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बस ‘एक घूंट अमृत का’

V2...Value and Vision
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२६ फरवरी २०१२ “दैनिक जागरण”के मुख्य पृष्ठ में एक अच्छी खबर पढने को मिली-“पोलिओ मुक्त हुआ भारत”शायर दुष्यंत साहब का एक शेर याद आया”कौन कहता है कि आकाश में सुराख नहीं होता,एक पत्थर तो तबियत से उछालो मेरे दोस्त”सच है इस कामयाबी के पीछे छुपी है वर्षों की मेहनत,अथक प्रयास,किसी ने तो सोचा होगा कि यह कर दिखाना है और तभी पूरी लगन से किया गया यह अभियान संभव हुआ.मुझे एक सच्चे भारतीय होने के नाते ही उस रात बड़ी अच्छी नींद आयी,पर यह क्या? नींद में एक दुस्वप्न देखा-एक वीभस्त सी आकृति घिसटते हुए बढ़ रही है,मैं जितना उसे पकड़ने की कोशिश करती वह घिसटने के बावजूद मुझसे आगे बढ़ जाता और स्वप्न में आप कितनी भी तेज दौड़ने की कोशिश करें, यूँ लगता है मानो पैर जड़ हो गए हैं.मैं चीख पड़ी”कौन हो तुम?तुम्हे क्या हुआ है?प्रत्युत्तर में कहीं ज्यादा जोर से चीखने की आवाज़ आयी”ए, हेलो,दिखता नहीं मैं पोलिओग्रस्त हूँ,हाँ !मैं तुम्हारा समाज हूँ ….घिसटता समाज” मैंने सांत्वना दी”रुको,’ दो बूंद ज़िन्दगी की’वाला drops लाती हूँ.उसने कहा”अब देर हो गयी है” और बस इतने में मेरी आँखें खुल गयी.

इसलिए ,पाठकों आज मैं इस मंच पर ‘एक घूंट अमृत का’नारा ले कर आयी हूँ इस समाज में बढ़ते नैतिक पतन की समस्या के समाधान के लिए ……….

पिछले कई दिनों से एक ही खबर सबसे अधिक सुनने,पढने को मिल रही है”महिलाओं की इज्ज़त पर आंच”आधुनिक समाज बलात्कार,भ्रष्टाचार ,अपहरण जैसे ना जाने कितने विषाणुओं से अपाहिज हो चुका है.कचरे के पास कुर्सी लगाकर बैठ कचरे की ही आलोचना करने को मेरा संवेदनशील मस्तिष्क कभी गवाही नहीं देता.कचरे का स्रोत पता कर उसे हटाना मैं ज़रूरी समझती हूँ.

इस नैतिक पतन को मैं “मूल्यों की शिक्षा”से जोड़कर समाधान खोजना शुरू करती हूँ.मशहूर शायर सुदर्शन फाकरी साहब के इस शेर से आप सब वाकिफ होंगे”यह दौलत भी ले लो,ये शोहरत भी ले लो…..मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी”पर कहाँ है वो बचपन?वो तो आज बंद कमरे में vedio गेम,इन्टरनेट,मोबाइल पर व्यस्त है?पर दोस्तों, मैं इसके लिए इनमें से किसी भी आविष्कार को दोष नहीं दूंगी?जब आदि मानव ने आग की खोज की थी तो यह उसकी आवश्यकता ही थी,अब यह तो मनुष्य की सोच पर निर्भर है वह इस अग्नि का प्रयोग इंधन के रूप में करे या किसी का घर जला दे.एक चाक़ू डॉक्टर के हाथ में है तो घायल की जान बचा देती है पर वही चाक़ू अगर किसी गलत हाथ में आ जाए तो????अल्फ्रेड नोब्ले ने कहाँ सोचा था की dynamite का इस तरह भी प्रयोग हो सकता है,तो यह तो मनुष्य की सोच,उसके विचार ही जिम्मेदार होते हैं.

