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अच्‍छे से भय, बुरे से भय

V2...Value and Vision
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सिक्के को जब हवा में उछाला जाता है, तो हेड और टेल दोनों ही समान आत्मविश्वास के साथ जमीन की ओर गिरते हैं, क्योंकि वे बस दो पहलू भर हैं। ज़मीन पर ही निर्णय होता है कि कौन सा भाग ऊपर है और कौन सा नीचे। इसी प्रकार समाज में अच्छा और बुरा दोनों के आत्मविश्वास में कोई अंतर नहीं होता। बुरा अपने काम को सही समझता है और अच्छे के लिए भय का माहौल बना देता है। अच्छा अपने काम को लेकर विश्वास से भरा होता है और बुरे के लिए भय उत्पन्न करता है।

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इस अच्छे और बुरे के पीछे उद्देश्य से ज्यादा प्रवृत्ति भूमिका निभाती है। हिरणकश्यप की बुरी प्रवृत्ति ही थी कि वह अपने ही पुत्र के ईश्वर भक्ति से भय खाता था और उसे मारने की कोशिश करता रहा। बुरा करने वाले यह नहीं सोचते कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। उनकी प्रवृत्ति उन्हें सिर्फ और सिर्फ बुराई की ओर ले जाती है। वहीं, अच्छा करने वाले सिर्फ अच्छाई की तरफ प्रवृत्त होते जाते हैं। समाज में दोनों रहेंगे हमेशा कम और ज्यादा में, क्योंकि संतुलन एक भ्रम है।

यह हमारी जिम्मेदारी है कि अच्छाई को बढ़ाया जाए और बुराई को कम किया जाए। इसके लिए अच्छाई की ताकत को इंद्रधनुष के रंगों की तरह एकजुट होना होगा। अलग-अलग तरह की अच्छाइयां हर बुरी ताकत को एकजुट होकर ही मिटा सकती हैं।
हमारे अंतःकरण में जो भी संस्कार होंगे, हम वैसा ही व्यवहार करेंगे। आतंक की राह पर चलने वाले, भीड़तंत्र का हिस्सा बनकर आसानी से उबल जाने वाले, यह क्षण भर का उन्माद नहीं होता, बल्कि जीवन भर की इकठ्ठा की हुई घृणा, नफरत, हताशा, विवेकहीनता होती है, जो ज़रा सी बात पर ही आक्रामक होने में कोई कसर नहीं छोड़ती। यह ऐसा ही है जैसे किसी प्याले में चाय भरी हो और हल्का धक्का भर लगाने से चाय छलक जाए। अगर कॉफ़ी भरी हो तो कॉफी ही छलकेगी। हमारे भीतर जो होगा वही बाहर आएगा।

भीड़तंत्र के उन्माद, आतंकवादियों के दुस्साहस की कड़ी निंदा से कोई समाधान नहीं होगा। ज़रूरत है अच्छों की एकता की ताकत को बढ़ाने की और बुरों को तितर-बितर करने की। यह तभी संभव है, जब धर्म, भाषा, क्षेत्र के आधार पर की जाने वाली विभेदीकरण राजनीति को अच्छाई का श्वेत कफ़न ओढ़ाकर सदा के लिए मौत की नींद सोने दिया जाए। जब तक हमारे वतन के रहनुमा विभेदीकरण की राजनीति करेंगे, भीड़ भी उन्मादित होगी और आतंक का साया भी मंडराता रहेगा।

धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र इत्यादि की विविधता तो इंद्रधनुष के रंगों सी होनी चाहिए। एक साथ मिलकर भी अपनी अनोखे रंग के साथ दिखाई भी पड़ें और समाज रूपी कुदरत को इंद्रधनुषी भी कर दें। पत्थर फेंकने वाले युवाओं की भीड़ हो या गली सड़कों पर क़ानून को हाथ लेने वाली भीड़, सच तो यह है कि भीड़ का कोई चेहरा ही नहीं होता। वह इतनी कायर होती है कि अकेले किसी घटना को अंजाम दे ही नहीं सकती। अगर अकेले ले जाकर पूछो कि क्या तुम्हारी सच में हिंसा करने की मंशा है। फ़ौरन जवाब आएगा नहीं, मैं तो भीड़ के साथ हूं। अकेला आदमी विवेकी हो सकता है पर भीड़ विवेकहीन होती है। भीड़ में बुद्धि स्तर बहुत गिर जाता है।
विचारणीय बात यह है कि इस भीड़तंत्र की बढ़ती संस्कृति को रोका कैसे जाए। सबसे पहली शर्त है शिक्षा और डिजिटल शिक्षा सबसे ज्यादा। सोशल मीडिया का सदुपयोग कैसे करें, किसी भी सन्देश को बगैर प्रमाणिकता की जांच के आगे क्यों भेजें। किसी भी अफवाह को फैलने से कैसे रोकें और सबसे ज्यादा अपने अधिकार व कर्तव्य का ज्ञान होना। मुझे जीवित रहने का अधिकार है, तो मेरा कर्त्तव्य भी है कि दूसरों के जीवन का सम्मान करूं।
वर्तमान परिदृश्य में विविध रंगों के बिखराव की नहीं, इंद्रधनुष के निर्माण की ज़रूरत है। देशवासी एक हों अपनी अच्छाई की ताकत के साथ, ताकि बुरे स्वयं ही भय खा जाएं .
अच्छाई की एकजुटता का दम दिखाएं, ताकि बुरी ताकतें स्वयं ही नेस्तनाबूद हो जाएं।

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