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तू ना समझेगा सियासत;तू अभी इंसान है

V2...Value and Vision
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क्या वर्त्तमान राजनीति व्यक्ति केंद्रित है ?तीन नाम अरविन्द,राहुल,मोदी जो सोशल मीडिआ में क्रमशः पलटू ,पप्पू,फेंकू के उपनाम से प्रचलित हैं और जिन्हे मैं मूवी ‘त्रिदेव’ के सीधी टोपी वाले ,बाबू भोले भाले,नेता चाय वाले के गीत के साथ याद कर सकती हूँ उनमें मुझे एक अज़ीब सा आपसी सम्बन्ध दीखता है जो चुनाव परिणाम आने के बाद स्पष्ट हो जाएगा .तीनों ही आपस में त्रिदेव या त्रिकोण की तरह भारतीय राजनीति को नई दिशा देने को तैयार हैं .कमल भाजपा में खिलता ज़रूर है पर नाम तो ‘आप’ में चलता है अरविन्द अर्थात कमल…शहज़ादा राहुल को कहा जाता है पर नाम तो वह ‘नरेंद्र’ के अर्थ में है नरेंद्र अर्थात राजा …राहुल गांधी हैं तो कांग्रेस में पर उनका नाम तो गुजरात के गांधी में भी है …अर्थात देश के तीन सिपाही आपस में कहीं ना कहीं जुड़े हैं आई समझ में यह सियासत …सोचिये…..

