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अमेज़न सहेली का वीडियो बेहद आकर्षक है ..
डायलाग हैं…”बावली इसे साहस नहीं पागलपन कहे वे.थारी दुनिया इस घर से शुरू होव इसी घर पे ख़त्म .जो है उसी में खुश रह .ये काम काज व्यापार ना मर्दों ने शोभा देवे .”
यह नारी उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए एक संदेशात्मक वीडियो है जिसकी बोधगम्यता प्रभावोत्पादकता और आकर्षण का मुख्य कारण है कि यह कठपुतलियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है .
प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी की बालगीत ‘कठपुतली वाला ‘ कठपुतली के माध्यम से ना केवल मनोरंजन बल्कि शिक्षा के मह्त्व को भी उल्लेखित करता है .
मुझे याद है बचपन में जब , आता था कठपुतली वाला
एक बड़ा सा मंच सजता , कठपुतली का खेल दिखाता
किसी वृद्ध कठपुतले के संग, कठपुतली का ब्याह रचता
दर्शक पीट तालिया हँसते , खुद हँसता कठपुतली वाला
कठपुतली फिर शाला जाती , उधम करती नाच दिखाती
बस्ता फेंक फांक टेबल पर , सर की कुर्सी चढ़ जाती
हो हल्ला हुड़दंग करती , हो जाता स्कूल निकाला
उसकी माँ रोटी बनवाती , उससे झाड़ू भी लगवाती
पर कठपुतली आसमान में , झाड़ू लेकर उड़ जाती
चिल्लाती है राम पड़ा यह, किस पागल लड़की से पाला
फिर बूढ़ा कठपुतला आता ,, उसको अपने घर ले जाता
उसको तौर तरीका जग के, नियम कायदे सब दिखलाता
धीरे -धीरे खोल दिया था, बंद पडी बुद्धि का ताला .
कठपुतलियों का पुराने समय से ज्ञान के प्रसार ,मनोरंजन और सीखने सीखाने में मह्त्व रहा है .पुराने मोज़े कपडे रबर फोम लकड़ी जैसी सस्ती और आसानी से उपलब्ध चीज़ों से बनी कठपुतलियां शिक्षण के दृश्य श्रव्य माध्यम का बेहतरीन उदाहरण हैं.सच है साधारण ही सुन्दर है और सुन्दर ही साधारण है .वर्त्तमान में आधुनिक तकनीक के प्रचार प्रसार ने कार्टून शो के माध्यम से चाहे जितने भी शो बना लिए हों पर कठपुतलियों के द्वारा शिक्षण के सकारात्मक प्रभाव का अपना अलग ही मह्त्व है .
छोटे बच्चों के शिक्षण प्रणाली के लिए यह माध्यम बेहद असरकारी हो जाता है .बच्चों की अपनी एक काल्पनिक दुनिया होती है.वे गुड्डे गुड़ियों से आकर्षित होते हैं .बचपन में गुड़ियों से कई खेल खेल चुके होते हैं .उन्हें अपनी दुनिया का स्वाभाविक अंग मानते हैं.अतः कठपुतलियां सहज ही उनका ध्यान आकर्षित करती हैं.उनका सामाजिक और भावानात्मक विकास होताहै.कठपुतलियां बच्चों की आतंरिक दुनिया को दिखातीहैं.बच्चे उनपर अपने भावों को आरोपितकरते हैं.वे सीधे संवाद नहीं समझते .कठपुतलियों के माध्यम से क्रोध भय या अन्य हीनता को निकालना आसान हो जाता है.अतः कठपुतलियां भावानात्मक रूप से प्रभाव डालती हैं.शांत बच्चे भी बोलना शुरू कर देते हैं. संवेदनाओं से तालमेल बिठाते हुए खेल खेल में मनोरंजन करते हुए सीखाना या सन्देश देना बहुत आसान हो जाता है.किस व्यवहार को बदलना है ,किस अज्ञान को मिटाना है ,किस भय का समूल नाश करना है,…ये बिंदु बहुत ही संवेदनशीलता की मांग करते है .