कहाँ गए वो नैतिक मूल्यों को समझाती दादा-दादी की कहानियाँ ? वे बुजुर्ग ही तो आज हाशिये पर कर दिए गए हैं,उपभोक्तावादी समाज में स्त्री-पुरुष दोनों ही ,अधिकाधिक की लालसा में अर्जन करने को ,घर से बाहर काम करने को विवश हैं.बच्चे माता के स्नेहसिक्त स्पर्श के बिना बड़े हो रहे हैं.ये न तो माली के द्वारा सँवारे बगीचे के पौधों सरीखे बढ़ पाते हैं;न ही वनों में उपयुक्त जल’प्रकाश पाते हुए विशाल वृक्ष के तरह.फिर ऐसे बच्चों से संवेदनशीलता के कामना पत्थर से पानी निकालने का प्रयास ही तो है.अब आप पूछेंगे ” महिलाएं पढ़-लिख कर अर्जन न करें तो शिक्षा पर लगाया गया निवेश व्यर्थ न हो जाएगा?” ठीक है ;अगर वाकई घर पर ज़रूरत है तो निश्चय ही उन्हें नौकरी करनी चाहिए,पर सिर्फ शौक के लिए,या पढ़ाई के सदुपयोग की मंशा से काम पर जाना है, यह सोच एक ज़रूरतमंद बेरोजगार का भी हक नहीं छिनती क्या??प्रसिद्ध लेखक रूबी मेनिकन ने लिखा है”यदि तुम एक पुरुष को शिक्षित करते हो तो एक व्यक्ति को शिक्षित करते हो,पर अगर एक नारी शिक्षित को करते हो तो पुरे समाज को शिक्षित करते हो”नारी अपनी शिक्षा से परिवार,समाज को सुसंस्कृत बना सकती है.

आज मैं पूछती हूँ कहाँ है वह आत्मीयता भरा स्पर्श; जो असीम वेदना को अपने मजबूत कन्धों पर सर रखकर छलकने को images 15बाध्य करता था? ये वेदनाएं उन मजबूत कन्धों के अभाव में आज बाँध में एकत्रित जल की तरह होती जा रही हैं जिनकी अतिशयता अपनी ही मजबूत दीवारें तोड़कर जीवन को बहा ले जायेंगी.

माता-पिता यह न सोचे कि हमारे बच्चे होशियार हो गए हैं स्वयं ही सारे काम कंप्यूटर पर कर लेते हैं.एक शायर ने लिखा है”जुगनू को दिन के उजाले में परखने की जिद करते हैं ;बच्चे हमारे दौर के चालाक हो गए हैं”पर हम माता-पिता जानबूझ कर नासमझ क्यों बनते जा रहे हैं?अवयस्क बच्चों को मोबाइल,इन्टरनेट का प्रयोग,वाहन देना कहाँ तक उचित है?मोबाइल,नेट आदि पर मोनिटरिंग ज़रूरी है.उनके friend बनने का ढोंग नहीं करें ;यह शब्द END से ही ख़त्म हो जाता है माता-पिता बन कर ही हम सही दिशा निर्देशन दे सकते हैं.घर से बाहर जाते समय माँ अपने और अपनी बच्ची की पोशाक पर अवश्य एक नज़र रखे,हम शालीनता से भी फैशन को अपना सकते हैं.हम रिश्तों की डोर घर की चारदीवारी तक ही सीमित रखें.घर से बाहर अन्यत्र कोई पिता,भाई,बहन,इत्यादि नहीं होता रिश्तों के ये बाहरी नाम ही इन्हें सर्वाधिक चोट पहुंचाते हैं क्योंकि इसमें असलियत कहीं होती ही नहीं है…..

“You know that the beginning is the most important part of any work, especially in the case of a young and tender thing; for that is the time at which the character is being formed and the desired impression is more readily taken…” Plato’s Republic

