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डैंड्रफ वाला तोता

V2...Value and Vision
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दोस्तों ,मुझे टी.वी पर लोगों की ज़रूरतों,अभिरुचियों,चाहतों को प्रतिबिंबित करते…उत्पाद के प्रति लुभाते… आकर्षित करते …विज्ञापन सदा ही आकर्षित करते है..उत्पादों के प्रति आकर्षण हो …कोई ज़रूरी नहीं पर अधिकाँश विज्ञापनों के भाव से प्रभावित होती हूँ .आजकल चुनावी महापर्व या यूँ कहें चुनावी महासमर के मौसम में सबसे ज्यादा आकर्षित कर रहा है ‘डैंड्रफ वाले तोते’ का विज्ञापन …”जिसमें छत से पपड़ी गिरने की सत्यता को एक तोता बताता है जबकि मीडिया उस तोते को ‘डैंड्रफ वाले तोते’ के रूप में खबर बनाने की जल्दी में होता है”.सम्बंधित उत्पाद में तो मुझे कोई रुचि नहीं …हाँ,मीडिया पर किये व्यंग से सरोकार रखती हूँ और जब उन्नाव जिले के डाँड़ियाखेड़ा गाँव में साधू शोभन सरकार के स्वप्न के फलस्वरूप खुदाई का कार्य और उसकी कवरेज लेते मीडिया की भूमिका देखा तो इस विज्ञापन का व्यंग और भी मुखर लगा.सच कहूं ,अगर जमीन भी विज्ञापन वाले तोते की तरह बोल सकती तो चीख कर कहती,”प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ,तुम अपनी असली भूमिका क्यों भूल रहे हो ?बंद करो ‘साधू,स्वप्न और सोने ‘सरीखे अंधविश्वास की कवरेज.“ऐसा ही कुछ वर्ष पूर्व हुआ था जब गणेश जी द्वारा दूध पीने की खबर बगैर सोचे ,समझे, मनन किये पूरे देश में फ़ैल गई थी तब भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ही फूर्ति दिखाई थी.स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में ,”मैं आप सब को अन्धविश्वास,मूर्ख देखने की बजाय चाहूँगा कि आप सब घोर नास्तिक बन जाएं क्योंकि नास्तिकता जीवन तो है जिससे हम कुछ बन सकते हैं पर यदि अन्धविश्वास में फंस गए तो बुद्धि चौपट हो जाती है,सोचने की शक्ति क्षीण हो जाती है जीवन का ह्रास हो जाता है. पर जमीन नहीं चीखी.. अपने कुछ अन्य स्तम्भ के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सक्रिय रहा.
यह अन्धविश्वास के साथ पलायनवादिता ही तो है कि एक स्वप्न के सच को तलाशा जाए …जबकि कई सच रोज जाहिर होते हैं और मौत बन कर दफ़न हो जाते हैं ..
.सच को गहराई में दफ़न कर देना और स्वप्न को गहराइयों से निकालने की कोशिश करना …जाने कैसा विरोधाभास है जिसे मीडिया कारण सहित पूरी निष्पक्षता से दिखाने के बजाय किसी खेल की कमेंट्री के सदृश जुबान देकर ,अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर चुप्पी साध लेता है..प्रिंट मीडिया के लिए तो फिर भी प्रेस कौंसिल ऑफ़ इण्डिया जैसी नियामक संस्था है पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कोई नियंत्रण नहीं है.दो चार दिन पूर्व एक चैनल ने डेल्ही से २३८ किलो मीटर दूर भानगढ़ के किले के रहस्य पर ध्यान लगाया हालांकि बार-बार कहा गया हम वैज्ञानिकता पर विश्वास करते हैं अन्धविश्वास को बढ़ावा नहीं देना चाहते पर साथ ही दीवारों पर बनी आकृति,टीम के साथ जो आदरणीया महिला थीं किले के अंदर उनकी तबीयत खराब होने की बात को वे ना बताएँ ऐसा भी नहीं हुआ. उनके अनुसार ,”चाँद पर पहुँचने के युग में चांदनी रात में भूतों की मीटिंग ‘ को पास के गोलकवास गाँव में किसी ने नहीं देखा था ; हाँ ,सुना ज़रूर था.”फिर ज़रुरत क्या है ऐसी खबरों की ,जब गाँव के निवासी ही उस किले से जुडी डरावनी बातों को सच में देखे जाने से इंकार कर रहे हों .देश विदेश से जुडी तमाम खबरें हैं उन्हें दर्शकों तक पहुंचाना ज्यादा ज़रूरी है.बजाय अंधविश्वास से जुडी खबरों को दिखाने के .मेरी समझ से ऐसी जगह जहां अँधेरा हो,चमगादड़ उड़ रहे हों ,किसी की भी तबीयत बिगड़ सकती है.
अब ऐसा क्या किया जाए कि मीडिया स्वतंत्र भी हो और प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ की महत्त्वपूर्ण भूमिका को भी निभा सके .इसके लिए इस चौथे स्तम्भ को स्वयं चार बातों पर ध्यान केंद्रित करना होगा…खबरों के प्रकृति की सत्यता और निष्पक्षता,स्वयं की सजगता,अभिव्यक्ति की स्पष्टता,तथा भाषा प्रयोग में शिष्टता .
दूसरी अहम् बात 24 *7 की खबर प्रणाली बंद करनी होगी.समाचार चैनल के नाम पर वाद-विवाद,आरोप-प्रत्यारोप,मनोरंजन,बाबाओं ,ज्योतषियों के कार्यक्रम पर रोक लगानी होगी.किसी भी खबर की कवरेज निकालने और बार-बार प्रसारित करने के इस पॉपुलैरिटी सिन्ड्रोम से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बचना चाहिए.
