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इस अनुपम मंच (जागरण जंक्शन)की दुनिया के प्यारे दोस्तों/ब्लोगेर्स /पाठकों
यमुना का प्यार भरा नमस्कार और रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामना
यह ब्लॉग मेरे संकलन “आत्माभिव्यक्ति “का अर्ध शतक(50 ) है इसलिए एक महत्वपूर्ण बात भी रखना चाहती हूँ. अगर कोई भाई – बहन आपस में रूठे हुए हों तो मेरी गुजारिश है कि इस शुभ अवसर पर सारी नाराज़गी मिटा लें ऐसा क्यों कह रही हूँ ये आप इस ब्लॉग को पढ़कर जान पाएंगे .
यह पर्व आज से महज़ चार-पांच वर्ष पूर्व मेरे लिए बहुत ही खुबसूरत होता था ,मैं बेसब्री से इस श्रावणी पूर्णिमा का इंतज़ार करती थी पर अब यह पर्व अपनी अज़ीज़ प्रिया के दुखों से जुड़ गया है जिसकी वज़ह से इस अवसर पर पूर्ण उल्लास नहीं रह पाता.
अपने हमसफ़र के स्थानान्तरण होने पर नए स्थान के नए विद्यालय से जुड़ने के क्रम में ही प्रिया से मेरी मुलाक़ात हुई थी.प्रथम दिन ही विद्यालय के अध्यापक-अध्यापिकाओं के अच्छे-खासे समूह में वह एक चेहरा था;आत्मविश्वास से लबरेज़,हंसता-मुस्कराता,चंचल सी आँखें,लब मानो सब कुछ इसी क्षण बोल जाएंगे.हाँ, प्रिया में गज़ब सा आकर्षण था.औपचारिक बातचीत के बाद कुछ ही दिनों में हम दोनों में एक अनाम रिश्ते की घनिष्ठता हो गयी.वह मुझसे दस वर्ष छोटी थी पर हम हर बात बेझिझक करते,मुझे नए परिवेश में उसका भरपूर सहयोग मिलता था.मैं अपनी बिटिया के लिए कुछ भी पसंदीदा भोजन बनाती तो प्रिया के लिए भी अलग डिब्बे में अवश्य पैक करती;उसे मेरे हाथों का बना केक बहुत पसंद था .वह एक कुशल शिक्षिका थी,उसके मुख की भाव-भंगिमा,अभिव्यक्ति उसकी कही गयी बातों को बेहद खूबसूरती से सामने वाले को समझा देते थे.शायद इसी लिए वह प्रिया थी, सबकी चहेती.
वह अपनी बातों में अपने भाई टुकटुक का ज़िक्र ज़रूर करती,यूँ कहिये कि उसकी बातें उसी से आरम्भ होती और उसी पर ख़त्म हो जाती थी.एक दिन उसने कहा,”मैम, आज मेरे घर के लिए बहुत खुशी का दिन है मेरा भाई यु.के.जा रहा है.”मैं तो उसके हर पल में इस कदर शामिल हो गयी थी कि उसकी खुशी मेरी अपनी खुशी थी और उसका दुःख मेरा निजी दुःख.उसके भाई का जन्मदिवस विजयादशमी को होता था.टुकटुक जब जन्म दिवस के शुभ अवसर पर कोलकाता से घर गया तो वह हर रिश्तेदार से मिला क्योंकि उसे परदेश जाना था.पहली बार उसने मुझसे भी फोन पर बात की “मैम मैं बेहद खुश हूँ,आपका भी आशीर्वाद चाहिए” मुझे भी बहुत खुशी हुई.वह कुछ दिनों बाद वापस चला गया.
