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“अजी; नाम-वाम में क्या रखा है?”

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पिछले सप्ताह एक पार्टी में शिरकत के दौरान बातों का सिलसिला प्रारम्भ हुआ . प्रारम्भ में महिलाएं ही आस-पास थीं तो उनके पसंदीदा विषय “साड़ी और गहनों”से चर्चा शुरू हुई.अब पार्टियाँ सिर्फ snacks ,ड्रिंक या भोजन की व्यवस्था मात्र से तो लम्बी खींच नहीं सकती तो गपशप चलता रहा.थोड़ी देर में कुछ युवा पुरुषों ने भी हमारी महफ़िल का हिस्सा बनना चाहा. खैर; वे अपने पसंद के विषय “मोबाइल,bike,कार के नए मॉडल पर चर्चा करने लगे.धीरे-धीरे मध्य वय के पुरुष वर्ग भी हमारे समूह का हिस्सा बन गए और अब आप सब अंदाज़ लगा सकते हैं कि चर्चा का मुख्य बिंदु क्या होगा ? मौसम ? ठीक कहा, पर महज़ चंद लम्हों के लिए.फिर तो बात शुरू हो गयी “राजनीति”पर .राजनीति शब्द या विषय की सबसे बड़ी विडम्बना यह होती है कि यह ‘सर्वव्यापक’शब्द बहुतायत रूप में नकारात्मक प्रतीक के तौर पर प्रयुक्त किया जाता है जैसे तुम्हारी राजनीति यहाँ नहीं चलेगी,या फिर उस घर की वधु राजनीति में बहुत माहिर है वगैरह-वगैरह .इसकी लोग चर्चा भी करते हैं;रात-दिन इसमें मशगुल भी रहते हैं और इस से ही कतराते भी हैं.वो कहावत सूनी है न “गुड खाए और गुलगुले से परहेज़ करे”तो ज़नाब , वहां भी सबसे पहले युवाओं ने इस विषय की शुरुआत पर ही मुंह बनाया और चलते बने,महिलाओं ने ladies first की परम्परा का निर्वाह करते हुए खुद का रुख खाने की टेबल की तरफ करना ही बेहतर समझा.पर पुरुषों ने अपनी चर्चा जारी रखी ,उनके साथ हम जैसे कुछ संवेदनशील महिलाएं भी चर्चा में शिरकत कर रही थीं .लेखन के क्षेत्र में कदम रखने के साथ “व्यक्ति कम से कम तीन गुण अवश्य विकसित कर लेता है; कुशल श्रोता होने का गुण ,विश्लेषण क्षमता और संवेदनशीलता “बस इन्ही गुणों के वशीभूत राजनीति शब्द पर ऐसी प्रतिक्रिया,इसकी इतनी व्याख्या,इतनी परिभाषाएं और सभी के जुदा-जुदा अंदाज़ देख-सुनकर मैं भी इस विषय पर लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पायी.और हाँ आपको बताना चाहती हूँ १४ मार्च को पोस्टेड हरीश भट्ट जी का ब्लॉग भी पढ़ा जो इस ब्लॉग के लिए प्रेरणा स्रोत रहा “तार-तार हो रही राजनीति”उनकी व्याख्या भी अच्छी और सबसे जुदा लगी.उस ब्लॉग की अंतिम पंक्ति है‘राजनीति के महापंडित चाणक्य की धरती पर ही राजनीति तार-तार हो रही है”chanakya 1
चाणक्य(कौटिल्य,विष्णुगुप्त) की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र’ वैसे तो सभी विषयों को समेटे हुए है मसलन युधनीति ,अर्थनीति,कर से सम्बंधित नीतियां ,आंतरिक-बाह्य व्यापार,राज-काज की नीति,कानून आदि पर यह सत्य है कि इस पुस्तक का मुख्य विषय राजनीती ही है अर्थात राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए नीति.मैं यह सोचने को विवश हूँ कि क्या दूरदर्शी चाणक्य (जिन्होंने एक श्रुति के अनुसार पैर में कुश धंस जाने पर पुरे खेत में ही मट्ठा डलवा दिया था) उन्हें भी इस राजनीति शब्द के दुष्प्रयोग का पूर्वाभास था? उन्होंने अपनी इतनी महान पुस्तक का नाम ‘कौटिल्य की राजनीति’क्यों नहीं रखा ?उसे कौटिल्य का अर्थशास्त्र’ नाम ही क्यों दिया?वे कहीं न कहीं इस शब्द से बचते रहे.आखिर क्यों ??????