“मसलहत आमीज़ होते हैं सियासत के कदम

तू ना समझेगा सियासत तू अभी इंसान है “

यह मशहूर शेर जब जब सुनती थी , सियासत से भय लगता था आज इस मशहूर शेर को इस एक कहानी के साथ याद करने को विवश हूँ . एक बार गिद्धों के एक झुण्ड को भोजन की किल्लत हो गई.उस स्थान पर मनुष्यों के कई समुदायों में मुख्यतः दो परस्पर विरोधी समुदाय सदा लड़ते रहते थे.अतः गिद्धों के झुण्ड के सरदार ने योजना बनाई कि दोनों समुदाय के प्रतीक स्वरुप बनी मूर्तियों को चोंच मार कर थोड़ा तोड़ दिया जाए.गिद्धों ने ऐसा ही किया .अगली सुबह मूर्तियों की टूट फूट देख कर दोनों समुदाय आपस में भिड़ गए और कई लाशें बिछ गईं .गिद्धों की योजना सफल हुई उनका भोजन तैयार था.
वर्त्तमान चुनावी महासमर के परिदृश्य में ना जाने यह शेर और कहानी मुझे क्यों बहुत ही प्रासंगिक लग रही है.एक उभरती पार्टी कुछ करना चाहती है पर पूर्व स्थापित पार्टी उसका रास्ता रोक देती है.२०१४ का यह कुरुक्षेत्र राजनीति के परीक्षित (tried & tested)और नवोदित (innovated)दो चेहरों का संघर्ष बन गया है .परीक्षित चेहरे नवोदित चेहरे को काली स्याही से रंग देने पर अमादा हैं , ब्रिटिश शाषण काल में इस्तेमाल बासी काले झंडों से नवोदित का विरोध कर रहे हैं जब कि अगर उन्होंने अच्छा काम किया है तो उन्हें अपने श्वेत रंगों पर काली स्याही से अधिक भरोसा होना चाहिए….. भाषणों में मुख्य मुद्दों का स्थान परस्पर वाक् युद्ध ने ले लिया है .भाषणों में जहरीले शब्द पर आपत्ति जताने पर नेता यह भी कहते सुने गए कि संसद में भी तो ऐसी ही भाषा प्रयुक्त होती है……..चुनावी घोषणा पत्र में देश से जुड़े मुद्दों से ज्यादा किसी दल के व्यक्ति विशेष के आक्षेप बोले समझाए जाते हैं.समझ में नहीं आता कि चुनावी घोषणा पत्र है या राजनीतिक दलों के ग्रह दशाओं की कुंडली है ……..लोक सभा से राज्य सभा की दूरी महज़ पांच मिनट की है पर बिल पास होने में पांच वर्ष लग जाते है………कोई अपने से अनुभवी की बात मानने का तैयार नहीं है.एक बार गोखले ने गांधी जी का सलाह दी थी,“अगर देश का जानना है तो पूरा देश घूमो,कम बोलो,सिर्फ लोगों का सुनो उनकी बातों का जानो ,तब देश का समझ पाओगे .”पर आज नेता कहते हैं लोग सुनते हैं जनता की सुनने की कवायद एक ने शुरू की अन्य ने अनुसरण किया पर सब आडम्बर बन रह गया वास्तविकता कहीं नहीं दिखी.
