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“उनके घर के अँधेरे बड़े भयानक हैं “सांसदों पर टीम अन्ना की टिप्पणी ….(jagran junction forum )

V2...Value and Vision
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विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और शान्ति का अग्रदूत’ भारत देश’ आज भ्रष्टाचार,आरोप-प्रत्यारोप या यूँ कहिये कि जिस BLAME -GAME के झंझावातों से गुज़र रहा है और सूचना क्रान्ति में आये बदलाव की बयार की वज़ह से, जिस तरह यह दुनिया के कोने-कोने में पहुँच रहा है उससे भारत की छवि धूमिल हो कर परदेश में बसे हर शख्श को यह शेर याद दिला रही है ———–
“उनके घर के अँधेरे बड़े भयानक हैं
जिनके सारे शहर में चिराग जलते हैं “

“अन्ना टीम का बयान सच्चाई है या विशेषाधिकार हनन “इस विषय पर चर्चा के पूर्व वतन के मौजूदा हालात पर नज़र डालना मैं निहायत ज़रूरी समझती हूँ.आज रक्त बीज से जन्म लेते और नित्य अपनी संख्या में वृद्धि करते शुम्भ-निशुम्भ जैसे घोटाले, निश्चय ही जनता को अपनी शक्ति एकत्र करने को ललकार रहे हैं क्योंकि ‘मर्ज़ बढ़ता जाए ज्यों-ज्यों दवा की’ की कहावत को चरितार्थ करती जांच समितियां अपनी असफलता की कहानी खुद-ब-खुद बयान कर रही हैं.भ्रष्टाचार का विषाणु समाज के कुछ चयनित कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त करता हुआ अब लगभग आधे से ज्यादा सामाजिक शरीर में कैंसर बन उसके अस्तित्व को मिटाने के कगार पर आ चुका है.

पर फिर भी सवाल जब संसद की गरिमा का हो तो ऐसे में सीधे तौर पर किसी भी व्यक्ति के लिए अपशब्दों का प्रयोग किसी दृष्टिकोण से जायज़ नहीं है.और टीम अन्ना की तरफ से ये हुंकार इस लिए भी अस्वीकार्य हैं क्योंकि इसका नेतृत्व एक ऐसे शख्शियत से जुडा है जिन्हें गांधीवादी विचारधारा का माना जाता है.वे गांधीजी’ जिनका कथन था”अगर तुम्हारे एक गाल पर कोई थप्पड़ मारे तो दुसरा भी उसके आगे कर दो”सत्य तो यह है कि गांधीजी ‘मनसा,वाचा,कर्मणा’तीनों ही अहिंसा में विश्वास करते थे.और अगर इस कथन का आधुनिक रूपांतरण भी किया जाए तो “”एक थप्पड़ के बदले दुसरा थप्पड़ कहीं से परिपक्वता को परिलक्षित नहीं करता.””मेरी राय में उचित यह हो कि “किसी में इतना भी साहस कैसे हो कि एक गाल पर भी थप्पड़ मार सके”

अगर हम चोर,डाकू,जैसे शब्दों का इस्तेमाल करेंगे तो हमारी अहिंसा की नीति ही तो ताक पर रख दी गयी ,वह भी हमारे ही लोगों द्वारा.ऐसे में अन्ना टीम लक्ष्य से भटक सकती है लोग भ्रमित हो सकते हैं कि’ चले थे हरि भजन को ;ओटन लगे कपास’ फिर ऐसे शब्द प्रयोग कर अनैतिकता को और हवा ही क्यों देना?

मुझे उस दिन यह बयान सुनकर एक वाकया याद आया.हमारी महफ़िल में गेम चल रहा था और ज़ाहिर सी बात है कि एक जीतेगा तो कोई एक हारेगा.अब हारने वाली महिला ने बिना सोचे-समझे कहा”इस तरह बेईमानी और cunningness से तो कोई भी गेम जीत सकता है”इस बात का बीज इतना विषैला बना कि शत्रुता की अमरबेल बन आज भी उन दोनों के बीच बढ़ता जा रहा है.तो सोचिये,ये आक्षेप ज़ब आम जनता को नागवार गुज़र सकते हैं तो फिर संसद में बैठे लोगों को क्यों नहीं?वे भी इन्ही जनता के बीच से चुने लोग हैं.यहाँ मैं किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हूँ बस,अपने स्वभावानुसार नीतिगत बातों की तर्क पर अपने विचार इस विषय पर रख रही  हूँ.

‘लोकतंत्र’ का तकाजा है कि ‘संसद की गरिमा‘ का हर नागरिक ध्यान रखे.अफ़सोस इस बात का है कि विशेषाधिकार प्रस्ताव पारित करने की बात जहाँ से हो रही है उस मंदिर की एक-एक ईंट इससे पूर्व भी प्रयुक्त अपशब्दों,चप्पल प्रहार,गाली-गलौज जैसे कितने मानहानियों का नज़ारा देख चुकी है.तो क्या अन्ना टीम यह सोचे कि

‘हम ज़िक्र ही करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती ‘

मेरी राय में ऐसे किसी भी सोच की कोई दरकार नहीं.बातें नागवार गुज़रें तो क्रोध का प्रदर्शन भी इस तरह हो कि गलती करने वाले आत्मग्लानि महसूस करें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का मान रखना हर शिक्षित व्यक्ति का कर्त्तव्य है सोचिये; इस तरह अगर हर स्थान,हर सभा,महफ़िल में हम गलत बयानबाजी करते रहेंगे तो फिर एक बहस के बाद दुसरी,फिर तीसरी और…………………क्रम इतना लंबा कि मुख्य मकसद ही नेपथ्य में नहीं चला जाएगा?

मुझे दुःख इस बात पर है कि भारत जिस ‘संतोषम परम सुखं ‘के मूल-मंत्र पर अगाध विश्वास करता था आज हमने ही उस मंत्र को कब्र खोद कर दफना दिया है.घोटालों में लिप्त समाज को एक बार पुनर्विचार करना होगा क्योंकि “सब ठाठ पडा रह जाएगा,ज़ब लाद चलेगा बंजारा” अगर यह सत्य आत्मसात कर लें तो ये आरोप-प्रत्यारोप के बेसुरे संगीत खुद ही गायब हो जाएँ.a calm place

भागते रहे तमाम उम्र,हम तो सारी ज़मीन को हथियाने
साँसे थमी तो एहसास हुआ ;ज़रूरत तो सिर्फ २ गज की थी……………..

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मृत्यु के पूर्व अपने जीवन काल में ही लोग इस सच्चाई को शिद्दत से समझ लें तो कितना अच्छा होता पर यह तो हमारी सोच है….. काश !!मैं इन बातों को जन-जन तक पहुंचा पाती.

समस्या के तरफ ध्यान आकर्षित कराने के लिए अपशब्दों या ऊँची आवाज़ की ज़रूरत नहीं बल्कि ऊँचे आचार-विचार की ज़रूरत है .गांधीजी की तरह धैर्य से काम लेना होगा संसद में बैठे लोग भी शान्ति,धैर्य,शराफत का मान रखने के लिए एक दिन बाध्य हो जायेंगे.अंततः जिस तंत्र की हिफाज़त का जिम्मा जनता ने उन्हें दिया है ज़ब उसे ही रोगग्रस्त बनाने की तैयारी कर लेंगे तो वे भी इसके दुष्परिणाम से कहाँ तक बच पायेंगे.

“रहिमन चुप ही बैठिये;देख दिनन के फेर

दिन के दिन जब आइहें फिरत न लगिहैं देर.”

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