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जब भी किसी अभिभावक को एक पुत्री के जन्म पर आंसू बहाते..शोक मनाते देखती हूँ तो मुझे अत्यंत कष्ट होता है …संतान सिर्फ संतान होती है ….एक पुत्र या पुत्री के भेद का एहसास मातृत्व और पितृत्व के उस सुख से वंचित करता है जो पुत्र-पुत्री के भेद से परे , सिर्फ संतान के अभिभावक होने से प्राप्त होता है.घर की रौनक संतान बढ़ाती है…‘पुत्र ही सुख की गारंटी होते हैं’…इस रूढ़िवादी सोच से मैं ज़रा भी इत्तफाक नहीं रखती…सुख और दुःख हमारी व्यक्तिगत सोच के परिणाम हैं…अतः उसे पुत्र प्राप्ति की संतुष्टि में तलाशना बेमानी है.
यह कविता मेरी पुत्री के छात्रावास जाने….और वापस घर आने ….उसके साथ कुछ दिन व्यतीत करने के दरम्यान उपजी मेरी अनुभूति की एक बानगी है…शायद हर माँ कुछ ऐसा ही अनुभव करती होगी…..पुत्र या पुत्री की माँ होने के एहसास से कोसों दूर …बस एक संतान के प्रति ममत्व भाव से परिपूर्ण.
………………
होती हूँ अकेली
जब भी…………..
मैं हो जाती हूँ उदास ,
आकाश पर दिन भर की थकी
और श्रम शमशीर से लथपथ
ढलती साँझ की तरह.
अकेलेपन की स्याही
फैलती जाती है धीरे-धीरे.
और…तब..
तुम्हारे ख्याल मात्र से
उदित होने लगते हैं
खुशियों के तारे
झिलमिलाने लगते हैं
स्वच्छ ……पर श्यामल से
हृदयाकाश में .
आहिस्ता…आहिस्ता..
जब…
तुम्हारे होने की कल्पना
चांदनी सी दीप्त हो उठती है….
तो….
जन्म लेने लगता है
रजनी सा सौंदर्य
मैं और भी ज्यादा मौन हो जाती हूँ.
होती जाती है प्रतीक्षा की रात
जितनी गहरी
मैं व्यग्र होने लगती हूँ
शनैः शनैः प्रबल हो उठता है
विश्वास मेरा..
तुम जल्द आओगी….
क्योंकि महसूस किया है मैंने …….
………………………..
निशा बहुत गहरी हो जाती है
जब होती है उषा करीब
हो जाता है पथ
सर्वाधिक दुर्गम
बस..
मंज़िल के ही निकट .
लड़खड़ा जाते हैं कदम
जब होती है खड़ी सफलता
बस दूर ही दो कदम .
बढ़ जाती है ऊंचाई तरंग की
जब साहिल
होता है बहुत करीब .
जानती हूँ
बोया है बीज मैंने …
प्रेम,स्नेह ममत्व और त्याग का
दफ़नानी होती है व्यग्रता
अंधेरी ज़मीन पर
करनी होती है प्रतीक्षा
बोकर बीज को
पोषित करना होता है उसे
धैर्य की खाद से
ठीक है……
तत्काल तो अंकुरण तक दीखता नहीं
परन्तु..
इसका यह अर्थ कतई नहीं
कि ह्रदय के गहन तल में
विकास हो नहीं रहा बीज का.
फिर…इसी इंतज़ार की बदली से
दमकते नक्षत्रों सी
मुस्कराहट बिखेरती …….
तुम सामने होती हो
इतनी प्रत्यक्ष कि
तुम्हे छू कर महसूस कर सकती हूँ..
तुम्हारे मासूम चेहरे पर
ममत्व अंकित कर सकती हूँ
तुम्हारे केशों में वेणी गूथ
तुम्हे संवार सकती हूँ
पा सकती हूँ …
अपनी ही प्रतिच्छवि को
सामने देखने की संतुष्टि
लगा अपने ही बचपन को
सीने से देर तलक …
महसूस कर सकती हूँ
वह मासूम शीतल अनुभूति.
और तब …
स्नेह गीत गाते हैं पंछी
खिल उठती है बासंती कली
महक उठती है गली-गली
छा जाती है श्रावणी हरियाली
रंग जाती है उषा सिंदूरी
खुल जाती है कमल पंखुरी
जो सोई थी अधखिली.
प्रतिबिंबित होने लगती है
अनगिनत सूर्य सी छवि
जहां दूब पर थी ओस जमी
चमक जाती है रोशनी
जो थी कहीं बदली में छुपी
बगिया में छा जाती ताजगी
मानो हर पर्ण …
हर शाखा हो धुली-धुली.
अकस्मात्…
ज्ञानेन्द्रियों..कर्मेन्द्रियों को
जागृत करते ये सभी एहसास
सिमटने लगते हैं ..
खो कर …..
एक अद्भुत भाव में
केंद्रित होने लगते हैं …
तुम …
रूप लेने लगती हो
अनंत,निस्सीम और छुपे
नक्षत्राच्छदित हृदयाकाश में
दूधिया चाँद का.
मेरा जीवन
तुम्हारी उपस्थिति की आभा से
देदीप्यमान हो जाता है .
मेरी प्यारी बिटिया !!!!!!!!!!
सुन ……
तेरे होने मात्र से
जीवन मेरे लिए
बन जाता है
एक आकाशदीप
(दूधिया चाँद)
घटता है ……बढता है
फिर भी रहता तो है
क्योंकि वह होता है
सहज स्वस्फूर्त
एक ज्योतिपुंज .
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