दरअसल प्रजातांत्रिक राजनीति का यह जो दृश्य दिख रहा है वह इसलिए नहीं उत्पन्न हुआ कि लोग अमानवीय हो रहे हैं बल्कि इसलिए है कि १९४७ का प्रजातंत्र और १९५० का पुरातन गणतंत्र आज जनता के काम का नहीं रह गया है.उनो कार्ड के खेल की तरह ताकतवर खिलाड़ी अपने मर्जी से खेल के नियम बना रहा है …कमजोर खिलाड़ी हार की चालबाजी वज़ह जान कर कार्ड का पूरा पैकेट फाड़ देने पर अमादा है और वह जनता जो बेहद प्रयोगधर्मी हो गई है वह समझ नहीं पा रही कि उनो के इस बचकाने से परिपक्व खेल में वह क्या करे . कोई नया खेल विकसित करे …दोनों बच्चों को सबक सिखाये …उनकी सम्पूर्ण परिपक्वता का इंतज़ार करे या मूक दर्शक बन खेल का मज़ा ले .आम लोग अराजनैतिक या राजनैतिक अनिच्छा से नहीं जी रहे बल्कि संचार क्रान्ति के युग में वे अपनी प्रयोगधर्मिता और जागरूकता को भरपूर प्रदर्शित कर रहे हैं.उन्हें मंदिर-मस्ज़िद के धार्मिक उन्मादों ,जाति-पाति के घिसटते प्रश्नों ,आरोप -प्रत्यारोप के शब्द भेदी बाण से कोई सरोकार नहीं उन्हें ग्लोबल गाँव में सफलता पूर्वक खड़े होने के लिए ठोस धरातल वाली राजनीति चाहिए .वक़्त तेजी से बदला है उसके अनुरूप ना तो धर्म के मायने बदल पाये ना ही राजनीति के .कितनी क्रांतियां हो जाती हैं प्रतीत होता है कि इस क्रान्ति के बाद सब कुछ सुखद स्वर्णिम सुन्दर हो जाएगा पर नहीं हर बार चुनाव के बाद नई समस्याएं तो जन्मती ही हैं पुरानी समस्याएं और भी विकराल रूप धारण कर चुकी होती हैं .राजनीति को इंसानियत से जुड़ना होगा ताकि सभी सियासत को समझ सकें और अपनी अपनी जवाबदेही के साथ इस लोकतंत्र का हिस्सा बन सकें.राजनीति को सही अर्थों में धर्मं से जोड़ना होगा.“राजनीति तो सदियों से दूसरों से ही शुरू होती आई है.राजा अपने कार्यों के प्रशस्ति गीत के लिए दरबारी कवियों पर निर्भर होता था…आज की बात थोड़ी बदल गई है ….शिकारी ही अपनी बहादुरी के किस्से सुना रहा है क्योंकि शेर को बोलना नहीं आता या फिर उसकी भाषा इंसान समझ नहीं पा रहा.सही धर्म वह है जो स्वयं की आत्मप्रसंशा से नहीं बल्कि स्वसुधार और परिष्करण से शुरू होता है ..स्व शुचिता,स्व सुधार विवेक बुद्धि से सुजज्जित विवेकपूर्ण धर्म ही कर सकता है.
एक अन्य राजनीति परिदृश्य में भाजपा अपने वरिष्ठों को दरकिनार कर रही है खैर पुराने को विदा होना भी चाहिए.यही प्रकृति का नियम है .पर हमारे प्रजातंत्र का पुराने से प्रगाढ़ सम्बन्ध है जीर्ण शीर्ण होना उसे पसंद है पर नया कलेवर स्वीकार नहीं .क्योंकि नया उसके लिए खतरा है .पुराने अपने अनुभवों का लाभ राजनीति से परे होकर कर क्यों नहीं दे सकते .युवा चेहरे… युवा सोच भी तब अपने अनुभवी वरिष्ठों पर फक्र करेगी…