दीपावली पर जब मैं अवकाश पर थी ,एक दिन अचानक प्रिया का कॉल आया,उसने कहा,”मैम,मैं भाई से मिलने जा रही हूँ”मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ सोचा ,अभी तो बीस दिन पूर्व ही वे सब मिले थे.मैं व्यग्र हो गयी पर उसने आगे कुछ कहे बिना ही फोन रख दिया .अगले दिन कॉल करने पर उसने बताया “टुकटुक बहुत बीमार है,उसे डेंगू हो गया है.उसके पुरे शरीर पर पट्टियां बांधी गयी हैं.“जब यह बात मैंने अपने पतिदेव को बताई तो उन्होंने इतना ही कहा “बात गंभीर है”मैंने प्रिया को झूठी सांत्वना दी कि सब ठीक हो जाएगा जबकि जानती थी, बहुत कुछ क्षण भर में प्रिया की ज़िंदगी को बदल देने वाला था.मैं रात भर ठीक से सो नहीं पायी.रात के ठीक दो बजे उसके किसी रिश्तेदार का कॉल मिला.उन्होंने इतना ही कहा,” प्रिया के सेल में जो मुख्य नंबर हैं उनमें सूचित कर बुरी खबरदे रहा हूँ ,टुकटुक इस दुनिया में नहीं रहा.”ज़ेहन में बसे प्रिया के मुस्कराते चेहरे को परिवर्तित होने में एक लम्हा भी न लगा,जानती थी वह होनहार भाई अपनी बहन की मुस्कान भी अपने साथ ही ले गया.
प्रिया ने कार्य से इस्तीफा दे दिया अब उसे अपने माता -पिता का सहारा बनना था.विद्यालय में मेरी बगल की सीट खाली रहती,प्रिया नहीं दीखती थी.कुछ दिनों उपरांत मैंने भी विद्यालय छोड़ दिया.घटना के चार महीनों बाद प्रिया को यह सोच कर अपने घर बुलाया ताकि वह सब भूल कर अपना मन हल्का कर सके .उसने रोते हुए एक ही बात कही,“अगर टुकटुक का विवाह हुआ होता तो कम से कम उसकी कोई निशानी तो हमारे पास होती,हम बहुत अकेले हो गए हैं.”मैंने उसे समझाया कि ऐसा होने पर उससे जुडा एक और रिश्ता कितना परेशान होता.पर उसके अव्यक्त दुःख को इन बातों से कब तक दूर किया जा सकता था.
प्रिया से अब भी फोन पर बात होती है पर मैंने अपनी चंचल सी उस प्रिया को हमेशा के लिए खो दिया है. अब जो प्रिया बात करती है उससे मेरी ही आवाज़ नहीं मिल पाती .ऐसा लगता है; आवाज़ किसी गहरी खाई से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है.राखी का त्यौहार उसके लिए अब बेमानी हो गया और उससे जुडी मैं, उसके भाई को कभी नहीं भुला पाती जिसे मैं ने कभी देखा ही नहीं था;जानती थी तो बस प्रिया की ज़ुबानी या फिर एक बार फोन पर बात किया था वही मेरे लिए उससे पहली और अंतिम बात रही. (first & final call)
दिल में छुपा यह गहरा बादल
आँखों की राह बरसता जाए
सूर्य न दिखता, घनघोर मेघ है
कहो,आंसू अब कौन सूखा पाए?
……………
यह गहन उदासी धीमे-धीमे
पारदर्शी बूंदों सी उतर रही है
अब तो हर श्रावणी पूर्णिमा
अश्कों से भीगी गुज़र रही है
……….
भाई के मेरे खिलौने छुपाने पर
ओह!मैं कितना शोर मचाती थी
मिठाई, टॉफी, उपहारों में भी
अपना हिस्सा वृहद् बनाती थी
…………
किसे चिढ़ाऊं,अब झगडूं किससे
ऐसे कई प्रश्न हैं दिल को मथ रहे
कैसे आ पायेगा वह सुदूर देश से
बस यादें ही अब तो साथ रहे
………..
घर के आँगन में व्यतीत पलों की
धुंधली यादें चटकीली हुई आज
वह ही था मित्र-शत्रु बचपन का
राखी थाली पर धरी हुई आज
……………….
संग उसके हँसते-खेलते ही तो
मैं सदियाँ भी पल में जीती थी
पल ही यूँ बन जायेंगे सदियाँ
नहीं किसी क्षण में सोची थी
…………..
किससे कहूँ वेदना दिल की
मुझको यहाँ किसका साथ है
गम का अन्धेरा इतना गहरा
हाथों को ना दिखता हाथ है
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समझाऊं कैसे जननी को कि
अब सहारा मुझे ही मान ले
जिम्मेदारी निभा सकूँ भाई सी
मेरे कटे पंखों में ऐसी जान दे
……………
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