्षित
क्या करुँ !!
इंतज़ार …
डाल के चरमरा कर टूट जाने का
या कि ..
बारिश के बौछार का
जो संवहन को पुनर्जीवित कर दे
एक फुनगी ही उग आये !!
हरे भरे दरख्त से लगी सूखी डाल
मुझे बेहद व्यथित करती है .
२)
निम्बोलियों सी यादें
ये शहर बहुत बड़ा है
आकाश से आँखें लड़ाती
एकदम अपरिचित सी
ऊंची ऊंची इमारतें हैं
बहुत कोलाहल है
पर ऐसा एक चेहरा नहीं जो दे सके
आँखों को सुकून दिल को तसल्ली
इन्ही अपरिचितों के बीच
दीखता है बड़ी ढीठता से
अदृश्य पर बहुत परिचित सा
वो घना छायादार नीम
घर के बाहर
तन्हा लगा होकर भी आबाद
दुपहरी में
बच्चों के शोर गुल से
शाम में
बुजुर्गों के गप शप से
सराबोर कच्चे फर्श पर बिखरी
कच्ची पक्की
हरी पीली
निम्बोलियों सी यादें
तलाशती हैं
वो जाना पहचाना
कच्चा पक्का घर
बेबाक अपनापन
इन अनजानी गगनचुम्बी
अट्टालिकाओं के बीच .
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