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नन्हे ‘जुगनू’

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PicsArt_1445841152884प्रिय साथियों
दीपावली की बहुत सारी शुभकामना
मैं हरिवंश राय बच्चन जी की कविता ‘ जुगनू ‘बहुत ही तन्मयता से पढ़ती हूँ .उसकी पंक्तियाँ लिख रही हूँ …

“अंधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है
उठी ऐसी छटा नभ में छिपे सब चाँद और तारे
उठा तूफ़ान वह नभ में गए बुझ दीप भी सारे
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है .

तिमिर के राज का ऐसा कठिन आतंक छाया है
उठा जो शीश सकते थे उन्होंने सर झुकाया है
मगर विद्रोह की ज्वाला जलाये कौन बैठा है .

गगन में गर्व से उठ उठ गगन में गर्व से घिर घिर
गरज कहती घटाएं है नहीं होगा उजाला फिर
मगर चिर ज्योति ले निष्ठां जमाये कौन बैठा है .

प्रलय का सब समा बांधे प्रलय की रात है छाई
विनाशक शक्तियों की इस तिमिर के बीच बन आई
मगर निर्माण में आशा दृढ़ाये कौन बैठा है.

बच्चन जी की इन पंक्तियों को वर्त्तमान परिदृश्य में मैं बेहद प्रासंगिक मानती हूँ.आज चहुँ ओर अशांति ,तनाव ,निराशा ,की कालिमा फ़ैली हुई है सूर्य और चाँद तारों की तरह रोशनी बिखेरने वाले .प्रख्यात साहित्यकारों के समूह ने जो ज्ञान और विचारों के दीप प्रज्वलित करते आ रहे थे …उन्होंने भी हार कर पुरस्कार लौटने वाली अंधकार की राह अपनानी शुरू कर दी है.ऐसे में यह प्रश्न उठना लाज़िमी है कि समाज में ज्ञान और सुविचारों की रोशनी अब कौन जलाये ???? निराशावादी तत्व ऐसे माहौल उत्पन्न करते हैं जहां विकास की हल्की सी रोशनी भी दिखाई नहीं देती ….विकास की जलती मशाल को बुझाने की कोशिश करना उनका शग़ल होता है …वैश्विक मंच पर उगते चाँद की तरह उभरते देश को काले मेघ बन कर ये तत्व निगल जाते हैं .जिन्हे आवाज़ उठाना चाहिए वे चुप बैठ जाते हैं ….जिन्हे नेतृत्व करना चाहिए वे बंदगी की राह पर चल पड़ते हैं ….जब घना अंधकार छाता है …हाथ को हाथ भी नहीं सूझता तब भी जुगनू की तरह कुछ लोग रोशनी फैलाने की भरसक कोशिश करते हैं. यह जानते हैं कि यह प्रयास एक भुलावा है फिर भी वे अपना प्रयास कभी नहीं छोड़ते हैं. .. देश भर में कुछ बेहद अदने लघु से समझे जाने वाले लोग ..संस्थाएं …जुगनू की तरह रोशनी के अस्तित्व को ज़िंदा रखती हैं.ऐसे में कुछ मुट्ठी भर साहसी लोगों के अथक प्रयास से ही रोशनी की आशा संभव हो पाती है. सबसे अच्छी बात यह कि ऐसे लोग हर देश काल परिस्थिति में अवश्य रहते हैं.

सूचना का विशाल तंत्र आज वास्तविक संवेदना ,जागरूकता उत्पन्न करने में पूर्णतः सफल नहीं हो पा रहा है.सूचनाएं फ़िल्टर हो कर आएं ….बयानबाजी की प्रत्येक बात प्रसारित ना की जाये …किसी भी मुद्दे पर लाइव बहस के कार्यक्रम ….कम से कम रखे जाएं ताकि सूचना की रोशनी सही दिशा में फ़ैल सके .अधिक तीव्र रोशनी भी आँख को चौंधिया देती है जो किसी अँधेरे से कम नहीं साबित होती हैं.सोशल मीडिआ का इस्तेमाल करने वाले इसे विवेकपूर्ण ढंग से इस्तेमाल करें .ज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए तो महज एक हल्की सी रोशनी ही काफी होती है .ज़रुरत उसी हल्की सी रोशनी का स्त्रोत बनने की है ताकि अँधेरा स्वयं ही रोशनी की भीख माँगने लगे .अँधेरे को दूर करने के लिए कोई अविवेकी व्यक्ति भी कभी अपना घर जला कर रोशनी करने की कोशिश नहीं करता फिर देश को साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्माद की आग में झोंक देने को क्यों आमादा हो रहे हैं ??? जब देश ही नहीं रहेगा तो हमारी क्या अहमियत होगी …इसे प्रत्येक नागरिक को समझना होगा .यह ठीक है कि हम सूर्य चाँद तारों जैसे प्रख्यात साहित्यकार या बुद्धीजीवियों की श्रेणी में कभी नहीं आते पर जुगनू की तरह रोशनी को ज़िंदा तो रख ही सकते हैं. अँधेरे को परास्त करने के लिए यह नन्हे कदम भी सराहनीय होंगे . हम जहां हैं वहीं से देश को आपसी घृणा बैर वैमनस्य जैसे किसी भी अँधेरे से बचा कर रखने की कोशिश करें .
इस दिवाली इतनी कोशिश अवश्य करें .अंधकार कितना भी घना हो ….बयानबाजी , आलोचनाओं , के मेघ और दामिनी कितनी भी तोड़ फोड़ करें …धरा और नभ के बीच कितनी भी आपाधापी मची हो …हम अपने धैर्य विवेक सजगता की टिमटिमाहट कभी भी मंद ना पड़ने दें .रोशनी का यही एक प्रयास हर तरह के अंधकार पर भारी पडेगा.

गोपाल प्रसाद ‘नीरज’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना ज़रूरी समझती हूँ …

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छूले
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग
उषा जा ना पाये निशा आ ना पाये

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा
उतर क्यों ना जाए नखत सब नभ के
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा
कटेंगे तभी यह अँधेरे घिर अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये .

आशा और विश्वास की रोशनी के साथ
शुभ दीपावली

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