ये ठीक है कि राजनीति शब्द का तात्पर्य राज्य को व्यवस्थित रूप से चलाना है पर जब इस शब्द का प्रादुर्भाव हुआ तब राज्य राजा चलाते थे या यूँ कहिये कि राजतंत्र की व्यवस्था हुआ करती थी.आज जब विश्व के अधिकाँश देशों में प्रजातंत्र है तो राजतंत्र से सम्बंधित ये शब्द वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में प्रासंगिक ही कहाँ रह गया है????इस शब्द से ही क्या राजशाही की अनुभूति नहीं होती?दीमक की तरह यह शब्द भी लोकतंत्र को धीमे -धीमे खोखला करता जा रहा है जब हमारी शाषण व्यवस्था लोकतंत्र (जनतंत्र,प्रजातंत्र) है तो हम जननीति,लोकनीति शब्द क्यों नहीं प्रयोग करते? ,.जनता के लिए जनता के द्वारा, उन्ही के बीच से चुने गए प्रतिनिधी जब शाषण चलाते हैं तो हम नीतियों को जननीति ही कहें तो राजनीति से जुडी राज करने की स्वाभाविक भावना स्वयं ही जन सेवा की भावना में तब्दील हो जायेगी.

अब आप में से कुछ लोग अवश्य कहेंगे“अजी नाम-वाम में क्या रखा है?” क्या अमरपाल नाम होने से कोई अमर हो जाता है ?चलिए कुछ लम्हों के लिए मैं आप से सहमत हो जाती हूँ पर एक बात पूछना चाहती हूँ

“आप में से कितने लोगों ने अपने बच्चों के नाम मंथरा,शूर्पनखा,कंस,त्रिजटा,हिरनकश्यप,रावण इत्यादि रखे हैं?१% ने भी नहीं रखे होंगे, क्यों ? वह इसलिए कि कुछ नाम से पुर्वधारनायें इस प्रकार जुड़ जाती हैं कि वे नाम हम सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते.विभीषण कितने भी अच्छे थे पर इतिहास के पन्नों पर वे घर का भेदी कहावत से जुड़ गए हैं. चलिए, मैं एक नाम औरआपके समक्ष रखती हूँ ‘गब्बर सिंह’क्या किसी शांत संत की छवि ज़ेहन में उभरी?नहीं न!इसी प्रकार राजनीति शब्द भी राज करने की भावना से जुड़ जाता है ,फिर चाहे वह परिवार की छोटी इकाई हो या देश,विश्व की विशाल भूमि.इस शब्द से परहेज आवश्यक है.पर इतनी ज़ल्दी बरसों से प्रयुक्त ये सर्वव्यापक ,बहुप्रयुक्त शब्द कैसे भुला जाए? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है.यह भी मुश्किल नहीं क्योंकि जब हमने राजतंत्र से जनतंत्र को अपना लिया तो क्या राजनीति से जननीति शब्द तक का सफ़र पूरा नहीं कर सकते?

अन्ना हजारे जी भी जिस बिल से जुड़े उसका नाम राजपाल बिल नहीं ; ‘लोकपाल बिल’है. जिससे लोगों को जुड़ाव महसूस हुआ इसलिए मेरी गुजारिश है कि आज से नहीं बल्कि अभी इसी क्षण से राजतंत्र का एहसास दिलाने वाले शब्द राजनीति का प्रयोग बंद करिये और उसकी जगह लोकतंत्र से सीधे जुड़े शब्द लोकनीति का प्रयोग करिए.मेरा विश्वास है कि मेहंदी के रंग की तरह ही इस एक शब्द का रंग ठीक उसी तरह धीरे-धीरे चढ़ेगा जैसे बांटने,पिसने,लगाने वाले सभी को इस हिना का रंग चढ़ता है.

जय भारत,जय लोकतंत्र (प्रजातंत्र,जनतंत्र),जय लोकनीति(प्रजानीति,जननीति)

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