एक विद्यालय में जब मैं सेवारत थी एक वाकया हुआ,6th क्लास के विद्यार्थी ने अपने दोस्त से कहा”अगर १०० कैडबरी chocolate के बदले कोई माँ को भी मारने को कहे तो मैं तैयार हो जाउंगा,मुझे कैडबरी बहुत पसंद है” जब मैंने यह सुना दुखी भी हुई,ग्लानी भी महसूस किया पर अब आप सोच रहे होंगे क्या किया होगा?अगले दिन प्रार्थना सभा में माता-पिता पर आधारित एक नैतिक अनुच्छेद प्रस्तुत कराया और उसी बच्चे से.उसे कोई सज़ा नहीं दी .आखिरी में एक भजन की पंक्ति को मैंने जोड़ा था ,जब उसने इसे गाया तो उसकी आँखें छलक आयी थीं
“जिस माँ ने हमको जन्म दिया,उसे कभी रुलाना न चाहिए
जिस पिता ने हमको पाला है ,उसे कभी सताना न चाहिए “

वो बच्चा रोता हुआ आया और कहा”mam ,अब मैं कभी ऐसी बात नहीं करूंगा ,माँ मुझे बहुत प्यार करती है”ज़ाहिर सी बात थी ,बच्चे को माँ का महत्व पता था पर इस बात का ज्ञान नहीं था कि किसी रिश्तों को लेकर मज़ाक में भी अनैतिक बात नहीं करना चाहिए.

बच्चों के सबसे बड़े रोल मॉडल माता-पिता होते हैं .जब बच्चे उन्हें सकारात्मक कार्यों को सुचारू रूप से करते देखते हैं तो वे भी समय की कीमत समझते हैं और रचनात्मक कार्यों के ओरे उन्मुख होते हैं.

पाठकों, “अगर ज़िन्दगी एक प्यास है तो उसे बुझाने के लिए भौतिकता,चमक-दमक जैसे खारे समुद्र की ज़रूरत नहीं है ;इसे जितना पीओ प्यास उतनी ही बढ़ती जायेगी.नैतिक मूल्यों.संस्कार,सही दिशानिर्देशन जैसे झरने के चुल्लू भर पानी पीकर भी तृप्त हुआ जा सकता है.”
और यह एक कविता . यह तलाशने के लिए कि ……. आज के समाज में गलती कहाँ हो रही है हम सबों से?

कस्बाई माहौल छोड़,बड़े शहरों में आकर,
खुद अपने-आप में सिमट रही ज़िन्दगी.
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आम्रवृक्ष के सघन, आश्रय को भूलकर,
कंक्रीट विस्तार में,घिसट रही ज़िन्दगी
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माँ के स्नेहिल बाँहों का, पालना है कहाँ पर ?
चाइल्ड केयर क्रेच में,सिसक रही ज़िन्दगी
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सात जन्मों का साथ,कोरा ढकोसला सोचकर
दाम्पत्य की दरकन में, ठिठक रही ज़िन्दगी
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जीवन वाटिका में सारे,भाव पुष्प कुचल कर
अधखिली किसी कली सी,चिटक रही ज़िन्दगी
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भौतिक आकर्षणों से,घर को महल बनाकर
स्वमन के टूटे खंडहर में,अटक रही ज़िन्दगी
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दया,करूणा,धर्मं की,शंमा को बुझाकर
तेल रहित लालटेन सी, लटक रही ज़िन्दगी
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गाँव की अमराइयाँ,चौपालों को छोड़कर
facebook और you tube में,दमक रही ज़िन्दगी
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आध्यात्मिक चिंतन की, ऊर्जा सारी दफ़न कर
देख डिस्को क्लब में कैसे, मटक रही ज़िन्दगी
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भ्रष्टाचार को शिष्टाचार, का चोला पहनाकर
खुद के ही कफ़न में, लिपट गयी ज़िन्दगी
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नैतिक मूल्यों की घुट्टी,मुंह से उगलकर
झूठ,फरेब की सुरा,गटक रही ज़िन्दगी
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वृद्ध माता-पिता के,स्नेह दीप फूंककर
अंधेरी गलियों में, भटक रही ज़िन्दगी
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अपनत्व के शीतल, स्पर्श को तजकर
उष्ण हो कांच सी, चटक रही ज़िन्दगी
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आधुनिकता की इस, बदलाव में उड़-उड़ कर
अमर्यादित हो बेशर्म,चहक रही ज़िन्दगी
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भोले-भाले चेहरों से भी, हंसी को गुम कर
वहशीपन की ताप में, दहक रही ज़िन्दगी

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