“एक बूढा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो कि
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है “

जब भी कोई नयेपन की बात करता है पुराने सहम जाते हैं उन्हे अहंकार सर उठाने लगता है .प्रत्येक नया पुराना होगा और जो पुराना हुआ है वह भी कभी नया था ..पर राजनीति हो धर्म हो या समाज कोई इसे स्वीकारने का तैयार नहीं है.अरविन्द केजरीवाल हालांकि कहीं कहीं पर बेशक अतिशयता और अपरिपक्वता से ग्रसित हैं पर फिर भी उन की हालत देखकर मुझे सुकरात की कहानी याद आती है .एथेंस के सारे प्रतिष्ठित व्यक्ति सुकरात के दुश्मन हो गए थे क्योंकि वह भरे चौक में उन्हें बेनकाब करने का काम करता था उसे क्या ज़रुरत थी पर नहीं इतिहास गवाह है ऐसे लोगों का जो समाज का नई दिशा देने की कोशिश करते हैं ,पूरा समाज उन्हें सरफिरा समझता है और इसी क्रम में वे शहीद हो जाते हैं.काश नई सोच का बिना संघर्ष के स्वीकार करने का साहस समाज का तथा कथित बुद्धिजीवी वर्ग कर पाता.नयेपन की चुनौती का स्वीकार करने से ही प्रयोगधर्मिता बढती है.मैंने एक घटना किसी समाचार पत्र में पढ़ा था..
बीसवीं सदी के चालीस के दशक में मोतियाबिंद के ऑपरेशन का अर्थ था आँख में १५ मिलीमीटर का चीरा और उसके बाद आँख पर लगाने वाला हाई पॉवर का चश्मा.५ जनवरी १९४७ की बात है इंग्लॅण्ड के सर हैराल्ड रिडले लन्दन के सेंत थॉमस हॉस्पिटल में मोतियाबिंद का ऑपरेशन कर रहे थे उनके साथ उनका एक छात्र स्टीव पैरी भी था जिसकी मेडिकल की पढ़ाई ख़त्म होने वाली थी उसके मुंह से निकला ,”कितने दुर्भाग्य की बात है कि आँख के बेकार लेंस का बदलने की क्षमता हमारे चिकित्सा विज्ञान में नहीं है .रिडले का यह सुनकर गुस्सा आया और उसे ऑपरेशन थिएटर से बाहर जाने का कह दिया.पर वे सही मायनों में बुद्धिजीवी थे उन्होंने उस छात्र की बातों पर विचार किया और अगले दो वर्षों तक आँखों के विशेषज्ञ जॉन पाइक के साथ काम करते हुए २९ फरवरी १९४९ का एक ४५ वर्षीया महिला की आँखों में पहला इंट्रा ऑकुलर लेंस इम्प्लांट किया चार सप्ताह बाद महिला बगैर हाई पॉवर चश्मे के भी साफ़ देख सकती थी.यहाँ अनुभव और नयी चुनौती दोनों ने ही काम किया.
आज हर क्षेत्र में प्रयोग का दौर है .संचार क्रान्ति के सहयोग से बच्चे भी राजनीति समझने की कोशिश में हैं अगर लोगों का अपने सरोकारों में हल और नए पन के ताज़े हवा की खूशबू महसूस नहीं होती तो लोग अपने स्वयं के बगीचे लगाना ज्यादा मुनासिब समझने लगते हैं ऐसे में समूह की भावना ख़त्म होने का डर रहता है समाज और राजनीति व्यक्तिकेंद्रित होने लगती है.समाज का तो व्यक्ति केंद्रित होना शायद घातक ना हो पर राजनीति का इससे बचाव करने की बेहद ज़रुरत है .राजनीतिक दल सामाजिक चिंतन तथा राजनीतिक निर्णय के बीच की कड़ी हैं उन्हें व्यक्ति केंद्रित राजनीति का सन्देश देने से बचना होगा .ज़रुरत है वोट लेने और देने वाले शिक्षित विवेकी संवेदनशील हों ताकि भ्रष्टाचार मुक्त देश की स्थापना में मदद मिले.
प्रश्न यह भी है कि देश की सेवा के लिए राजनीति ही क्यों ?? प्रतियोगी परीक्षाओं का पास कर प्रशासनिक सेवा,डॉक्टर ,इंजीनिअर, देश की रक्षा के लिए सैनिक जैसी भूमिका भी अदा की जा सकती है. पर फिर भी अगर आज आम जनता में से लोग राजनीति में भी आ रहे हैं तो उनका स्वागत पुराने अनुभवी नेताओं की तरफ से होना चाहिए उन्हें सियासत की चालबाज़ी गोटी का खेल छोड़ कर सांप सीढ़ी जैसे खेल पर भी विश्वास करना होगा. विरोध प्रदर्शन, गाली गलौज ,अपशब्द का प्रयोग किये बिना यह सोचना होगा कि राजनीति किस तरह लोगों का समाजोपयोगी बना सकती है.
भारत देश का लोकतंत्र विशाल भौगोलिक,सांस्कृतिक,ऐतिहासिक विविधताओं का स्वयं में समेटे है भारत का विस्तार कश्मीर से कन्याकुमारी गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक अवश्य है पर इस विस्तार का स्वरुप देते स्थानीय माटी की खूशबू समेटे सूदूर आदिम क्षेत्रों ,छोटे गाँव कस्बों ,छोटे -छोटे सपनों के साथ जीते छोटे शहरों की उपेक्षा किसी भी राजनीतिक दल के द्वारा नहीं होनी चाहिए .दल जितना आत्मानुशासित होंगे जितनी ही सामजिक और नैतिक जिम्मेदारी के साथ इस बदले चुनावी महासमर में उतरेंगे ;ज्ञान तथा बुद्धि का इस्तेमाल बेहतर भारत के लिए करेंगे ,उनके जीत की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी.क्योंकि अब आम जनता वोट देकर भूलेगी नहीं बल्कि अपने दिए वोट का हिसाब मांगेगी क्योंकि उसमें लोकतांत्रिक चेतना जागृत हो गई है वह सवाल करेगी हुकूमत ने युवाओं के लिए क्या दिया,रोज़गार के अवसाद से बचाने के लिए कौन सी शिक्षा नीति विकसित की है,वैश्विक मंच पर उनके लिए क्या अवसर हैं,उनके समाज के सरोकारों से स्थानीय नेता किस सीमा तक सही अर्थों में जुड़े हैं ,अब युवा इस्तेमाल नहीं होंगे वे पहले इस्तेमाल करेंगे फिर विश्वास करेंगे. अब यह देखना है कि वे परीक्षित नेता चुनते हैं या फिर प्रयोगधर्मी नवप्रवर्तनीय नेता चुनते हैं.बस वोट का खरीदना और बेचना रूक जाए .वोट की कीमत है और इसे खरीद कर इसे ज्यादा मूल्यवान बना दिया जाता है .एक शायर ने सच ही तो कहा है …

जब तक बिका ना था कोई मोल ना था

तूने मुझे खरीद कर अनमोल बना दिया.

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