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यह कहा जाता है ” अभाव में स्वभाव बदल जाता है ” आर्थिक , सामाजिक ,सांस्कृतिक ,पारिवारिक कोई भी अभाव इंसान को जीवन को प्रसन्नता से जीने से दूर खींचते हैं. “इंसान कितना भी धैर्यवान हो सब्र से 29 दिन काट लेता है पर आखिर 30 वें दिन वह टूट जाता है और वह तीसवां दिन हर महीने ज़रूर आता है. “पर अगर जीवन जीने का सलीका और भाव हो तो वह सुबह के बाद रात , चढ़ाव के साथ उतार ,फूल के सा
थ काँटों की अनिवार्यता के प्रभाव को समझ कर उस तीसवें दिन की कठिनाई के हल को निकाल लेता है और अगर हल न निकले तो उसे जीवन का भाग समझ कर आगे बढ़ जाता है.
जीवन एक कर्त्तव्य है जिसका पालन ज़रूरी है .जब तक हम मरते नहीं तब तक जीना है अतः वस्तुतः जीवित रहना है …यह कह कर जीवन शुरू करना है कि “जीवित रहना महान है.जीवन परमात्मा का दिया अनमोल उपहार है जिसे सम्हालना महान कार्य है.जीवन एक संगीत है जिसके साज और आवाज़ पर महारत हासिल ना भी हो पाये तो क्या !!! पक्षियों के कलरव ,नदियों की कल कल ,हवा की सरसराहट सा सहज नाद तो उत्पन्न किया ही जा सकता है.जीवन एक यात्रा है नदी सी जो न तो रूकती है न ही पीछे जाती है .कल कल निनादित नदी में भी क्या सब कुछ अच्छा ही होता है .नहीं कभी बाढ़ की भयानकता तो कभी बेहद मटमैलापन को झेलती है …फिर भी नदी अपने लक्ष्य की ओर बहती जाती है …यह सच है कि जीवन के समंदर में घटनाओं की लहरें उठती हैं.अनंत लहरें उठती …लहराती और बिखर जाती हैं पर यही तो प्रक्रिया है जिससे जीवन का अस्तित्व है जो उसे संचालित करता है.जहां से हम गुज़र जाते हैं वह मिट जाता है.जीवन उथले नाले सा नहीं होना चाहिए कि तनिक पानी बढ़ा कि उफनने लगे .यह समंदर की तरह गहरा होना चाहिए कितनी भी नदियां इसमें मिलें पर इसमें बाढ़ कभी नहीं आती है.
एक छोटा सा वाक़या है ….दो बच्चे पिता के साथ कार में बैठे जा रहे थे.एक आगे भागती सड़क को देख खुश होता और कहता जाता “पापा मुझे और आगे जाना है”दूसरा पीछे कार चलने से उड़ती धूल को देख कर उदास होता और कहता जाता “पापा हम घर कब पहुंचेंगे?”यह दृष्टिकोण का फर्क है.जीवन जीने के प्रति उल्लास और जीवन के प्रति निराशा इसी दृष्टिकोण का नतीजा है.
वर्त्तमान समाज में आत्महत्या की प्रवृत्ति के पीछे पर्यावरण की शूलें हैं या परवरिश की भूलें कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पाता.नकली उल्लास ,मुखौटों वाले संस्कार ,खोखले रिश्तों ने समाज की चूलें हिला दी हैं.ना जाने किन दीमकों ने जड़ों को खोखला करना शुरू कर दिया है.जब एक एक कर विचार विश्लेषण किया जाये तो पूरा समाज ही कठघरे में खड़ा दिखता है.
किसानों के द्वारा की गई आत्महत्या झकझोर देती है.आज से 15-20 वर्ष पूर्व यह हालात नहीं थे.मुझे याद है पापा दो भाई थे और पापा के चचेरे दो भाई थे .पापा कमाने के लिए शहर आये .चचेरे एक भाई भी कमाने के लिए कलकत्ता चले गए .घर पर रहने वाले भाईयों ने खेती सम्हाल ली .दोनों ही भाई को जब ज़रुरत पड़ती शहर से कमाए पैसों का कुछ हिस्सा उनकी मदद के लिए रखा जाता था .गांव की शुद्ध घी ,अनाज ,अचार पापा और शहर वाले चाचा के साथ शहर आ जाते .आर्थिक सामाजिक पारिवारिक अन्तर्सम्बन्ध का प्रभाव था कि खेती में नुकसान होने पर भी खेतीहर भाइयों को आर्थिक मुसीबत नहीं होती बच्चों की पढ़ाई और अन्य खर्च चलते रहते .जिस साल अच्छी फसल होती उस साल पैसों की अच्छी बचत हो जाती थी..ऐसा सिर्फ मेरे घर में ही नहीं तत्कालीन समाज में लगभग सभी गाँव के घरों में था .धीरे धीरे शहरीकरण ने जोर पकड़ा और अब मेरे भाईयों ने अधिया पर खेती दे दी और वह अन्तर्सम्बन्ध टूट सा गया है.आज दोनों ही पक्ष असंतुष्ट है .अगर परिवार समाज और सरकार मिल कर खेती और खेतिहरों को अन्तर्सम्बन्ध की संजीवनी दें तो किसान कभी आत्महत्या ना करें.
