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दोस्तों ,अगर हमें किसी कार्य और लक्ष्य के लिए आगे बढ़ना है तो लोगों की नकारात्मकता से स्वयं को बचाना होगा.अगर अपने लक्ष्य सिद्धि के लिए कुछ दो-चार कदम अकेले ही चलना पड़े तो भी कभी विचलित मत होइए.कुछ महीने पूर्व मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा”तुम ब्लॉग तो लिखती हो पर उसे पढता ही कौन है,यह तो वक्त की बर्बादी ही है,बेहतर है तुम फिर से नौकरी करना शुरू करो”मुझे हंसी आ गयी.मैंने उसे प्यार से समझाते हुए कहा”अगर गांधीजी ने भी सोचा होता कि मैं क्यों अहिंसात्मक नीति अपनाऊं क्या मुझे नोबल अवार्ड प्राप्त होगा तो बोलो क्या पुरे विश्व को अहिंसा का ऐसा उदाहरण मिल पाता? और तुम्हे भी पता है कि चाहे जो भी वजह हो, उन्हें आज तक यह अवार्ड नहीं मिल सका.क्या रविंद्रनाथ टैगोरेजी ने गीतांजलि यह सोच कर लिखा था कि वे पहले भारतीय होंगे जिन्हें नोबल से सम्मानित किया जाएगा?”मैंने उसे बताया “मैं श्रीमद्भागवत गीता के एक चिर सत्य श्लोक पर अटूट विशवास करती हूँ “कर्मंयेवाधिकारास्ते माँ फलेषु कदाचन”श्रीकृष्ण ने जब यह उपदेश अर्जुन को दिया था तो क्या यह सोचा था कि युगों तक यह श्लोक कर्म योगियों की दिशा निर्देशित करता रहेगा ?
खैर दोस्तों, मैं ब्लॉग क्यों लिखती हूँ इसके पीछे कई कारण हैं .ये ब्लॉग मेरे तीस वर्षों में घटित किसी न किसी अनुभव और घटनाओं से सम्बंधित हैं.घटनाएं तो हमेशा घटित होती रहती हैं ;कुछ इन्हें सृष्टा भाव से देखते हैं,कुछ दृष्टा भाव से ,कुछ दोनों ही भाव से.पर कुछ लोग इन सारी घटनाओं के माध्यम से समाज में सकारात्मकता की ऊर्जा संवाहित करना चाहते हैं मेरे ब्लॉग न कोई कहानी है;न ही नाटक; है तो बस जिंदगी से जुडी अनुभूति और उसे देखने का मेरा अपना नज़रिया .
महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद्र जी की एक कहानी मैंने बचपन में पढ़ी थी बहुत संभव है कि आप में से भी कई लोगों ने पढ़ी होगी,”ईदगाह”इसमें हामिद की बाल-सुलभ संजीदगी में कुछ ऐसी कशिश थी कि मैं अत्यंत ही प्रभावित हुई. कहानी बिलकुल सरल और सहज भाव से लिखी गयी है पर यह भी तो समाज कि एक भावपूर्ण घटना या अनुभूति ही होगी .बालक हामिद का मेला देखने के लिए दिए गए पैसे से अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदना क्योंकि उसके हाथ रोटी पकाते समय जल जाते थे इसे प्रेमचंद्रजी ने सुंदर, सरल और भावपूर्ण रूप से कागज़ पर उतारा और बनी एक कालजयी सुंदर सी कहानी. यह कहानी आधुनिक धनाढ्य परिवार का हिस्सा अवश्य ही नहीं है लेकिन निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे इस कहानी को कई बार जीते हैं .जी हाँ ,वे समझौता करते हैं अपनी प्यारी चीजों से, सिर्फ अपने माता-पिता की खुशियों के लिए .ये कहानी आज भी कई परिवारों के लिए प्रासंगिक है;यह मैं विश्वास के साथ कह सकती हूँ क्योंकि मैंने भी उन क्षणों को अपने आस-पास जिया है
मुझे आज भी याद है शादी की पहली सालगिरह में मुझे जो उपहार मिला था वो शिवजी की एक मूर्ति और एक फ्रेम में जडित भोले शिव,माँ गौरी और भगवान् गणेशजी की तस्वीर थी .मैंने जो उपहार दिया वो था एक छोटा सा बटुआ. यह बाल सुलभ संजीदगी नहीं थी पर हाँ हमारे युवावस्था की संजीदगी ज़रूर थी जहाँ हम अपने गृहस्थी की शुरुआत कर रहे थे .संयुक्त परिवार में एक-एक पैसे का भी बहुत महत्व होता है हमने पैसे बचा कर उपहार ख़रीदे थे,जब मैं पूजाकर बाहर आती तो ये मुझे उदास पाते थे ,एक दिन पूछा तो मैंने बताया था “पूजा के स्थान पर मूर्तियाँ पूरी नहीं है सिर्फ एक शिवलिंग है जो पिताजी ने ससुराल आते समय दी थी”आप अनुमान लगा सकते हैं कि उस घटना ने हमें कितना करीब ला दिया.
