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“अनुगामिनी नहीं;सहचरी और शक्ति बनो”

V2...Value and Vision
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एक प्रसिद्ध कवि की पंक्ति मुझे हर अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर याद आती है“एक नहीं दो ,दो मात्राएँ,नर से भारी नारी है“यह सच है कि मैं नारी को अबला,अशक्त,निरीह इत्यादि विशेषणों से अलंकृत करने के सर्वथा विरुध हूँ .नर और नारी एक गाडी के दो पहिये सदृश हैं पर कौन सी गाडी के ? मोटर bike के या कार के ? अगर मोटर bike के तो मैं इसे गलत मानती हूँ .यह तो फिर नारी को पुरुष की अनुगामिनी बनाने का समर्थन है.इस पुरुष प्रधान समाज में अग्र पहिया तो पुरुष का ही रूपक होगा.हाँ, अगर कार के दाहिने और बायें पहिये के सदृश जीवन की गाडी को दोनों मिलकर ले चलते हैं तो यह भाव मेरे दृष्टिकोण से सर्वथा उत्तम है सहगामिनी बनना तभी तक संभव है जब दोनों एक दूजे को सम्मान दे , अगर पुरुष की वज़ह से स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व पर ही प्रश्नचिंह लग जाए तो उसे शक्ति बन समाज में अपने अस्तित्व को साबित करना चाहिए :-
किसी कवि की पंक्तियाँ हैं

युग-युग में जब-जब नारी बाती बनकर जलती है
देश जाति की मान-मर्यादा तब-तब सांचे में ढलती है

.नारी जाति को आज मैं इस मंच के माध्यम से एक सन्देश देना चाहती हूँ  कि वो एक सुंदर,सशक्त,शिक्षित समाज के निर्माण के लिए पुरुष की अनुगामिनी नहीं बल्कि सहचरी और शक्ति बने.
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सदियों से तुमने खुद को ,पुरुष की महज परछाईं माना है

क्या अपने सुदृढ़ व्यक्तित्व, को भी तुने कभी पहचाना है?

नारी तुम पुरुष की अनुगामिनी नहीं,सहचरी और शक्ति बनो……………..

धरती आकाश मिलते से लगते,पर यह सिर्फ एक भुलावा है

तुम्हारा पुरुष से मिलना, क्षितिज सा, मृग तृष्णाइ छलावा है

अब तुम इस युग में अर्थपूर्ण मिलन की जीवंत मूर्ति बनो. ……………

हरियाली जब जीवन की सूखे,शुष्क होने लगे रिश्तों की सरिता

कर्मयोगी बन जीवन में उतरो, कहती है ये पावन भगवदगीता

विचार स्वातंत्र्य अपनाओ और तुम स्वयं ही बस मुक्ति बनो…….

न ढलो उसके सांचे में और ना ,उसे अपने सांचे में ढलने दो

अपने रिश्तों को स्वाभाविकता से, सुख की गोद में पलने दो

स्वअस्तित्व की मशाल संग बढ़ती, एक प्रज्ज्वलित ज्योति बनो………………..

हर रिश्ते में और विभिन्न रूप से, पुरुष को नारी ने ही सवारा है

फिर भी आगे बढना स्त्री का, क्या उसे कभी कहो गवारा है????

अब दीन हीन अबला नहीं, अपितु शक्ति स्वरूपा कृति बनो……….

पुरुष परुष कितना भी हो पर, वह मोम बन पिघल बह जाता है

रिश्तों का मजबूत महल भी,ताश के पत्तों सा ढह जाता है

रिश्तों की दुर्बोध बनती भाषा को, सरल कर मुखर अभिव्यक्ति बनो………..

मुश्किल होती हुई घड़ी में भी ,आत्मविश्वास का सूर्य चमकता रहे

स्वाभिमान और स्वावलंबन संग ,चरित्र तुम्हारा आज दमकता रहे

तुम जीवन के सप्तरंग बिखेरती, सुंदर इन्द्रधनुषी प्रकृति बनो…………..

देखो हर युग,देश और जाति का, स्त्रियों ने भी तो मान बढाया है

गार्गी,मैत्रियी,सीता,दुर्गावती जाने,कितनों ने सम्मान दिलाया है

इनके सारे गुण समेटे ,सशक्त व्यक्तित्व की अमिट स्मृति बनो……………..

नारी तुम “अनुगामिनी नहीं;सहचरी और शक्ति बनो”

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