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कल….
बेचैन..बेसब्र..
भरपूर तलाशा ज़िंदगी को.
ठहाकों में अपनों के…
मुस्कराहटों में बच्चों के.
सोचा……
देख लूँ आईना ही
शायद मिल जाए ज़िंदगी.
अपनी आँखें भी कहाँ देख पाती हैं
अपने ही चेहरे को !!!
सहारा लेना पड़ता है
किसी निर्जीव दर्पण का
या फिर………………….
किसी बेहद करीबी की
बोलती आँखों का
जिसमें दिख सके
छवि अपनी पाक-साफ़
नहीं मिला …ऐसा कोई करीबी .
आईने में दिखती..
अपनी तस्वीर में भी
पा सकी ना मैं ज़िंदगी.
पाती भी कैसे ?????
मिट गई थी वो
सजीवता के पन्नों से
प्राण भरे ….सभी एहसासों से
वक्त ही कहाँ है आज ??
सांस लेने का इस सजीवता को .
……….
थकी,क्लांत,मायूस नज़रें
टिक गई मेज़ पर
थिरक गई लब पर
एक फीकी मुर्दनी हंसी
बच्चों के …
पसंदीदा चॉकलेट के मानिंद
पड़ा था एक पेन ड्राइव
और……………………
उसकी प्राणहीन सूक्ष्मता में
बंद पडी थी ज़िंदगी.
दोस्तों,ज़िंदगी के बड़े-बड़े एहसास आज सिमटते जा रहे हैं…जीवन यांत्रिक हो गया है…यांत्रिकता का यह प्रसार हर विस्तार को अपने में समेट कर बेहद सूक्ष्म रूप देता जा रहा है.गीत,संगीत,मनोरंजन ,ज्ञान,अपनों से जुडी यादों से लबरेज तस्वीरें ,अपने अनुभव सभी एक छोटे से पेन ड्राइव में बंद होते जा रहे हैं…यह तकनीक की चरम कुशलता है …दीर्घ को लघु करने की निपुणता है …इसका स्वागत किया जाना चाहिए बस यह ध्यान रखना है …ज़िंदगी की सजीवता,आत्मीयता सूक्ष्म और निर्जीव ना होने पाये .
बाल दिवस के अवसर पर सभी बच्चों को और उनके अभिभावकों को बहुत सी शुभकामना.
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