समस्या के विषय में सीधे बात ना करते हुए उसे कठपुतलियों के नाटक के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए .कठपुतलियों से वे सीखते हैं,उन्हें आवाज़ देना देखना भावाभिव्यक्ति करना कई कार्य तथा संवेदनाओं से बच्चों को रूबरू करता है .कभी कभी विद्यालय के ही हॉल में वे इसे सृजनात्मकता के तौर पर बनाते हैं.इसके माध्यम से बच्चे वयं को अभिव्यक्त करते हैं .पाठ्य के अतिरिक्त कई महत्वपूर्ण बातें भी सीख जाते हैं.शिक्षक भी पाठ को रूचिकर और सम्प्रेषणीय बना पाते हैं.कठपुतली के माध्यम से शिक्षा एक त्रिवेणी है .जिसमें हेड हैंड हार्ट का अद्भुत संगम है .कठपुतलियों को बनाना उन्हें क्रियाशील करना हैंड का काम ,उनके द्वारा संवाद कायम करना हेड का काम और उनके द्वारा भावाभिव्यक्ति हार्ट का काम बन जाता है .पाठ्यक्रम में उत्सुकता रुचि और भागीदारी बनी रहती है.गति वाक् के साथ बच्चे कठपुतलियों के साथ स्वयं को सम्बंधित कर पाते हैं.जिन बच्चों को बात चीत करने में परेशानी होती है ,वे कठपुतलियों को कृत्रिम रूप से बोलता देख कर बोलने की कोशिश करते हैं साथ ही सुनाने की कुशलता बढ़ती है.छोटे बच्चों को टॉयलेट ट्रेनिंग ,डाइनिंग शिष्टता कठपुतलियों के सन्देश से समझाया जा सकता है.उनमें सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता का विकास होता है.कभी कभी उनसे ही कठपुतलियां बनवाई जाती हैं .वे विभिन्न वेशभूषा से उन्हें सजाते हैं .जो उन्हें देश विदेश की संस्कृति को समझने में मदद करता है..भावनात्मक समस्या से जूझते बच्चे भी इस तरह से शिक्षण के बाद स्वयं को अभिव्यक्त करने में सहज महसूस करते हैं .उन्हें कठपुतलियों से सवाल पूछने को कहा जाता है ,कठपुतलियों के माध्यम से उनसे भी सवाल किये जाते हैं ,जिससे वे स्वयं को जुड़ा महसूस करते हैं.
एक ऐसे ही एक क्लास में कठपुतली के माध्यम से एक बच्चे से प्रश्न पूछा गया कि कछुआ कहाँ रहता है .उस बच्चे ने जवाब दिया कि कभी अपनी माँ के घर कभी पिता के घर .उत्तर के सन्दर्भ में बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि का अवलोकन किया गया और पाया गया कि बच्चे के माता पिता अलग अलग रहते थे .
कठपुतलियों के युग से चल कर हम भले ही कार्टून तक आ गए हों और अपने बच्चों के आधुनिक विकास को रिमोट से रेगुलेट होने की स्वच्छंदता दे कर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री मान बैठे हों पर यह ज़मीनी हक़ीक़त है कार्टून बच्चों के सर्वांगीण विकास में वह अहम् भूमिका कभी अदा नहीं कर सकते जो कठपुतलियों के माध्यम से संभव है .कार्टून को बच्चे ना तो स्पर्श कर महसूस कर सकते हैं और ना ही उसे स्वयं सक्रिय कर सकते हैं .यह एकतरफा मनोरंजनऔर ज्ञान प्राप्ति का माध्यम है जहां बच्चे के हाथ में रिमोट तो होता है पर रिदम नहीं ,विषय तो होता है पर विचार नहीं ,आँखें स्क्रीन पर चिपक जाती हैं गति का नामोनिशान नहीं होता .
बच्चे का मस्तिष्क कोरी स्लेट है .उसमें बहुत सोच विचार कर रंग और शब्द भरने हैं .कठपुतलियां उनकी सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं .
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