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अकेली हैं हीर;अकेले हैं रांझे

V2...Value and Vision
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जीवन का प्रत्येक दिन इस खूबसूरती से जियो मानो वह अंतिम दिन हो और जीने के लिए अगला दिन और नहीं मिलेगा .

सूर्य अपनी दहक तपन का
कभी नहीं है शोक मनाता
गुलाब चुपके-चुपके से ही
है अपना पतझड़ मनाता …………

एहसास नहीं देती निशा
कभी अपनी विकलता की
अनुभूति कौन है कर पाता
सावन के भी विहवलता की …………

किसने पूछा लता बेल से
सहारों में सुख क्या पाती है ?
नदी से तृप्त होकर भी ना पूछा
अपने लिए रख क्या पाती है ?…………

दूर जाती सड़क से कब पूछा
पड़े पाँव में कितने छाले हैं….
गोधुली से ना पूछा किसी ने
क्यों लब पर जड़े ताले हैं ……………..

अस्ताचल होता हुआ सूर्य
क्या निशा में शोक मनाता है?
दौड़ती-भागती सड़क पर कौन
ऐसे गहरे ज़ख्म कर जाता है ?

सबको खुशियाँ देने वाला
गुलाब ही क्यों झर जाता है?

सोचती सावन की आँखों में
कौन इतना नीर भर जाता है………

उम्र भर हंसाता सारे जग को जो
जीवन के उलझे-सुलझे क्षण में
क्यों मायूस इतना है कर जाता
डूबते सूर्य सा जीवन गगन में ……………..

अपने-अपने जीवन पथ के
सुख-दुःख कब हुए साझे हैं ?
अकेली जितनी हीर होती हैं
उतने ही तो अकेले रांझे हैं .
………..

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