ओडिशा में संबलपुर से कुछ दूर चुना-पत्थर की एक खदान है वहां एक गेस्ट-हाउस में पत्थरों की अत्यंत खुबसूरत कलाकृतियाँ बनी हुई हैं .जब मैंने लोगों से जानना चाहा कि इन कलाकृतियों को बनाने वाला शिल्पकार कौन है तो ज्ञात हुआ वह इस दुनिया में नहीं है मैंने पूछा”क्या यह कला उसने किसी को सिखाई है ?ज़बाब था,” नहीं ”
अब आप ही बताइये अगर उसने कला सिखाई होती तो क्या उसकी कला समाज में संवाहित न हो रही होती?मेरे ज़ेहन में इतिहास के पन्नों का वह पृष्ठ उभरा जिसमें मैंने पढ़ा था कि मुग़ल बादशाह शाहज़हां ने ताजमहल का निर्माण हो जाने के बाद कारीगरों के हाथ कटवा दिए थे ,इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो नहीं कह सकती पर सोचने को विवश थी इस कलाकार ने तो स्वयं ही अपनी कला को ज़िंदा दफ़न कर दिया उसके साथ उसकी कला भी चली गयी.
इन सारे दृष्टान्तों का एक ही तात्पर्य है “अगर आपके पास अच्छी शिक्षा,बात संस्कार,विचार आदि हैं तो उसे समाज हित में अवश्य संवाहित होने दीजिये,वक्त किसी कि प्रतीक्षा नहीं करता;कोई अमर नहीं है;जिंदगी की क्षणभंगुरता को हमेशा अपने ज़ेहन में रखिये और प्रत्येक दिन सर्वोत्तम ढंग से व्यतीत करने की कोशिश करिए”
मुझे लिखने का शौक है आलम यह है कि घर के सारे काम करते हुए भी दिमाग में जब भी कोई नए विचार आते हैं तुरंत ही उसे कागज़ पर लिख लेती हूँ और पढना भी बहुत पसंद है ,अगर कहीं भी अच्छी पाठ्य सामग्री मिले तो ज़रूर पढ़ती हूँ फिर भले ही किसी कागज़ में समोसे ही लपेट कर क्यों न मिले हों .बाद में समोसे खा लुंगी मगर वह पाठ्य सामग्री सहेज कर रख सकती हूँ तो उसे अपनी डायरी का हिस्सा बना लेती हूँ
किसी पुस्तक में पढ़ा था”प्रत्येक दिन ऐसे जियो जैसे यह आपका अंतिम दिन हो और सर्वोत्तम देने का प्रयास करो”मैं इस पंक्ति में महज़ एक नवीन पंक्ति जोड़ देना चाहती हूँ “प्रत्येक दिन,घटना,व्यक्ति,स्थान में इतनी सकारात्मकता तलाशो मानो वह आपकी अंतिम तलाश हो”.
चलते-चलते मशहूर शायर निदा फाजली साहिब का एक शेर याद आ रहा है”मस्जिद तो है कोसों दूर ,चलो किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये” हकीकत है दोस्तों शुरुआत तो हमें आस-पास से ही करनी होगी
ब्लॉग पढने के लिए धन्यवाद,शुक्रिया
ज़ल्द ही लौटूंगी फिर किसी नए विचार,नयी सोच के साथ तब तक के लिए नमस्कार
यमुना पाठक
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