मुझे याद है जब आठवीं कक्षा में पढ़ती थी तब पापा हर दिन समाचार पत्र पढने को कहते क्योंकि खबर पढने के साथ शब्दों का भण्डार उनकी वर्तनी की शुद्धता खुद ब खुद हम सीख सकते थे,साथ ही वे हमें रेडियो पर प्रसारित खबरें सुनने को भी प्रेरित करते थे. कहते ,शब्दों के उच्चारण में सुधार होगा और वाक् शैली परिष्कृत होगी.फिर दूरदर्शन प्रचलन में आया तो उनका कहना था अब तुम समाचार सुन कर ज्ञान वृद्धि के साथ उच्चारण ,भाव,शब्द समझने के साथ बोलने की तहज़ीब भी
सीख सकोगी.सच था हम समाचार उदघोषक/उदघोषिकाओं से शालीन,शिष्ट भाषा, विचार-विमर्श के दौरान बातचीत की तहज़ीब सीख पाते थे आज भी कुछ चैनल बेहद अच्छे हैं लोक सभा,राज्य सभा टी.वी ,डी.डी भारती में प्रसारित बहस,विचार विमर्श बहुत ही आकर्षक होते हैं.पर अन्य कुछ चैनल में बेबाकी के नाम पर जो वाक् युद्ध चलता है वह चौथे स्तम्भ की मज़बूती पर प्रश्न चिन्ह छोड़ता है.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चूँकि बच्चों- बड़ों, स्त्री -पुरुष ,गाँव शहर तक अपनी सहज पहुँच रखता है अतः उसे अत्यंत संजीदा ,सजग ,तार्किक और निष्पक्ष हो कर खबरों को पहुँचाना होगा.किसी भी मुद्दे पर विचार-विमर्श,बेबाक बहस के नाम पर ऐसा कुछ भी ना दिखाएँ जिसकी प्रति मिनट के कवरेज से दर्शक को कुछ भी
हासिल होने वाला नहीं है.समाचार ना तो क्रिकेट मैच होते हैं ना ही किसी फ़िल्म की कहानी जिसे देखने और दिखाने के लिए हर शॉट…हर कोण के साथ बार बार प्रसारित किया जाए.अगर हिंसा की खबर है तो उसे बार-बार दिखाने से अन्य संवेदनशील स्थानों पर भी हिंसा हो सकती है ..अतः ऐसे समाचार हर कोण से दिखाने की कोई ज़रुरत नहीं .पहले इतने चैनल नहीं थे तो प्रतियोगिता,टी.आर .पी .,आय ( revenue )की कोई आपाधापी भी नहीं थी,बिहारी के दोहे की तरह (सतसैया के दोहे ज्यों नायक के तीर,देखन को छोटे लगे,घाव करे गम्भीर)समाचार सारगर्भित,विषय केंद्रित,संक्षिप्त और प्रभावकारी होते थे.बिना शब्दों के आडम्बर और अतिश्योक्ति के जटिल से जटिल विषय प्रस्तुत होते थे .जब १९७१ में भारत-पाक युद्ध चल रहा था,लोगों से धैर्य रखने के साथ ,रात में घरों की बिजली बंद रखने की हिदायत दी गई थी…पूरी प्रमाणिकता के साथ खबरें जनता तक पहुँचती थी पर आज की तरह…सावधान,खबरदार…कोई है….जैसे शब्दों से आपके आस-पास के डर भय संशय,अशांति को और भी भयावह नहीं बनाया जाता था.सबसे पहले खबर मैंने दिखाया…मैं सबसे तेज….मेरी खबरें सर्वाधिक प्रमाणिक…ये कैसी प्रतियोगिता है ?मुझे जमशेदपुर की ओर जाने वाली ट्रेन में एक चाय वाला याद आता है ,वह कहता था,”खराब से खराब चाय पीयो”और सारे ग्राहक उसे बुला कर चाय खरीदते.कोई नेता…कोई चैनल तो यह कर के देखे …मैं खराब से खराब नेता हूँ…मैं घटिया से घटिया चैनल हूँ…देखो लोग स्वयं खींचे आयेंगे ऐसे नेता ऐसे चैनल की तरफ.
एक दर्शक होने के नाते मैं अपेक्षा करती हूँ कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने खबरों के दौरान यह ध्यान रखे कि स्टूडियो में आये मेहमान के शब्दों को आरोप-प्रत्यारोप ,गरम बहसबाजी में परिवर्तित होने के पहले ही कैमरा बंद कर दे.खबरें इस तरह प्रसारित करे कि जनता में स्थानीय,राष्ट्रीय,अंतराष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जीने का उत्साह आये.उस खबर की प्रमाणिकता ठोस रहे. खबरों द्वारा नेताओं की जन्म कुंडली नहीं ;देश के लिए उनके द्वारा किये गए कार्यों और नीतियों की कुंडली जनता के समक्ष रखी जाए…तभी देश का चौथा स्तम्भ जिम्मेदार माना जा सकेगा .

तुम हुंकार की वर्णमाला गढ़ो
पर कोई अक्षर छूट ना जाए…
तुम अवाम की आवाज़ बनो
पर आवाज़ वो घुट ना जाए…
तुम हर पटकथा के कथाकार बनो
पर कोई किरदार खो ना जाए…
तुम सत्य की मूरत बनो
जो जितनी सुन्दर सामने से हो
सुन्दर
उतनी ही हो
पृष्ठ से भी
(प्रायः मूरत सिर्फ सामने से सुन्दर होती है)

तुम्हारी सत्यता,निष्पक्षता में
ना हो सके संशय की कोई गुंजाईश

तुम पर हमें है दम्भ

क्योंकि ….तुम हो

प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ.

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