किशोरियों युवतियों या महिलाओं में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण दुष्कर्म ,यौन शोषण से उपजे शर्म भाव और निराशा है.समाज संस्था परिवार और स्वयं उस युवती विशेष को समझना होगा कि जिस गलती के लिए वह जिम्मेदार ही नहीं उसके लिए जीवन से पलायन क्यों करे.आत्महत्या किसी समस्या का अंत नहीं है.आजकल कुछ शॉपिंग मॉल्स होटल हॉस्टल हॉस्पिटल तक में छुपे कैमरे होते हैं .अगर किसी युवती की ऐसी कोई अश्लील वीडिओ बन कर प्रचारित हो जाती है तब भी आत्महत्या करने से कुछ हासिल नहीं होगा. तकनीक विकास के ऐसे क्षुद्र उपयोग की क्षुद्रता पर जीवन जैसे महान उपहार को नष्ट नहीं किया जा सकता है.दोषी वह नहीं बल्कि कैमरे छुपा कर रखने वाले और वीडिओ प्रचारित करने वाले लोग हैं .इसके लिए कोई युवती आत्महत्या क्यों करे ?किशोर और युवा वर्ग में कुछ पढ़ाई के दबाव कुछ प्रेम सम्बन्ध में असफलता और कुछ वैवाहिक संबंधों के मन मुटाव की वज़ह से मौत को गले लगा लेते हैं.मन की चंचलता को रोकना और चरित्र निर्माण उम्र के आरम्भ से ही करना होगा ताकि व्यक्ति विशेष का विवेक चैतन्य रहे.वृक्ष की कोई शाखा सूखने लगती है तो वृक्ष स्वयं नहीं सूख जाता बस उस टहनी को अपने से अलग कर देता है.जो सम्बन्ध ,परिस्थिति दुःख और पीड़ा दे उससे अलग हो जाना ही बेहतर है.
मुझे याद है जब स्थानांतरण के दौरान फ़लकनामा एक्सप्रेस में सारे कीमती सामान और ज़रूरी काग जात के साथ मेंरे दो सूटकेस चोरी हो गए थे तब नई जगह आकर मेरा मन बहुत उदास रहता था…लापरवाही का आत्मबोध मुझे ग्लानि से भर देता था..कुछ दिन तक समय से खाना नहीं खाती …मैंने योगाभ्यास शाम की सैर सब छोड़ दिया था . एक दिन यूँ ही अपने जीवन के मक़सद अपनी बिटिया और पतिदेव का ख्याल किया और सोचा इन्होने क्या बिगाड़ा है.मैं इन्हे कष्ट ही तो दे रही हूँ.दिवंगत पिता की डायरी उठा कर पढने लगी एक जगह उन्होंने किसी कथन का ज़िक्र किया था “मन जब निर्बल होकर अपने ऊपर विश्वास खो बैठता है या उसकी शक्ति से परवर्ती अन्य शक्तियां अपने महानतम प्रबल रूप में होकर उसकी अधिकार परिधि से बाहर हो जाती हैं तब मन को शक्ति सम्पन्न करने के लिए अपने से ज्यादा शक्तिमान का सहारा ले कर याचना करनी पड़ती है.और वह महाशक्ति ईश्वर है और वह याचना है प्रार्थना .पिता के द्वारा दी गई भगवद गीता पढ़ना शुरू किया और कुछ दिनों में ही मैं अवसाद से बाहर हो गई.एक पृष्ठ में (संकलित )यह भी लिखा पाया …
“है अभी बाकी कुछ अज़नबी रास्ते
चलते रहो…चलते रहो
क्या खबर किस ओर जाती हो
मंज़िलों की डगर
वल्लाह तुम कभी न करना आँख नम
कि रू-ब -रू आ जाए मंज़िल
और तुम गुज़र जाओ
अश्कों का चिलमन लिए .”
आत्महत्या की प्रबल से प्रबल मंशा भी ज़िंदगी जीने की सशक्त इच्छा से सदा कमज़ोर होती है.ऐसे में परिजन ,संगी साथी का आत्मिक दोस्ताना व्यवहार बातचीत ,जीवन जीने के मक़सद का एहसास करा कर व्यक्ति को जीवन की तरफ मोड़ देता है. संसार की कोई भी परेशानी ऐसी नहीं जिसका दबाव कोमल से ह्रदय को पाषाण कर दे और अगर करता है तो भी उस पाषाण ह्रदय में स्नेह जिम्मेदारी प्यार और विश्वास का सोता सदैव मौजूद रहता है जो फूटने को हमेशा तैयार होता है .
कुछ संकलित पंक्तियाँ लिख रही हूँ …
” डूबता है सूरज तो निकल पड़ता है चाँद
डूबता है रात का अँधेरा तो निकल पड़ती हैं किरणें
डूबता है दिल तो निकल पड़ते हैं आंसू
डूबता है गम ज़िंदगी का तो निकल पड़ती है हंसी
ना जाने किसने जाना है यह जीवन है या दो नदियों का संगम
सुख दुःख का मिलन जो जीवन की मिठास को चूम सके ..
.मधुर रस में झूम सके ..
मदमस्त होकर नाच सके ..
रोकर भी हंसी ला सके .”
जीवन जीने के दो ही तरीके हैं..अतीत से मुक्त होना और भविष्य के प्रति उन्मुख होना .और यह स्वयं के द्वारा ही जानी जा सकती है.राह में कंकड़ कितने भी हों अच्छे जूते पहनकर चला जा सकता है पर अगर जूते में कंकड़ हो तो दो कदम चलना मुश्किल है और यह भी सही है कि जूते में कंकड़ का एहसास हम ही कर सकते हैं और हम ही उसे दूर भी कर सकेंगे.अंत में कहीं पढ़ी हुई कुछ पंक्तियाँ …
“गर कोई उम्मीद न हो तो ना उम्मीद मत होना
जीने के हज़ारों तरीके हैं फिर काहे का रोना
जीवन ईश्वर का दिया अनमोल तोहफा है
रोकर ना इसे गुज़ारो कल किसने देखा है.”
एक स्वस्थ,सुन्दर ,प्रसन्न ,दीर्घायु जीवन की शुभकामना लिए आप सबों के साथ
यमुना
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